महाभारतम्-12-शांतिपर्व-224

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  366. 366
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  369. 369
  370. 370
  371. 371
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  375. 375

भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गार्हस्थ्ये स्थितस्यापि भगवदुपासकस्य ज्ञानिनः पुरुषार्थसिद्धौ दृष्टान्ततया सुवर्चलाश्वेतकेतूपाख्यानकथनम्।। 1।।

`युधिष्ठिर उवाच। 12-224-1x
अस्ति कश्चिद्यदि विभो सदारो नियतो गृहे।
अतीतसर्वसंसारः सर्वद्वन्द्वविवर्जितः।
तं मे ब्रूहि महाप्राज्ञ दुर्लभः पुरुषो महान्।।
12-224-1a
12-224-1b
12-224-1c
भीष्म उवाच। 12-224-2x
शृणु राजन्यथावृत्तं यन्मां त्वं पृष्टवानसि।
इतिहासमिमं शुद्धं संसारभयभेषजम्।।
12-224-2a
12-224-2b
देवलो नाम विप्रर्षिः सर्वशास्त्रार्थकोविदः।
क्रियावान्धार्मिको नित्यं देवब्राह्मणपूजकः।।
12-224-3a
12-224-3b
सुता सुवर्चला नाम तस्य कल्याणलक्षणा।
नातिह्रस्वा नातिकृशा नातिदीर्घा यशस्विनी।
प्रदानसमयं प्राप्ता पिता तस्य ह्यचिन्तयत्।।
12-224-4a
12-224-4b
12-224-4c
अस्याः पतिः कुतो वेति ब्राह्मणः श्रोत्रियः परः।
विद्वान्विप्रो ह्यकुटुम्बः प्रियवादी महातपाः।।
12-224-5a
12-224-5b
इत्येवं चिन्तयानं तं रहस्याह सुवर्चला।। 12-224-6a
अन्धाय मां महाप्राज्ञ देह्यनन्धाय वै पितः।
एवं स्मर सदा विद्वन्ममेदं प्रार्थितं मुने।।
12-224-7a
12-224-7b
पितोवाच। 12-224-8x
न शक्यं प्रार्थितं वत्से त्वयाऽद्य प्रतिभाति मे।
अन्धतानन्धता चेति विकारो मम जायते।।
12-224-8a
12-224-8b
उन्मत्तेवाशुभं वाक्यं भाषसे शुभलोचने।। 12-224-9a
सुवर्चलोवाच। 12-224-10x
नाहमुन्मत्तभूताऽद्य बुद्धिपूर्वं ब्रवीमि ते।
विद्यते चेत्पतिस्तादृक्स मां भरति वेदवित्।।
12-224-10a
12-224-10b
येभ्यस्त्वं मन्यसे दातुं मामिहानय तान्द्विजान्।
तादृशं तं पतिं तेषु वरयिष्ये यथातथम्।।
12-224-11a
12-224-11b
भीष्म उवाच। 12-224-12x
तथेति चोक्त्वा तां कन्यामृषिः शिष्यानुवाच ह।
ब्राह्मणान्वेदसंपन्नान्योनिगोत्रविशोधितान्।।
12-224-12a
12-224-12b
मातृतः पितृतः शुद्धाञ्शुद्धानाचारतः शुभान्।
अरोगान्बुद्धिसंपन्नाञ्शीलसत्वगुणान्वितान्।।
12-224-13a
12-224-13b
असंकीर्णांश्च गोत्रेषु वेदव्रतसमन्वितान्।
ब्राह्मणान्स्नातकाञ्शीघ्रं मातापितृसमन्वितान्।
निवेष्टुकामान्कन्यां मे दृष्ट्वाऽऽनयत शिष्यकाः।।
12-224-14a
12-224-14b
12-224-14c
तच्छ्रुत्वा त्वरिताः शिष्या ह्याश्रमेषु ततस्ततः।
ग्रामेषु च ततो गत्वा ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयन्।।
12-224-15a
12-224-15b
ऋषेः प्रभावं मत्वा ते कन्यायाश्च द्विजोत्तमाः।
अनेकमुनयो राजन्संप्राप्ता देवलाश्रमम्।।
12-224-16a
12-224-16b
अनुमान्य यथान्यायं मुनीन्मुनिकुमारकान्।
अभ्यर्च्य विधिवत्तत्र कन्यामाह पिता महान्।।
12-224-17a
12-224-17b
एतेऽपि मुनयो वत्से स्वपुत्रैकमता इह।
वेदवेदाङ्गसंपन्नाः कुलीनाः शीलसंमताः।।
12-224-18a
12-224-18b
येऽमी तेषु वरं भद्रे त्वमिच्छसि महाव्रतम्।
तं कुमारं वृणीष्वाद्य तस्मै दास्याम्यहं शुभे।।
12-224-19a
12-224-19b
तथेति चोक्त्वा कल्याणी तप्तहेमनिभा तदा।
सर्वलक्षणसंपन्ना वाक्यमाह यशस्विनी।।
12-224-20a
12-224-20b
विप्राणां समितीर्दृष्ट्वा प्रणिपत्य तपोधनान्।
यद्यस्ति समितौ विप्रो ह्यन्धोऽनन्धः स मे वरः।।
12-224-21a
12-224-21b
तच्छ्रुत्वा मुनयस्तत्र वीक्षमाणाः परस्परम्।
नोचुर्विप्रा महाभागाः कन्यां मत्वा ह्यवेदिकां।।
12-224-22a
12-224-22b
कुत्सयित्वा मुनिं तत्र मनसा मुनिसत्तमाः।
यथागतं ययुः क्रुद्धा नानादेशनिवासिनः।।
12-224-23a
12-224-23b
कन्या च संस्थिता तत्र पितृवेश्मनि भामिनी।। 12-224-24a
ततः कदाचिद्ब्रह्मण्यो विद्वान्न्यायविशारदः।
ऊहापोहविधानज्ञो ब्रह्मचर्यसमन्वितः।।
12-224-25a
12-224-25b
वेदविद्वेदतत्वज्ञः क्रियाकल्पविशारदः।
आत्मतत्वविभागज्ञः पितृमान्गुणसागरः।।
12-224-26a
12-224-26b
श्वेतकेतुरिति ख्यातः श्रुत्वा वृत्तान्तमादरात्।
कन्यार्थं देवलं चापि शीघ्रं तत्रागतोऽभवत्।।
12-224-27a
12-224-27b
उद्दालकसुतं दृष्ट्वा श्वेतकेतुं महाव्रतम्।
यथान्यायं च संपूज्य देवलः प्रत्यभाषत।।
12-224-28a
12-224-28b
कन्ये एष महाभागे प्राप्तो ऋषिकुमारकः।
वरयैनं महाप्राज्ञं वेदवेदाङ्गपारगम्।।
12-224-29a
12-224-29b
तच्छ्रुत्वा कुपिता कन्या ऋषिपुत्रमुदैक्षत।
तां कन्यामाह विप्रर्षिः सोऽहं भद्रे समागतः।।
12-224-30a
12-224-30b
अन्धोऽहमत्र तत्वं हि तथा मन्ये च सर्वदा।
विशालनयनं विद्धि तथा मां हीनसंशयम्।
वृणीष्व मां वरारोहे भजे च त्वामनिन्दिते।।
12-224-31a
12-224-31b
12-224-31c
येनेदं वीक्षते नित्यं वृणोति स्पृशतेऽथवा।
घ्रायते वक्ति सततं येनेदं सार्यते पुनः।।
12-224-32a
12-224-32b
येनेदं मन्यते तत्वं येन बुध्यति वा पुनः।
न चक्षुर्विद्यते ह्येतत्स वै भूतान्ध उच्यते।।
12-224-33a
12-224-33b
यस्मिन्प्रवर्तते चेदं पश्यञ्छृण्वन्स्पृशन्नपि।
जिघ्रंश्च रसयंस्तद्वद्वर्तते येन चक्षुषा।।
12-224-34a
12-224-34b
तन्मे नास्ति ततो ह्यन्धो वृणु भद्रेऽद्य मामतः।
लोकदृष्ट्या करोमीह नित्यनैमित्तिकादिकम्।।
12-224-35a
12-224-35b
आत्मदृष्ट्या च तत्सर्वं विलिप्यासि च नित्यशः।
स्थितोऽहं निर्भरः शान्तः कार्यकारणभावनः।।
12-224-36a
12-224-36b
अविद्यया तरन्मृत्युं विद्यया तं तथाऽमृतम्।
यथाप्राप्तं तु संदृश्य वसामीह विमत्सरः।
क्रीते व्यवसितं भद्रे भर्ताऽहं ते वृणीष्व माम्।।
12-224-37a
12-224-37b
12-224-37c
भीष्म उवाच। 12-224-38x
ततः सुवर्चला दृष्ट्वा प्राह तं द्विजसत्तमम्।
मनसाऽसि वृतो विद्वञ्शेषकर्ता पिता मम।
वृणीष्व पितरं मह्यमेष वेदविधिक्रमः।।
12-224-38a
12-224-38b
12-224-38c
तद्विज्ञाय पिता तस्या देवलो मुनिसत्तमः।
श्वेतकेतुं च संपूज्य तथैवोद्दालकेन तम्।।
12-224-39a
12-224-39b
मुनीनामग्रतः कन्यां प्रददौ जलपूर्वकम्।
उदाहरन्ति वै तत्र श्वेतकेतुं निरीक्ष्य तम्।।
12-224-40a
12-224-40b
हृत्पुण्डरीकनिलयः सर्वभूतात्मको हरिः।
श्वेतकेतुस्वरूपेण स्थितोऽसौ मधुसूदनः।।
12-224-41a
12-224-41b
प्रीयतां माधवो देवः पत्नी चेयं सुता मम।
प्रतिपादयामि ते कन्यां सहधर्मचरीं शुभाम्।
इत्युक्त्वा प्रददौ तस्मै देवलो मुनिपुङ्गवः।।
12-224-42a
12-224-42b
12-224-42c
प्रतिगृह्य च तां कन्यां श्वेतकेतुर्महायशाः।
उपयम्य यथान्यायमत्र कृत्वा यथाविधि।।
12-224-43a
12-224-43b
समाप्य तन्त्रं मुनिभिर्वैवाहिकमनुत्तमम्।
स गार्हस्थ्ये वसन्धीमान्भार्यां तामिदमब्रवीत्।।
12-224-44a
12-224-44b
यानि चोक्तानि वेदेषु तत्सर्वं कुरु शोभने।
मया सह यथान्यायं सहधर्मचरी मम्।।
12-224-45a
12-224-45b
अहमित्येव भावेन स्थितोऽहं त्वं तथैव च।
तस्मात्कर्माणि कुर्वीथाः कुर्यां ते च ततः परम्।।
12-224-46a
12-224-46b
न ममेति च भावेन ज्ञानाग्निनिलयेन च।
अनन्तरं तथा कुर्यास्तानि कर्माणि भस्मसात्।।
12-224-47a
12-224-47b
एवं त्वया च कर्तव्यं सर्वदा दुर्भगा मया।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
तस्माल्लोकस्य सिद्ध्यर्थं कर्तव्यं चात्मसिद्धये।।
12-224-48a
12-224-48b
12-224-48c
उक्त्वैवं स महाप्राज्ञः सर्वज्ञानैकभाजनः।
पुत्रानुत्पाद्य तस्यां च यज्ञैः संतर्प्य देवताः।।
12-224-49a
12-224-49b
आत्मयोगपरो नित्यं निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः।
भार्यां तां सदृशीं प्राप्य बुद्धिं क्षेत्रज्ञयोरिव।।
12-224-50a
12-224-50b
लोकमन्यमनुप्राप्तौ भार्या भर्ता तथैव च।
साक्षिभूतौ जगत्यस्मिंश्चरमाणौ मुदाऽन्वितौ।।
12-224-51a
12-224-51b
ततः कदाचिद्भर्तारं श्वेतकेतुं सुवर्चला।
पप्रच्छ को भवानत्र ब्रूहि मे तद्द्विजोत्तम।।
12-224-52a
12-224-52b
तामाह भगवान्वाग्मी तया ज्ञातो न संशयः।
द्विजोत्तमेति मामुक्त्वा पुनः कमनुपृच्छसि।।
12-224-53a
12-224-53b
सा तमाह महात्मानं पृच्छामि हृदि शायिनम्।
तच्छ्रुत्वा प्रत्युवाचैनां स न वक्ष्यति भामिनि।।
12-224-54a
12-224-54b
नामगोत्रसमायुक्तमात्मानं मन्यसे यदि।
तन्मिथ्यागोत्रसद्भावे वर्तते देहबन्धनम्।।
12-224-55a
12-224-55b
अहमित्येष भावोऽत्र त्वयि चापि समाहितः।
त्वमप्यहमहं सर्वमहमित्येव वर्तते।
नात्र तत्परमार्थं वै किमर्थमनुपृच्छसि।।
12-224-56a
12-224-56b
12-224-56c
ततः प्रहस्य सा हृष्टा भर्तारं धर्मचारिणी।
उवाच वचनं काले स्मयमाना तदा नृप।।
12-224-57a
12-224-57b
किमनेकप्रकारेण विरोधेन प्रयोजनम्।
क्रियाकलापैर्ब्रह्मर्षे ज्ञाननष्टोऽसि सर्वदा।
तन्मे ब्रूहि महाप्राज्ञ यथाऽहं त्वामनुव्रता।।
12-224-58a
12-224-58b
12-224-58c
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-59x
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
वर्तते तेन लोकोऽयं संकीर्णश्च भविष्यति।।
12-224-59a
12-224-59b
संकीर्णे च तथा धर्मे वर्णः संकरमेति च।
संकरे च प्रवृत्ते तु मात्स्यो न्यायः प्रवर्तते।।
12-224-60a
12-224-60b
तदनिष्टं हरेर्भद्रे धातुरस्य महात्मनः।
परमेश्वरसंक्रीडा लोकसृष्टिरियं शुभे।।
12-224-61a
12-224-61b
यावत्पासव उद्दिष्टास्तावत्योऽस्य विभूतयः।
तावत्यश्चैव मायास्तु तावत्योऽस्याश्च शक्तयः।।
12-224-62a
12-224-62b
एवं सुगह्वरे युक्तो यत्र मे तद्भवाभवम्।
छित्त्वा ज्ञानासिना गच्छेत्स विद्वान्स च मे प्रियः।
सोऽहमेव न सन्देहः प्रतिज्ञा इति तस्य वै।।
12-224-63a
12-224-63b
12-224-63c
ये मूढास्ते दुरात्मानो धर्मसंकरकारकाः।
मर्यादाभेदका नीचा नरके यान्ति जन्तवः।।
12-224-64a
12-224-64b
आसुरीं योनिमापन्ना इति देवानुशासनम्।। 12-224-65a
भगवत्या तथा लोके रक्षितव्यं न संशयः।
मर्यादालोकरक्षार्थमेवमस्ति तथा स्थितः।।
12-224-66a
12-224-66b
सुवर्चलोवाच। 12-224-67x
शब्दः कोत्र इति ख्यातस्तथाऽर्थं च महामुने।
आकृत्या पतयो ब्रूहि लक्षणेन पृथक्पृथक्।।
12-224-67a
12-224-67b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-68x
व्यत्ययेन च वर्णानां परिवादकृतो हि यः।
स शब्द इति विज्ञेयस्तन्निपातोऽर्थ उच्यते।।
12-224-68a
12-224-68b
सुवर्चलोवाच। 12-224-69x
शब्दार्थयोर्हि संबन्धस्त्वनयोरस्ति वा न वा।
तन्मे ब्रूहि यथातत्वं शब्दस्यानेऽर्थ एव चेत्।।
12-224-69a
12-224-69b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-70x
शब्दार्थयोर्न चैवास्ति संबन्धोऽत्यन्त एव हि।
पुष्करे च यथा तोयं तथाऽस्मीति च वेत्थ तत्।।
12-224-70a
12-224-70b
सुवर्चलोवाच। 12-224-71x
अर्थे स्थितिर्हि शब्दस्य नान्यथा च स्थितिर्भवेत्।
विद्यते चेन्महाप्राज्ञ विनाऽर्थं ब्रूहि सत्तम।।
12-224-71a
12-224-71b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-72x
ससंसर्गोऽतिमात्रस्तु वाचकत्वेन वर्तते।
अस्ति चेद्वर्तते नित्यं विकारोच्चारणेन वै।।
12-224-72a
12-224-72b
सुवर्चलोवाच। 12-224-73x
शब्दस्थानोत्र इत्युक्तस्तथाऽर्थ इति मे कृतः।
अर्थः स्थितो न तिष्ठेच्च विरूढमिह भाषितम्।।
12-224-73a
12-224-73b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-74x
न विकूलोऽत्र कथितो नाकाशं हि विना जगत्।
संबन्धस्तत्र नास्त्येव तद्वदित्येष मन्यताम्।।
12-224-74a
12-224-74b
सुवर्चलोवाच। 12-224-75x
सदाऽहंकारशब्दोऽयं व्यक्तमात्मनि संश्रितः।
न वाचस्तत्र वर्तन्ते इति मिथ्या भविष्यति।।
12-224-75a
12-224-75b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-76x
अहंशब्दो ह्यहंभावो नात्मभावे शुभव्रते।
न वर्तन्ते परेऽचिन्त्ये वाचः सगुणलक्षणाः।।
12-224-76a
12-224-76b
सुवर्चलोवाच। 12-224-77x
अहं गात्रैकतः श्यामा भावनपि तथैव च।
तन्मे ब्रूहि यथान्यायमेवं चेन्मुनिसत्तम।।
12-224-77a
12-224-77b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-78x
मृण्मये हि घटे भावस्तादृग्भाव इहेष्यते।
अयं भावः परेऽचिन्त्ये ह्यात्मभावो यथाच तत्।।
12-224-78a
12-224-78b
अहं त्वमेतदित्येव परे संकल्पना मया।
तस्माद्वाचो न वर्तन्त इति नैव विरुध्यते।।
12-224-79a
12-224-79b
तस्माद्वामेन वर्तन्ते मनसा भीरु सर्वशः।
यथाऽऽकाशगतं विश्वं संसक्तमिव लक्ष्यते।।
12-224-80a
12-224-80b
संसर्गे सति संबन्धात्तद्विकारं भविष्यति।
अनाकाशगतं सर्वं विकारे च सदा गतम्।।
12-224-81a
12-224-81b
तद्ब्रह्म परमं शुद्धमनौषम्यं न शक्यते।
न दृश्यते तथा तच्च दृश्यते च मतिर्मम।।
12-224-82a
12-224-82b
सुवर्चलोवाच। 12-224-83x
निर्विकारं ह्यमूर्ति च निरयं सर्वगं तथा।
दृश्यते च वियन्नित्यं दृगात्मा तेन दृश्यते।।
12-224-83a
12-224-83b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-84x
त्वचा स्पृशति वै वायुमाकाशस्थं पुनः पुनः।
तत्स्थं गन्धं तथाघ्राति ज्योतिः पश्यति चक्षुषा।।
12-224-84a
12-224-84b
तमोरश्मिगणश्चैव मेघजालं तथैव च।
वर्षं तारागणं चैव नाकाशं दृश्यते पुनः।।
12-224-85a
12-224-85b
आकाशस्याप्यथाकाशं सद्रूपमिति निश्चितम्।
तदर्थे कल्पिता ह्येते तत्सत्यो विष्णुरेव च।
यानि नामानि गौणानि ह्युपचारात्परात्मनि।।
12-224-86a
12-224-86b
12-224-86c
न चक्षुषा न मनसा न चान्येन परो विभुः।
चिन्त्यते सूक्ष्मया बुद्ध्या वाचा वक्तुं न शक्यते।।
12-224-87a
12-224-87b
एतत्प्रपञ्चमखिलं तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।
महाघटोऽल्पकश्चैव यथा मह्यां प्रतिष्ठितौ।।
12-224-88a
12-224-88b
न च स्त्री न पुमांश्चैव यथैव न नपुंसकः।
केवलज्ञानमात्रं तत्तस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
12-224-89a
12-224-89b
भूमिसंस्थानयोगेन वस्तुसंस्थानयोगतः।
रसभेदा यथा तोये प्रकृत्यामात्मनस्तथा।।
12-224-90a
12-224-90b
तद्वाक्यस्मरणान्नित्यं तृप्तिं वारि पिबन्निव।
प्राप्नोति ज्ञानमखिलं तेन तत्सुखमेधते।।
12-224-91a
12-224-91b
सुवर्चलोवाच। 12-224-92x
अनेन साध्यं किं स्याद्वै शब्देनेति मतिर्मम।
वेदगम्यः परोऽचिन्त्य इति पौराणिका विदुः।।
12-224-92a
12-224-92b
निरर्थको यथा लोके तद्वत्स्यादिति मे मतिः।
निरीक्ष्यैवं यथान्यायं वक्तुमर्हसि मेऽनघ।।
12-224-93a
12-224-93b
श्वेतकेतुरुवाच। 12-224-94x
वेदगम्यं परं शुद्धमिति सत्या परा श्रुतिः।
व्याहत्या नैतदित्याह व्युपलिङ्गे च वर्तते।।
12-224-94a
12-224-94b
निरर्थको न चैवास्ति शब्दो लौकिक उत्तमे।
अनन्वयास्तथा शब्दा निरर्था इति लौकिकैः।।
12-224-95a
12-224-95b
गृह्यन्ते तद्वदित्येव न वर्तन्ते परात्मनि।
अगोचरत्वं वचसां युक्तमेवं तथा शुभे।।
12-224-96a
12-224-96b
साधनस्योपदेशाच्च ह्युपायस्य च सूचनात्।
उपलक्षणयोगेन व्यावृत्त्या च प्रदर्शनात्।
वेदगम्यः परः शुद्ध इति मे धीयते मतिः।।
12-224-97a
12-224-97b
12-224-97c
अध्यात्मध्यानसंभूतमभूतं----- वत्स्फुटम्।
ज्ञानं विद्धि शुभाचारे तेन यान्ति परां गतिम्।।
12-224-98a
12-224-98b
यदि मे व्याहृतं गुह्यं श्रुतं न तु त्वया शुभे।
तथ्यमित्येव वा शुद्धे ज्ञानं ज्ञानविलोचने।।
12-224-99a
12-224-99b
नानारूपवदस्यैवमैश्वर्यं दृश्यते शुभे।
न वायुस्तं न सूर्यस्तं नाग्निस्तत्तत्परं पदम्।।
12-224-100a
12-224-100b
अनेन पूर्णमेतद्धि हृदि भूतमिहेष्यते।
एतावदात्मविज्ञानमेतावद्यदहं स्मृतम्।
आवयोर्न च सत्वे वै तस्मादज्ञानबन्धनम्।।
12-224-101a
12-224-101b
12-224-101c
भीष्म उवाच। 12-224-102x
एवं सुवर्चला हृष्टा प्रोक्ता भर्त्रा यथार्थवत्।
परिचर्यमाणा ह्यनिशं तत्वबुद्धिसमन्विता।।
12-224-102a
12-224-102b
भर्ता च तामनुप्रेक्ष्य नित्यनैमित्तिकान्वितः।
परमात्मनि गोविन्दे वासुदेवे महात्मनि।।
12-224-103a
12-224-103b
समाधाय च कर्माणि तन्मयत्वेन भावितः।
कालेन महता राजन्प्राप्नोति परमां गतिम्।।
12-224-104a
12-224-104b
एतत्ते कथितं राजन्यस्मात्त्वं परिपृच्छसि।
गार्हस्थ्यं च समास्थाय गतौ जायापती परम्'
12-224-105a
12-224-105b
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि
चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 224।।
शांतिपर्व-223 पुटाग्रे अल्लिखितम्। शांतिपर्व-225