महाभारतम्-12-शांतिपर्व-112
दिखावट
← शांतिपर्व-111 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-112 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-113 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति अलसताया अनर्थहेतुताख्यापकोट्रचरिताभिधानम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-112-1x |
किं पार्थिवेन कर्तव्यं किंच कृत्वा सुखी भवेत्। तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वधर्मभृतां वर।। | 12-112-1a 12-112-1b |
भीष्म उवाच। | 12-112-2x |
हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि शृणु कार्यैकनिश्चयम्। यथा राज्ञेह कर्तव्यं यच्च कृत्वा सुखी भवेत्।। | 12-112-2a 12-112-2b |
नचैवं वर्तितव्यं स्म यथेदमनुशुश्रुम्। उष्ट्रस्य तु महद्वृत्तं तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 12-112-3a 12-112-3b |
जातिस्मरो महानुष्ट्रः प्रजापतिकुलोद्भवः। तपः सुमहदातिष्ठदरण्ये संशितव्रतः।। | 12-112-4a 12-112-4b |
तपसस्तस्य चान्तेऽथ प्रीतिमानभवद्विभुः। वरेण च्छन्दयामास ततश्चैनं पितामहः।। | 12-112-5a 12-112-5b |
उष्ट्र उवाच। | 12-112-6x |
भगवंस्त्वत्प्रसादान्मे दीर्घा ग्रीवा भवेदियम्। योजनानां शतं साग्रमिच्छेयं चारितुं विभो।। | 12-112-6a 12-112-6b |
एवमस्विति चोक्तः स वरदेन महात्मना। प्रतिलभ्य वरं श्रेष्ठं ययावुष्ट्रः स्वकं वनम्।। | 12-112-7a 12-112-7b |
स चकार तदाऽऽलस्यं वरदानात्सुदुर्मतिः। न चैच्छच्चिरतुं गन्तुं दुरात्मा कालमोहितः।। | 12-112-8a 12-112-8b |
स कदाचित्प्रसार्यैव तां ग्रीवां शतयोजनाम्। चचार श्रान्तहृदयो वातश्चागात्ततो महान्।। | 12-112-9a 12-112-9b |
स गुहायां शिरोग्रीवां निधाय पशुरात्मनः। आस्ते वर्षमथाभ्यागात्सुमहत्प्लावयज्जगत्।। | 12-112-10a 12-112-10b |
अथ शीतपरीताङ्गो जम्बुकः क्षुच्छ्रमान्वितः। सदारस्तां गुहामाशु प्रविवेश जलार्दितः।। | 12-112-11a 12-112-11b |
स दृष्ट्वा मांसजीवी तु सुभृशं क्षुच्छ्रमान्वितः।। अभक्षयत्ततो ग्रीवामुष्ट्रस्य भरतर्षभ।। | 12-112-12a 12-112-12b |
यदा त्वबुध्यतात्मानं भक्ष्यमाणं स वै पशु। तदा संकोचने यत्नमकरोद्भृशदुःखितः।। | 12-112-13a 12-112-13b |
यावदूर्ध्वमधश्चैव ग्रीवां संक्षिपते पशुः। तावत्तेन सदारेण जम्बुकेन स भक्षितः।। | 12-112-14a 12-112-14b |
स हत्वा भक्षयित्वा च तमुष्ट्रं जम्बुकस्तदा। विगते वातवर्पे तु निश्चक्राम गुहोदरात्।। | 12-112-15a 12-112-15b |
एवं दुर्बुद्धिना प्राप्तमुष्ट्रेण निधनं तदा। आलस्यस्य क्रमात्पश्य महान्तं दोषमागतम्।। | 12-112-16a 12-112-16b |
त्वमप्येवंविधं हित्वा योगेन नियतेन्द्रियः। वर्तस्व बुद्धिमूलं तु विजयं मनुरब्रवीत्।। | 12-112-17a 12-112-17b |
बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत। तानि जङ्घाजघन्यानि भारप्रत्यवराणि च।। | 12-112-18a 12-112-18b |
राज्यं तिष्ठति दक्षस्य संगृहीतेन्द्रियस्य च। [आर्तस्य बुद्धिमूलं हि विजयं मनुरब्रवीत्।] गुप्तं मन्त्रं श्रुतवतः सुसहायस्य चानघ।। | 12-112-19a 12-112-19b 12-112-19c |
`असहायवतो ह्यर्था न तिष्ठन्ति कदाचन।' परीक्षितसहायस्य तिष्ठन्तीह युधिष्ठिर। सहाययुक्तेन मही कृत्स्ना शक्या प्रशासितुम्।। | 12-112-20a 12-112-20b 12-112-20c |
इदं हि सद्भिः कथितं विधिज्ञैः पुरा महेन्द्रप्रतिमप्रभावः। मयाऽपि चोक्तं तव शास्त्रदृष्ट्या त्वमप्रमत्तः प्रचरस्व राजन्।। | 12-112-21a 12-112-21b 12-112-21c 12-112-21d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 112।। |
12-112-8 चरितुं भक्षितुम्।। 12-112-17 योगेनोपायेन। एवंविधमालस्यम्।। 12-112-18 बाहूपलक्षितं शैर्यम्। जङ्घोपलक्षितं पादविहरणम्। भारो भारवहनम्।।
शांतिपर्व-111 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-113 |