महाभारतम्-12-शांतिपर्व-338
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नारदन शुकंप्रति मोक्षमार्गप्रदर्शकहितोपदेशः।। 1।।
नारद उवाच। | 12-388-1x |
अशोकं शोकनाशार्थं शास्त्रं शान्तिकरं शिवम्। निशम्य लभते बुद्धिं तां लब्ध्वा सुखमेधते।। | 12-338-1a 12-338-1b |
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसेदिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।। | 12-338-2a 12-338-2b |
तस्मादनिष्टनाशार्थमितिहासं निबोध मे। तिष्ठते चेद्वशे बुद्धिर्लभते शोकनाशनम्।। | 12-338-3a 12-338-3b |
अनिष्टसंप्रयोगाच्च विप्रयोगात्प्रियस्य च। मनुष्या मानसैर्दुःखैर्युज्यन्ते स्वल्पबुद्ध्यः।। | 12-338-4a 12-338-4b |
द्रव्येषु समतीतेषु ये गुणास्तान्न चिन्तयेत्। न तानाद्रियमाणस्य स्नेहबन्धः प्रमुच्यते।। | 12-338-5a 12-338-5b |
दोषदर्शी भवेत्तत्र यत्र रागः प्रवर्तते। अनिष्ट्वद्धितं पश्येत्तथा क्षिप्रं विरज्यते।। | 12-338-6a 12-338-6b |
नार्थो न धर्मो न यशो योऽतीतमनुशोचति। अप्यभावेन युज्येत तच्चास्य न निवर्तते।। | 12-338-7a 12-338-7b |
गुणैर्भूतानि युज्यन्ते वियुज्यन्ते तथैव च। सर्वाणि नैतदेकस्य शोकस्थानं हि युज्यते।। | 12-338-8a 12-338-8b |
मृतं वा यदि वा नष्टं योऽतीतमनुशोचति। दुःखेन लभते दुःखं द्वावनर्थौ प्रपद्यते।। | 12-338-9a 12-338-9b |
नाश्रु कुर्वन्ति ये बुद्ध्या दृष्ट्वा लोकेषु संततिम्। सम्यक्प्रपश्यतः सर्वं नाश्रुकर्मोपपद्यते।। | 12-338-10a 12-338-10b |
दुःखोपघाते शारीरे मानसे चाप्युपस्थिते। यस्मिन्न शक्यते कर्तुं यत्नस्तन्नानुचिन्तयेत्।। | 12-338-11a 12-338-11b |
भैषज्यमेतद्दुःखस्य यदेतन्नानुचिन्तयेत्। चिन्त्यमानं हि न व्येति भूयश्चापि प्रवर्धते।। | 12-338-12a 12-338-12b |
प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः। एतद्विज्ञानमसामर्थ्यं न बालैः समतामियात्।। | 12-338-13a 12-338-13b |
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः। आरोग्यं प्रियसंसर्गो गृध्येत्तत्र न पण्डितः।। | 12-338-14a 12-338-14b |
न जानपदिकं दुःखमेकः शोचितुमर्हति। अशोचन्प्रतिकुर्वीत यदि पश्येदुपक्रमम्।। | 12-338-15a 12-338-15b |
सुखाद्बहुतरं दुःखं जीविते नात्र संशयः। स्निग्धत्वं चेन्द्रियार्थेषु मोहान्मरणमप्रियम्।। | 12-338-16a 12-338-16b |
परित्यजति यो दुःखं सुखं वाऽप्युभयं नरः। अभ्येति ब्रह्म सोत्यन्तं न तं शोचन्ति पण्डिताः।। | 12-338-17a 12-338-17b |
त्यजन्ते दुःखमर्था हि पालनेन च ते सुखाः। दुःखेन चाधिगम्यन्ते नाशमेषां न चिन्तयेत्।। | 12-338-18a 12-338-18b |
अन्यामन्यां धनावस्थां प्राप्य वैशेषिकीं नराः। अतृप्ता यान्ति विध्वंसं संतोषं यान्ति पण्डिताः।। | 12-338-19a 12-338-19b |
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः। संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम्।। | 12-338-20a 12-338-20b |
अन्तो नास्ति पिपासायास्तुष्टिस्तु परमं सुखम्। तस्मात्संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः।। | 12-338-21a 12-338-21b |
निमेषमात्रमपि हि वयो गच्छन्न तिष्ठति। स्वशरीरेष्वनित्येषु नित्यं किमनुचिन्तयेत्।। | 12-338-22a 12-338-22b |
भूतेषु भावं संचिन्त्य ये बुद्ध्वा मनसः परम्। न शोचन्ति गताध्वानः पश्यन्तः परमां गतिं।। | 12-338-23a 12-338-23b |
संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम्। व्याघ्रः पशुमिवासाद्य मृत्युरादाय गच्छति।। | 12-338-24a 12-338-24b |
तथाऽप्युपायं संपश्येद्दुःखस्य परिमोक्षणे। अशोचन्नारभेतैव युक्तश्चाव्यसनी भवेत्।। | 12-338-25a 12-338-25b |
शब्दे स्पर्शे च रूपे च गन्धेषु च रसेषु च। नोपभोगात्परं किंचिद्धनिनो वाऽधनस्य च।। | 12-338-26a 12-338-26b |
प्राक्संप्रयोगाद्भूतानां नास्ति दुःखं परायणम्। विप्रयोगात्तु सर्वस्य न शोचेत्प्रकृतिस्थितः।। | 12-338-27a 12-338-27b |
धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा। चक्षुःश्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च विद्यया।। | 12-338-28a 12-338-28b |
प्रणयं प्रतिसंहृत्य सस्निग्धेष्वितरेषु च। विचरेदसमुन्नद्धः स सुखी स च पण्डितः।। | 12-338-29a 12-338-29b |
अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः। आत्मनैव सहायेन यश्चरेत्स सुखी भवेत्।। | 12-338-30a 12-338-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 338।। |
12-338-1 शान्तिपरमिति ध. पाठः।। 12-338-5 ताननाद्रियमाणस्य स्नेहबन्ध इति ध. पाठः।। 12-338-8 शोकस्थानं हि विद्यत इति झ. ट. पाठः।। 12-338-9 द्वावनर्थौ इष्ठस्त्र्यादिदेहविनाशः स्वशरीरतापश्च। शेषग्रन्थः स्पष्टार्थो व्याख्यातप्रायश्चेति न व्याख्यायते।। 12-338-11 दुःखोपघातैः शारीरैर्मानसैश्चाप्युपस्थिते इति ध. पाठः।। 12-338-12 चिन्त्यमानं हि नापैतीति ध. पाठः।। 12-338-18 दुःखेन चापि त्यजते पालने न च ते सुखमिति ध. पाठः।। 12-338-23 भूतेष्वभावं संचिन्त्य ये बुद्ध्या तमसः परमिति ध. पाठः।। 12-338-27 नास्ति दुःखमनामयमिति ट. थ. ध. पाठः।।
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