महाभारतम्-12-शांतिपर्व-139
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पूजनीब्रह्मदत्तसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-139-1x |
उक्तो मन्त्रो महाबाहो विश्वासो नास्ति शत्रुषु। कथं हि राजा वर्तेत यदि सर्वत्र नाश्वसेत्।। | 12-139-1a 12-139-1b |
विश्वासाद्धि परं राजन्राज्ञामुत्पद्यते भयम्। कथं हि नाश्वसन्राजा शत्रूञ्जयति पार्थिवः।। | 12-139-2a 12-139-2b |
एतन्मे संशयं छिन्धि मनो मे संप्रमुह्यति। अविश्वासे कथामेतामुपाश्रित्य पितामह।। | 12-139-3a 12-139-3b |
भीष्म उवाच। | 12-139-4x |
शृणुष्व राजन्यो वृत्तो ब्रह्मदत्तनिवेशने। पूजन्या सह संवादो ब्रह्मदत्तस्य भूपतेः।। | 12-139-4a 12-139-4b |
काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्य त्वन्तः पुरनिवासिनी। पूजी नाम शकुनिर्दीर्घकालं सहोपिता। | 12-139-5a 12-139-5b |
रुदज्ञा सर्वभूतानां यथा वै जीवजीवकः। सर्वज्ञा सर्वतत्त्वज्ञा तिर्यग्योनिं गताऽपि स।। | 12-139-6a 12-139-6b |
अभिप्रजाता सा तत्र पुत्रमेकं सुवर्चसम्। समकालं च राज्ञोऽपि देव्यां पुत्रो व्यजायत।। | 12-139-7a 12-139-7b |
तयोरर्थे कृतज्ञा तु खेचरी पूजनी सदा। समद्रतीरं सा गत्वा आजहार फलद्वयम्।। | 12-139-8a 12-139-8b |
अष्ट्यर्थं च स्वपुत्रस्य राजपुत्रस्य चैव ह। लमेकं सुतायादाद्राजपुत्राय चापरम्।। | 12-139-9a 12-139-9b |
---मृतास्यादसदृशं बलतेजोभिवर्धनम्। [आदायादाय सैवाशु तयोः प्रादात्पुनः पुनः।।] | 12-139-10a 12-139-10b |
ततोऽगच्छत्परां वृद्धिं राजपुत्रः फलाशनात्। ततः स धात्र्या कक्षेण उह्यमानो नृपात्मजः।। | 12-139-11a 12-139-11b |
ददर्श तं पक्षिसुतं बाल्यादागत्य बालकः। ततो बाल्याच्च यत्नेन तेनाक्रीडत पक्षिणा।। | 12-139-12a 12-139-12b |
शून्ये च तमुपादाय पक्षिणं समजातकम्। हत्वा ततः स राजेन्द्र धात्र्या हस्तमुपागतः।। | 12-139-13a 12-139-13b |
अथ सा पूजनी राजन्नागमत्फलहारिणी। अपश्यन्निहतं पुत्रं तेन बालेन भूतले।। | 12-139-14a 12-139-14b |
बाष्पपूर्णमुखी दीना दृष्ट्वा तं पतितं सुतम्। पूजनी दुःखसंतप्ता रुदन्ती वाक्यमब्रवीत्।। | 12-139-15a 12-139-15b |
क्षत्रिये संगतं नास्ति न प्रीतिर्न च सौहृदम्। कारणे सान्त्वयन्त्येते कृतार्थाः संत्यजन्ति च।। | 12-139-16a 12-139-16b |
क्षत्रियेषु न विश्वासः कार्यः सर्वापकारिषु। अपकृत्यापि सततं सान्त्वयन्ति निरर्थकम्।। | 12-139-17a 12-139-17b |
इयमस्य करोम्यद्य सदृशीं वैरयातनाम्। कृतघ्नस्य नृशंसस्य भृशं विश्वासघातिनः।। | 12-139-18a 12-139-18b |
सहसंजातवृद्धस्य तथैव सहभोजिनः। शरण्यस्य वधश्चैव त्रिविधं तस्य किल्विषम्।। | 12-139-19a 12-139-19b |
इत्युक्त्वा चरणाभ्यां तु नेत्रे नृपसुतस्य सा। हृत्वा स्वस्था तत इदं पूजनी वाक्यमब्रवीत्।। | 12-139-20a 12-139-20b |
इच्छयेह कृतं पापं सद्य एवोपसर्पति। कृतं प्रतिकृतं येषां न नश्यति शुभाशुभम्।। | 12-139-21a 12-139-21b |
पापं कर्म कृतं किंचिद्यदि तस्मिन्न दृश्यते। निपात्यतेऽस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्नृषु।। | 12-139-22a 12-139-22b |
ब्रह्मदत्तः सुतं दृष्ट्वा पूजन्या हृतलोचनम्। कृतप्रतिकृतं मत्वा पूजनीमिदमब्रवीत्।। | 12-139-23a 12-139-23b |
अस्ति वै कृतमस्माभिरस्ति प्रतिकृतं त्वया। उभयं तत्समीभूतं वस पूजनि मा गमः।। | 12-139-24a 12-139-24b |
पूजन्युवाच। | 12-139-25x |
सकृत्कृतापराधस्य तत्रैव परिलम्बतः। न तद्बुधाः प्रशंसन्ति श्रेयस्तत्रापसर्पणम्।। | 12-139-25a 12-139-25b |
सान्त्वे प्रयुक्ते विवृते वैरे चैव न विश्वसेत्। क्षिप्रं स हन्यते मूढो न हि वैरं प्रशाम्यति।। | 12-139-26a 12-139-26b |
अन्योन्यकृतवैराणां पुत्रपौत्रं नियच्छति। पुत्रपौत्रविनाशे च परलोकं नियच्छति।। | 12-139-27a 12-139-27b |
सर्वेषां कृतवैराणामविश्वासः सुखावहः। एकान्ततो न विश्वासः कार्यो विश्वासघातके।। | 12-139-28a 12-139-28b |
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्। विश्वासाद्भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति। कामं विश्वासयेदन्यान्परेषां च न विश्वसेत्।। | 12-139-29a 12-139-29b 12-139-29c |
माता पिता बान्धवानां वरिष्ठौ भार्या क्षेत्रं बीजमात्रं तु पुत्रः। भ्राता शत्रुः क्लिन्नपाणिर्वयस्य आत्मा ह्येकः सुखदुःखस्य भोक्ता।। | 12-139-30a 12-139-30b 12-139-30c 12-139-30d |
अन्योन्यकृतवैराणां न संधिरुपपद्यते। स च हेतुरतिक्रान्तो यदर्थमहमावसम्।। | 12-139-31a 12-139-31b |
पूजितस्यार्थमानाभ्यां सान्त्वं पूर्वापकारिणः। हृदयं भवत्यविश्वस्तं कर्म त्रासयते बलात्।। | 12-139-32a 12-139-32b |
पूर्वं संमानना यत्र पश्चाच्चैव विमानना। जह्यात्स सत्ववान्वासं संमानितविमानितः।। | 12-139-33a 12-139-33b |
उषिताऽस्मि तवागारे दीर्घकालमहिंसिता। तदिदं वैरमुत्पन्नं सुखमास्ख व्रजाम्यहम्।। | 12-139-34a 12-139-34b |
ब्रह्मदत्त उवाच। | 12-139-35x |
यः कृते प्रतिकुर्याद्वै न स तत्रापराध्नुयात्। अनृणस्तेन भवति वस पूजनि मागमः।। | 12-139-35a 12-139-35b |
पूजन्युवाच। | 12-139-36x |
न कृतस्य तु कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः। हृदयं तत्र जानाति कर्तुश्चैव कृतस्य च।। | 12-139-36a 12-139-36b |
ब्रह्मदत्त उवाच। | 12-139-37x |
कृतस्य चैव कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः। वैरस्योपशमो दृष्टः पापं नोपाश्नुते पुनः।। | 12-139-37a 12-139-37b |
पूजन्युवाच। | 12-139-38x |
नास्ति वैरमतिक्रान्तं सान्त्वितोऽस्मीति नाश्वसेत्। विश्वासाद्बध्यते लोकस्तस्माच्छ्रेयोप्यदर्शनम्।। | 12-139-38a 12-139-38b |
तरसा ये न शक्यन्ते शस्त्रैः सुनिसितैरपि। साम्ना तेऽपि निगृह्यते गजा इव करेणुभिः।। | 12-139-39a 12-139-39b |
ब्रह्मदत्त उवाच। | 12-139-40x |
संवासाज्जायते स्नेहो जीवितान्तकरेष्वपि। अन्योन्यस्य हि विश्वासः श्वानश्वपचयोरिव।। | 12-139-40a 12-139-40b |
अन्योन्यकृतवैराणां संवासान्मृदुतां गतम्। नैव तिष्ठति तद्वैरं पुष्करस्थमिवोदकम्।। | 12-139-41a 12-139-41b |
पूजन्युवाच। | 12-139-42x |
वैरं पञ्चसमुत्थानं तच्च बुध्यन्ति पण्डिताः। स्त्रीकृतं वास्तुजं वाग्जं स्वसपत्नापराधजम्।। | 12-139-42a 12-139-42b |
तत्र दाता न हन्तव्यः क्षत्रियेण विशेषतः। प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा बुद्ध्वा दोषबलाबलम्।। | 12-139-43a 12-139-43b |
कृतवैरे न विश्वासः कार्यस्त्विह सुहृद्यपि। प्रच्छन्नं तिष्ठते वैरं गूढोऽग्निरिव दारुषु।। | 12-139-44a 12-139-44b |
न वित्तेन न पारुष्यैर्न च सान्त्वेन च श्रुतैः। वैराग्निः शाम्यते राजन्निमग्नोऽग्निरिवार्णवे।। | 12-139-45a 12-139-45b |
न हि वैराग्निरुद्धूतः कर्म चाप्यपराधजम्। शाम्यत्यदग्ध्वा नृपते विना ह्येकतरक्षयात्।। | 12-139-46a 12-139-46b |
सत्कृतस्यार्थामनाभ्यां तत्र पूर्वापकारिणः। नैव शान्तिर्न विश्वासः कर्मणा जायते बलात्।। | 12-139-47a 12-139-47b |
नैवापकारे कस्मिंश्चिदहं त्वयि तथा भवान्। उषितावाऽपि चक्रितं नेदानीं विश्वसाम्यहम्।। | 12-139-48a 12-139-48b |
ब्रह्मदत्त उवाच। | 12-139-49x |
कालेन क्रियते कार्यं तथैव विविधाः क्रियाः कालेनैव प्रवर्तन्ते कः कस्येत्यपराध्यति।। | 12-139-49a 12-139-49b |
तुल्यं चोभे प्रवर्तेते मरणं जन्म चैव हि। कार्यते चैव कालेन तन्निमित्तं न जीवति।। | 12-139-50a 12-139-50b |
बध्यन्ते युगपत्केचिदेकैकं चापरे तथा। कालो दहति भूतानि संप्राप्तोऽग्निरिवेन्धनम्।। | 12-139-51a 12-139-51b |
नाहं प्रमाणं नैव त्वभन्योन्यं कारणं शुभे। कालो नित्यमुपादत्ते सुखं दुःखं च देहिनाम्।। | 12-139-52a 12-139-52b |
एवं वसेह सन्नेहा यथाकाममहिंसिता। यत्कृतं तत्तु मे क्षान्तं त्वं च वै क्षम पूजनि।। | 12-139-53a 12-139-53b |
पूजन्युवाच। | 12-139-54x |
यदि कालः प्रमाणं ते न वैरं कस्यचिद्भवेत्। कस्मादपचितिं यान्ति बान्धवा बान्धवे हते।। | 12-139-54a 12-139-54b |
कस्माद्देवासुराः सर्वे अन्योन्यमभिजघ्निरे। यदि कालेन निर्याणं सुखदुःखे भवाभवौ।। | 12-139-55a 12-139-55b |
भिषजो भैषजं कर्तुं कस्मादिच्छन्ति रोगिणः। यदि कालेन पच्यन्ते भेषजैः किं प्रयोजनम्।। | 12-139-56a 12-139-56b |
प्रलापः सुमहान्कस्मात्क्रियते शोकमूर्च्छितैः। यदि कालः प्रमाणं ते कस्माद्धर्मोऽस्ति कर्तृषु।। | 12-139-57a 12-139-57b |
तव पुत्रो ममापत्यं हतवान्हिंसितो मया। अनन्तरं त्वयाहं च बाधितव्या महीपते।। | 12-139-58a 12-139-58b |
अहं हि पुत्रशोकेन कृतपापा तवात्मजे। तथा त्वया प्रहर्तव्यं मयि तत्त्वं च मे शृणु।। | 12-139-59a 12-139-59b |
भक्षार्थं क्रीडनार्थं च नरा वाञ्छन्ति पक्षिणः। तृतीयो नास्ति संयोगो वधबन्धादृते क्षमः।। | 12-139-60a 12-139-60b |
वधबन्धभयादेके मोक्षतन्त्रमुपाश्रिताः। जनीमरणजं दुःखं प्राहुर्वेदविदो जनाः।। | 12-139-61a 12-139-61b |
सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वस्य दयिताः सुताः। दुःखादुद्विजते सर्वं सर्वस्य सुखमीप्सितम्।। | 12-139-62a 12-139-62b |
दुःखं जरा ब्रह्मदत्त दुःखमर्थविपर्ययः। दुःखं चानिष्टसंवासो दुःखमिष्टवियोजनम्।। | 12-139-63a 12-139-63b |
वैरबन्धकृतं दुःखं स्त्रीकृतं सह तथा। दुःखं दुःखेन सततं विवर्धति---- धिप।। | 12-139-64a 12-139-64b |
न दुःखं परदुःखे वै केचिदाहुर----यः। यो दुःखं नाभिजानाति स जल्पति माहाजने।। | 12-139-65a 12-139-65b |
यस्तु शोचति दुःखार्ताः स कथं वक्तमुत्सहेत। रसज्ञः सर्वदुःखस्य यथाऽऽत्मनि तथा परे।। | 12-139-66a 12-139-66b |
`भिन्ना श्लिष्टा न सज्यन्ते शस्त्रैः सुनिशितैरपि।' साम्ना तेऽपि निगृह्यन्ते गजा इव करेणुभिः।। | 12-139-67a 12-139-67b |
यत्कृतं ते मया राजंस्त्वया च मम यत्कृतम्। न तद्वर्षशतैः शक्यं व्यपोहितुमरिंदम्।। | 12-139-68a 12-139-68b |
आवयोः कृतमन्योन्यं तस्य संधिर्न विद्यते। स्मृत्वास्मृत्वा हि ते पुत्रं नवं वैरं भविष्यति।। | 12-139-69a 12-139-69b |
वैरमन्तिकमासाद्य यः प्रीतिं कर्तुमिच्छति। मृण्मयस्येव भग्नस्य तस्य संधिर्न विद्यते।। | 12-139-70a 12-139-70b |
निश्चयः स्वार्थशास्त्रेषु न विश्वासः सुखोदयः। उशना चैव गाथे द्वे प्रह्लादायाब्रवीत्पुरा।। | 12-139-71a 12-139-71b |
ये वैरिणः श्रद्दधते सत्ये सत्येतरेऽपि वा। वध्यन्ते श्रद्दधाना हि मधु शुष्कतृणैरिव।। | 12-139-72a 12-139-72b |
न हि वैराणि शाम्यन्ति कुलेष्वादशमाद्युगात्। आख्यातारश्च विद्यन्ते कुले चेज्जायते पुमान्।। | 12-139-73a 12-139-73b |
उपगृह्य तु वैराणि सान्त्वयन्ति नराधिपाः। अथैनं प्रतिहिंसन्ति पूर्णं घटमिवाश्मनि।। | 12-139-74a 12-139-74b |
सदा न विश्वसेद्राजन्पापं कृत्वेह कस्यचित्। अपकृत्य परेषां हि विश्वासाद्दुःखमश्नुते।। | 12-139-75a 12-139-75b |
ब्रह्मदत्त उवाच। | 12-139-76x |
नाविश्वासाच्चिनोत्यर्थमीहते चापि किंचन। भयात्त्वेकतरं मित्रं कृतकृत्या भवत्विह।। | 12-139-76a 12-139-76b |
पूजन्युवाच। | 12-139-77x |
यस्येह व्रणिनौ पादौ पभ्द्यां च परिधावतः। क्षिण्येते तस्य तौ पादौ सुगुप्तमपि धावतः।। | 12-139-77a 12-139-77b |
नेत्राभ्यां सरुजाभ्यां यः प्रतिवातमुदीक्षते। तस्य वायुरुजाऽत्यर्थं नेत्रयोर्भवति ध्रुवम्।। | 12-139-78a 12-139-78b |
दुष्टं पन्थानमासाद्य यो मोहादभिपद्यते। आत्मनो बलमज्ञात्वा तदन्तं तस्य जीवितम्।। | 12-139-79a 12-139-79b |
यस्तु वर्षमविज्ञाय क्षेत्रं कर्षति कर्षकः। हीनः पुरुषकारेण तस्य वै नाप्नुते फलम्।। | 12-139-80a 12-139-80b |
यस्तु तिक्तं कषायं वा स्वादु वा मधुरं हितम्। आहारं कुरुते नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते।। | 12-139-81a 12-139-81b |
पथ्यं मुक्त्वा तु यो मोहाद्दुष्टमश्नाति भोजनम्। परिणाममविज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम्।। | 12-139-82a 12-139-82b |
दैवं पुरुषकारश्च स्थितावन्योन्यसंश्रयात्। उदात्तं कर्म वै तत्र दैवं क्लीबा उपासते।। | 12-139-83a 12-139-83b |
कर्म चात्महितं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु। ग्रस्यतेऽकर्मशीलस्तु सदाऽनर्थैरकिंचनः।। | 12-139-84a 12-139-84b |
तस्मात्संशयितव्येऽर्थे कार्य एव पराक्रमः। सर्वस्वमपि संत्यज्य कार्यमात्महितं नरैः।। | 12-139-85a 12-139-85b |
विद्या शौचं च दाक्ष्यं च बलं शौर्यं च पञ्चमम्। मित्राणि सहजान्याहुर्वर्तयन्तीह यैर्बुधाः।। | 12-139-86a 12-139-86b |
निवेशनं च कुप्यं च क्षेत्रं भार्यां सुहृज्जनम्। एतान्युपचितान्याहुः सर्वत्र लभते पुमान्।। | 12-139-87a 12-139-87b |
सर्वत्र रमते प्राज्ञः सर्वत्र च विरोचते। न विभीषयते किंचिद्भीषितो न बिभेति च।। | 12-139-88a 12-139-88b |
नित्यं बुद्धिमतोऽप्यर्थः स्वल्पकोऽपि विवर्धते। दाक्ष्येण कुर्वतां कर्मं संयमात्प्रतितिष्ठति।। | 12-139-89a 12-139-89b |
गृहस्नेहावबद्धानां नराणामल्पमेधसाम्। कुस्त्री खादति मांसानि माघमां सेगवा इव।। | 12-139-90a 12-139-90b |
गृहं क्षेत्राणि मित्राणि स्वदेश इति चापरे। इत्येवमवसीदन्ति नरा बुद्धिविपर्यये।। | 12-139-91a 12-139-91b |
उत्पथाच्च विमानाच्च देशाद्दुर्भिक्षपीडितात्। अन्यत्र वसतिं गच्छेद्वसेद्वा नित्यमानितः।। | 12-139-92a 12-139-92b |
तस्मादन्यत्र यास्यामि वस्तुं नाहमिहोत्सहे। कृतमेतदनाहार्यं तव पुत्रे च पार्थिव।। | 12-139-93a 12-139-93b |
कुभार्यां च कुपुत्रं च कुराजानं कुसौहृदम्। कुसंबन्धं कुदेशं च दूरतः परिवर्जयेत्।। | 12-139-94a 12-139-94b |
कुमित्रे नास्ति विश्वासः कुभार्यायां कुतो रतिः। कुराज्ये निर्वृतिर्नास्ति कुदेशे नास्ति जीविका।। | 12-139-95a 12-139-95b |
कुपुत्रे सौहृदं नास्ति नित्यमस्थिरसौहृदम्। अवमानः कुंसबन्धे भवत्यर्थविपर्यये।। | 12-139-96a 12-139-96b |
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निर्वृतिः। तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीवति।। | 12-139-97a 12-139-97b |
यत्र नास्ति बलात्कारः स राजा तीव्रशासनः। स च यौनाभिसंबन्धो यः सतोऽपि बुभूषति।। | 12-139-98a 12-139-98b |
भार्या देशोऽथ मित्राणि पुत्रसंबन्धिबान्धवाः। एते सर्वे गुणवति धर्मनेत्रे महीपतौ।। | 12-139-99a 12-139-99b |
अधर्मज्ञस्य विषये प्रजा नश्यन्ति निग्रहात्। राजा मूलं त्रिवर्गस्य अप्रमत्तोऽनुपालयन्।। | 12-139-100a 12-139-100b |
बलिषङ्भागमुद्धृत्य फलं समुपयोजयेत्। न रक्षति प्रजाः सम्यग्यः स पार्थिवतस्करः।। | 12-139-101a 12-139-101b |
दत्वाऽभयं यः स्वयमेव राजा न तत्प्रमाणं कुरुतेऽर्थलोभात्। स सर्वलोकादुपलभ्य पाप मधर्मबुद्धिर्निरयं प्रयाति।। | 12-139-102a 12-139-102b 12-139-102c 12-139-102d |
दत्त्वाऽभयं स्वयं राजा प्रमाणं कुरुते यदि। स सर्वं सुखमाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन्।। | 12-139-103a 12-139-103b |
पिता भ्राता गुरुः शास्ता वह्निर्वैश्रवणो यमः। सप्त राज्ञो गुणानेतान्मनुराह प्रजापतिः।। | 12-139-104a 12-139-104b |
पिता हि राजा लोकस्य प्रजानां योऽनुकम्पिता। तस्मिन्मिथ्यापनीते हि तिर्यग्भवति मानवः।। | 12-139-105a 12-139-105b |
संभावयति मातेव दीनमप्युपपद्यते। दहत्यग्निरिवानिष्टान्यमयत्यहितांस्तदा।। | 12-139-106a 12-139-106b |
इष्टेषु विसृजन्नर्थान्कुबेर इव कामदः। गुरुर्धर्मोपदे--- गोप्ता च परिपालनात्।। | 12-139-107a 12-139-107b |
यस्तु रञ्जयते ---- पौरजानपदान्गुणैः। न तस्य भ्रश्यते---ज्यं गुणधर्मानुपालनात्।। | 12-139-108a 12-139-108b |
यः सम्यक्प्रति---ह्णाति पौरजानपदार्चनम्। स सुखं प्रेक्षते राजा इह लोके परत्र च।। | 12-139-109a 12-139-109b |
नित्योद्विग्नाः प्रजा यस्य करुभारप्रपीडिताः। अनर्थैर्विप्रलुप्यन्ते स गच्छति पराभवम्।। | 12-139-110a 12-139-110b |
प्रजा यस्य विवर्धन्ते सरसीव महोत्पलम्। स राजा सर्वसुखदः स्वर्गलोके महीयते।। | 12-139-111a 12-139-111b |
बलिना विग्रहो राजन्न कदाचित्प्रशस्यते। बलिना विग्रही तस्य कुतो राज्यं कुतः सुखम्।। | 12-139-112a 12-139-112b |
भीष्म उवाच। | 12-139-113x |
सैवमुक्त्वा शकुनिका ब्रह्मदत्तं नराधिपम्। राजानं समनुज्ञाप्य जगामाभीप्सितां दिशम्।। | 12-139-113a 12-139-113b |
एतत्ते ब्रह्मदत्तस्य पूजन्या सह भाषितम्। मयोक्तं भरतश्रेष्ठ किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि।। | 12-139-114a 12-139-114b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 139।। |
12-139-6 जीवजीवकः शाकुनिकः। जीवजीवक इति पक्षिविशेष इत्यन्ये।। 12-139-7 अभिप्रजाता प्रसूतवती। देव्यां राजभार्यायाम्।। 12-139-13 समजातकं समानवयसम्।। 12-139-21 इच्छया बुद्धिपूर्वकम्। उपसर्पति फलरूपेण कर्तारम्।। 12-139-22 पापमपराधकृतमेनः।। 12-139-24 मागमः मास्मगमः।। 12-139-25 परिलम्बतः विश्वासं कुर्वतः।। 12-139-27 नियच्छति मृत्युर्नाशयति। ततो नष्टसंततित्वात्परलोकं च नियच्छति।। 12-139-30 भार्या जरेति झ. पाठः। जरा वीर्यहरत्वात्। बीजमात्रं प्रसवरूपत्वात्। शत्रुः रिक्यहरत्वात्। क्लिन्नपाणिः उपक्रियमाणः। धनादिना पूज्यमानमेव मित्रं नान्यदित्यर्थः।। 12-139-31 हेतुः पुत्ररक्षा स्नेहो वा।। 12-139-32 कर्म स्वकृतम्।। 12-139-36 अन्योन्यस्यापकारमुभावपि नित्यं स्मरत इत्यर्थः।। 12-139-39 न शक्यन्ते जेतुमिति शेषः।। 12-139-40 श्वपचश्चण्डालः। श्वमांसाहारोऽपि शुना सह सख्यमेति।। 12-139-42 वैरं स्त्रीकृतं कृष्णशिशुपालयोः वास्तु गृंहादिकं स्थानं तज्जं कौरवपाण्डवानाम्। वाग्जं द्रोणद्रुपदयोः। सापन्नं जातिवैरं मूषकमार्जारयोः। अपराधजं आवयोः।। 12-139-43 कृतवैरोऽपि दाताऽर्थादिना मानयिता अर्थाशावत राज्ञा न हन्तव्यः।। 12-139-46 वैराग्निः अदग्ध्वा न शाम्यत्यपराधजं कर्म एकतरक्षयाद्विना न शाम्यतीति योजना।। 12-139-50 कार्यते जायते। तन्निमित्तं कालनिमित्तम्। न जीवति म्रियते।। 12-139-53 क्षम क्षमस्व।। 12-139-57 कस्माद्धर्मोऽस्ति कर्तृषु। तदा विधिनिषेधकथा व्यर्था स्यादिति भावः।। 12-139-67 भिन्नकमा न सज्यन्त इति ध. पाठः।। 12-139-72 वैरिणो वाक्ये इति शेषः। शत्रुणा दर्शितं पुरःस्थितं मधु श्रद्दधानाः शुष्कतृणैश्छन्ने प्रपाते यथा पतन्ति तद्वदेते इत्यर्थः।। 12-139-76 सर्वथाऽनाश्वासे नृणां जीवनमेव न स्यादित्याह नेति।। 12-139-82 परिमाणमविज्ञाय इति ड. थ. पाटः।। 12-139-85 तस्मात्सर्वं व्यपोह्यार्थमिति झ. पाठः।। 12-139-87 कुप्यं ताम्रादि। चादकुप्यं स्वर्णरत्नादि। उपहितान्याहुरिति झ. पाठः। तत्र उपहितानि उपधिमित्राणीत्यर्थः।। 12-139-88 किंचित्तमिति शेषः।। 12-139-90 खादति। स्वापराधैस्तं संतापयति शुष्कं करोति। माघमां कर्कटीम्। सेगवास्तदपत्यानि। कर्कट्या नाशहेतुर्गर्भ एवेति प्रसिद्धम्।। 12-139-92 उत्पतेत्सहजाद्देशाद्व्याधिदुर्भिक्षपीडितादिति झ. पाठः।। 12-139-93 मे मया। अनाहार्यं अपरिहार्यमित्यर्थः।। 12-139-98 भीरेव नास्ति संबन्धो दरिद्रं यो बुभूषति इति झ. पाठः तत्र यत्र देशे बलात्कारो नास्ति तत्र भीरे वनास्ति। यो राजा दरिद्रं जनं बुभूषति पालयितुमिच्छति स एव तेन सह पाल्यपालकभावलक्षणः संबन्ध इति योज्यम्। यं जनोऽपि बुभूषति इति ड. थ. पाठः।। 12-139-99 धर्मनेत्रो धर्मनेता।। 12-139-101 समुपयोजयेत् भक्षयेत्।। 12-139-102 अभयमिति च्छेदः।। 12-139-106 संभावयति इष्टं चिन्तयति। उपपद्यते पालयति।।
शांतिपर्व-138 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-140 |