महाभारतम्-12-शांतिपर्व-302
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति नानाधर्मप्रतिपादकपराशरगीतानुवादः।। 1।।
जनक उवाच। | 12-302-1x |
वर्णो विशेषवर्णानां महर्षे केन जायते। एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तद्ब्रूहि वदतां वर।। | 12-302-1a 12-302-1b |
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः। कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः।। | 12-302-2a 12-302-2b |
पराशर उवाच। | 12-302-3x |
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः। तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।। | 12-302-3a 12-302-3b |
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः। अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।। | 12-302-4a 12-302-4b |
वक्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे। सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः।। | 12-302-5a 12-302-5b |
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रियाः स्मृताः। ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः।। | 12-302-6a 12-302-6b |
चतुर्णामेव वर्णानामागमः पुरुषर्षभ। अतोन्ये त्वतिरिक्ता ये ते वै संकरजाः स्मृताः।। | 12-302-7a 12-302-7b |
क्षत्रियातिरथाम्बष्ठा उग्रा वैदेहकास्तथा। श्वपाकाः पुल्कसाः स्तेना निषादाः सूतमागधाः।। | 12-302-8a 12-302-8b |
अयोगाः कारणा व्रात्याश्चाण्डालाश्च नराधिप। एते चतुर्भ्यो वर्णेभ्यो जायन्ते वै परस्परात्।। | 12-302-9a 12-302-9b |
जनक उवाच। | 12-302-10x |
ब्रह्मणैकेन जातानां नानात्वं गोत्रतः कथम्। बहूनीह हि लोके वै गोत्राणि मुनिसत्तम।। | 12-302-10a 12-302-10b |
यत्र तत्र कथं जाताः स्वयोनिं मुनयो गताः। शूद्रयोनौ समुत्पन्ना वियोनौ च तथा परे।। | 12-302-11a 12-302-11b |
पराशर उवाच। | 12-302-12x |
राजन्नैतद्भवेद्ब्राह्ममपकृष्टेन जन्मना। महात्मनां समुत्पत्तिस्तपसा भावितात्मनाम्।। | 12-302-12a 12-302-12b |
उत्पाद्य पुत्रान्मुनयो नृपते यत्र तत्र ह। स्वेनैव तपसा तेषामृषित्वं विदधुः पुनः।। | 12-302-13a 12-302-13b |
पितामहश्च मे पूर्वमृश्यशृङ्गश्च काश्यपः। वेदस्ताण्ड्यः कृपश्चैव काक्षीवत्कमठादयः।। | 12-302-14a 12-302-14b |
यवक्रीतश्च नृपते द्रोणश्च वदतांवरः। आयुर्मतङ्गो दत्तश्च द्रुमदो मात्स्य एव च।। | 12-302-15a 12-302-15b |
एते स्वां प्रकृतिं प्राप्ता वैदेह तपसो बलात्। प्रतिष्ठिता वेदविदो दमेन तपसैव हि।। | 12-302-16a 12-302-16b |
मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव। अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।। | 12-302-17a 12-302-17b |
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव। नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।। | 12-302-18a 12-302-18b |
जनक उवाच। | 12-302-19x |
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम। ततः सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि।। | 12-302-19a 12-302-19b |
पराशर उवाच। | 12-302-20x |
प्रतिग्रहो याजनं च तथैवाध्यापनं नृप। विशेषधर्मा विप्राणां रक्षा क्षत्रस्य शोभना।। | 12-302-20a 12-302-20b |
कृषिश्च पाशुपाल्यं च वाणिज्यं च विशामपि। द्विजानां परिचर्या च शूद्रकर्म नराधिप।। | 12-302-21a 12-302-21b |
विशेषधर्मा नृपते वर्णानां परिकीर्तिताः। धर्मान्साधारणांस्तात विस्तरेण शृणुष्व मे।। | 12-302-22a 12-302-22b |
आनृशंस्यमर्हिसा चाप्रमादः संविभागिता। श्राद्धकर्मातिथेयं च सत्यमक्रोध एव च।। | 12-302-23a 12-302-23b |
स्वेषु दारेषु संतोषः शौचं नित्याऽनसूयता। आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप।। | 12-302-24a 12-302-24b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्रयो वर्णा द्विजातयः। अत्र तेषामधीकारो धर्मेषु द्विपदां वर।। | 12-302-25a 12-302-25b |
विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ति नृपते त्रयः। उन्नमन्ति यथा सन्त आश्रित्येह स्वकर्मसु।। | 12-302-26a 12-302-26b |
न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा। श्रुतिप्रयुक्तं न च धर्ममाप्नुते न चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम्।। | 12-302-27a 12-302-27b 12-302-27c 12-302-27d |
वैदेहकं शूद्रमुदाहरन्ति द्विजा महाराज श्रुतोपपन्नाः। अहं हि पश्यामि नरेन्द्र देवं विश्वस्य विष्णुं जगतः प्रधानम्।। | 12-302-28a 12-302-28b 12-302-28c 12-302-28d |
सतां वृत्तमधिष्ठाय निहीना उद्दिधीर्षवः। मन्त्रवर्जं न दुष्यन्ति कुर्वाणाः पौष्टिकीः क्रियाः।। | 12-302-29a 12-302-29b |
यथायथा हि सद्वॄत्तमालम्बन्तीतरे जनाः। यथातथा सुखं प्राप्य प्रेत्य चेह च मोदते।। | 12-302-30a 12-302-30b |
जनक उवाच। | 12-302-31x |
किं कर्म दूषयत्येनमथो जातिर्महामुने। संदेहो मे समुत्पन्नस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-302-31a 12-302-31b |
पराशर उवाच। | 12-302-32x |
असंशयं महाराज उभयं दोषकारकम्। कर्म चैव हि जातिश्च विशेषं तु निशामय।। | 12-302-32a 12-302-32b |
जात्या च कर्मणा चैव दुष्टं कर्म न सेवते। जात्या दुष्टश्च यः पापं न करोति स पूरुषः।। | 12-302-33a 12-302-33b |
जात्या प्रधानं पुरुषं कुर्वाणं कर्म धिक्कृतम् कर्म तद्दूषयत्येनं तस्मात्कर्म न शोभनम्।। | 12-302-34a 12-302-34b |
जनक उवाच। | 12-302-35x |
कानि कर्माणि धर्म्याणि लोकेऽस्मिन्द्विजसत्तम्। न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वदा।। | 12-302-35a 12-302-35b |
पराशर उवाच। | 12-302-36x |
शृणु मेऽत्र महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि। यानि कर्माण्यहिंस्राणि नरं त्रायन्ति सर्वदा।। | 12-302-36a 12-302-36b |
संन्यस्याग्नीनुदासीनाः पश्यन्ति विगतज्वराः। नैःश्रेयसं कर्मपथं समारुह्य यथाक्रमम्।। | 12-302-37a 12-302-37b |
प्रश्रिता विनयोपेता दमनित्याः सुसंशिताः। पयान्ति स्थानमजरं सर्वकर्मविवर्जिताः।। | 12-302-38a 12-302-38b |
सर्वे वर्णा धर्मकार्याणि सम्यक् कृत्वा राजन्सत्यवाक्यानि चोक्त्वा। त्यक्त्वा धर्मं दारुणं जीवलोके यान्ति स्वर्गं नात्र कार्यो विचारः।। | 12-302-39a 12-302-39b 12-302-39c 12-302-39d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्व्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 302।। |
12-302-6 ऊरुजा वणिजो राजन्निति ध. पाठः।। 12-302-10 नानात्वं ब्रह्मक्षत्रियादिभावेन भिन्नत्वम्। गोत्रतः अन्वयतः। गोत्राणि ब्रह्मक्षत्रियादीनि उग्राम्बष्ठादीनि च। तस्माज्जातितारतम्यमयुक्तमित्यर्थः।। 12-302-11 यथा काक्षीवता शूद्रायामुत्पादिताः पुत्रा ब्राह्मणत्वं नीता नतु ते निषादत्वं प्राप्ता इत्यर्थः। तस्मात्कारणद्वारा कार्यद्वारा वा जातिभेदो न युक्त इति भावः।। 12-302-14 वसुस्ताण्ड्य इति थ. पाठः। वटस्ताण्ड्य इति ध. पाठः।। 12-302-16 तपसो श्रयादिति थ. पाठः।। 12-302-26 निरयेत्रय इति थ. पाठः।।
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