महाभारतम्-12-शांतिपर्व-304
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्रेयःसाधनकलापप्रतिपादकपराशरगीतानुवादसमापनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-304-1x |
पुनरेव तु पप्रच्छ जनको मिथिलाधिपः। पराशरं महात्मानं धर्मे परमनिश्चयम्।। | 12-304-1a 12-304-1b |
जनक उवाच। | 12-304-2x |
किं श्रेयः का गतिर्ब्रह्मन्किं कृतं न विनश्यति। क्व गतो न निवर्तेत तन्मे ब्रूहि महामते।। | 12-304-2a 12-304-2b |
पराशर उवाच। | 12-304-3x |
असङ्गः श्रेयसो मूलं ज्ञानं ज्ञानगतिः परा। चीर्णं तपो न प्रणश्येद्वापः क्षेत्रे न नश्यति।। | 12-304-3a 12-304-3b |
छित्त्वाऽधर्ममयं पाशं यदा धर्मेऽभिरज्यते। दत्त्वाऽभयकृतं दानं तदा सिद्धिमवाप्नुते।। | 12-304-4a 12-304-4b |
यो ददाति सहस्राणि गवामश्वशतानि च। अभयं सर्वभूतेभ्यः सदा तमभिवर्तते।। | 12-304-5a 12-304-5b |
वसन्विषयमध्येऽपि न वसत्येव बुद्धिमान्। संवसत्येव दुर्बुद्धिरसत्सु विषयेष्वपि।। | 12-304-6a 12-304-6b |
नाधर्मः श्लिष्यते प्राज्ञं पयः पुष्करपर्णवत्। अप्राज्ञमधिकं पापं श्लिष्यते जतुकाष्ठवत्।। | 12-304-7a 12-304-7b |
नाधर्मः कारणापेक्षी कर्तारमभिमुञ्चति। कर्ता खलु यथाकालं ततः समभिपद्यते।। | 12-304-8a 12-304-8b |
न भिद्यन्ते कृतात्मान आत्मप्रत्ययदर्शिनः। बुद्धिकर्मेन्द्रियाणां हि प्रमत्तो यो न बुध्यते। शुभाशुभे प्रसक्तात्मा प्राप्नोति सुमहद्भयम्।। | 12-304-9a 12-304-9b 12-304-9c |
वीतरागो जितक्रोधः सम्यग्भवति यः सदा। विषये वर्तमानोऽपि न स पापेन युज्यते।। | 12-304-10a 12-304-10b |
मर्यादायां वर्तमानोऽपि नावसीदति। पुष्टस्रोत इवासक्तः स्फीतो भवति संचयः।। | 12-304-11a 12-304-11b |
यथा भानुगतं तेजो मणिः शुद्धः समाधिना। आदत्ते राजशार्दूल तथा योगः प्रवर्तते।। | 12-304-12a 12-304-12b |
यथा तिलानामिह पुण्यसंश्रया त्पृथक्पृथग्याति गुणोऽतिसाम्यताम्। तथा नराणां भुवि भावितात्मनां यथाश्रयं सत्वगुणः प्रवर्तते।। | 12-304-13a 12-304-13b 12-304-13c 12-304-13d |
जहाति दारान्विविधाश्च संपदः पदं च यानं विविधाश्च सत्क्रियाः। त्रिविष्टपे जातमतिर्यदा नर स्तदाऽस्य बुद्धिर्विषयेषु भिद्यते।। | 12-304-14a 12-304-14b 12-304-14c 12-304-14d |
प्रसक्तबुद्धिर्विषयेषु यो नरो न बुध्यते ह्यात्महितं कथंचन। स सर्वभावानुगतेन चेतसा नृपाऽऽमिषेणेव झषो विकृष्यते।। | 12-304-15a 12-304-15b 12-304-15c 12-304-15d |
संघातवन्मर्त्यलोकः परस्परमपाश्रितः। कदलीगर्भनिःसारो नौरिवाप्सु निमज्जति।। | 12-304-16a 12-304-16b |
न धर्मकालः पुरुषस्य निश्चितो न चापि मृत्युः पुरुषं प्रतीक्षते। सदा हि धर्मस्य क्रियैव शोभना तदा नरो मृत्युमुखान्निवर्तते।। | 12-304-17a 12-304-17b 12-304-17c 12-304-17d |
यथाऽन्धः स्वगृहे युक्तो ह्यभ्यासादेव गच्छति। तथा युक्तेन मनसा प्राज्ञो गच्छति तां गतिम्।। | 12-304-18a 12-304-18b |
मरणं जन्मनि प्रोक्तं जन्म वै मरणाश्रितम्। अविद्वान्मोक्षधर्मेषु बद्धो भ्रमति चक्रवत्।। | 12-304-19a 12-304-19b |
बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च। विस्तराः क्लेशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः। परार्थं विस्तराः सर्वे त्यागमांत्महितं विदुः।। | 12-304-20a 12-304-20b 12-304-20c |
यथा मृणालानुगतमाशु मुञ्चति कर्दमम्। तथाऽऽत्मा पुरुषस्येह मनसा परिमुच्यते।। | 12-304-21a 12-304-21b |
मनः प्रणयतेऽऽत्मानं स एनमभियुञ्जति। युक्तो यदा स भवति तदा तं पश्यते परम्।। | 12-304-22a 12-304-22b |
परार्थे वर्तमानस्तु स्वं कार्यं योऽभिमन्यते। इन्द्रियार्थेषु सक्तः स स्वकार्यात्परिहीयते।। | 12-304-23a 12-304-23b |
अधस्तिर्यग्गतिं चैव स्वर्गे चैव परां गतिम्। प्राप्नोति सुकृतैरात्मा प्राज्ञस्येहेतरस्य च।। | 12-304-24a 12-304-24b |
मृन्मये भाजने पक्वे यथा वै नश्यति द्रवः। तथा शरीरं तपसा तप्तं विषयमश्नुते।। | 12-304-25a 12-304-25b |
विषयानश्नुते यस्तु न स भोक्ष्यत्यसंशयम्। यस्तु भोगांस्त्यजेदात्मा स वै भोक्तुं व्यवस्यति।। | 12-304-26a 12-304-26b |
नीहारेण हि संवीतः शिश्नोदरपरायणः। जात्यन्ध इव पन्थानमावृतात्मा न बुध्यते।। | 12-304-27a 12-304-27b |
वणिग्यथा समुद्राद्वै यथार्थं लभते धनम्। तथा मर्त्यार्णवाज्जन्तोः कर्मविज्ञानतो गतिः।। | 12-304-28a 12-304-28b |
अहोरात्रमये लोके जरारूपेण संचरन्। मृत्युर्ग्रसति भूतानि पवनं पन्नगो यथा।। | 12-304-29a 12-304-29b |
स्वयं कृतानि कर्माणि जातो जन्तुः प्रपद्यते। नाकृतं लभते कश्चित्किंचिदत्र प्रियाप्रियम्।। | 12-304-30a 12-304-30b |
सयानं यान्तमासीनं प्रवृत्तं विषयेषु च। शुभाशुभानि कर्माणि प्रपद्यन्ते नरं सदा।। | 12-304-31a 12-304-31b |
न ह्यन्यत्तीरमासाद्य पुनस्तर्तुं व्यवस्यति। दुर्लभो दृश्यते ह्यस्य विनिपातो महार्णवे।। | 12-304-32a 12-304-32b |
यथा भावावसन्ना हि नौर्महाम्भसि तन्तुना। यथा मनोभियोगाद्वै शरीरं प्रचिकीर्षति।। | 12-304-33a 12-304-33b |
यथा समुद्रमभितः संश्रिताः सरितोऽपराः। तथाऽन्याप्रकृतिर्योगादभिसंश्रियते सदा।। | 12-304-34a 12-304-34b |
स्नेहपाशैर्बहुविधैरासक्तमनसो नराः। प्रकृतिस्था विषीदन्ति जले सैकतवेश्मवत्।। | 12-304-35a 12-304-35b |
शरीरगृहसंस्थस्य शौचतीर्थस्य देहिनः। बुद्धिमार्गप्रयातस्य सुखं त्विह परत्र च।। | 12-304-36a 12-304-36b |
विस्तराः क्लेशसंयुक्ताः संक्षेपास्तु सुखावहाः। परार्थं विस्तराः सर्वे त्यागमात्महितं विदुः।। | 12-304-37a 12-304-37b |
संकल्पजो मित्रवर्गो ज्ञातयः कारणात्मकाः। भार्या पुत्रश्च दासश्च स्वमर्थमनुयुञ्जते।। | 12-304-38a 12-304-38b |
न माता न पिता किंचित्कस्यचित्प्रतिपद्यते। दानपथ्यौदनो जन्तु स्वकर्मफलमश्नुते।। | 12-304-39a 12-304-39b |
माता पुत्रः पिता भ्राता भार्या मित्रजनस्तथा। अष्टापदपदस्थाने लाक्षामुद्रेव लक्ष्यते।। | 12-304-40a 12-304-40b |
सर्वाणि कर्माणि पुराकृतानि शुभाशुभान्यात्मनो यान्ति जन्तोः। उपस्थितं कर्मफलं विदित्वा बुद्धिं तथा चोदयतेऽन्तरात्मा।। | 12-304-41a 12-304-41b 12-304-41c 12-304-41d |
व्यवसायं समाश्रित्य सहायान्योऽधिगच्छति। न तस्य कश्चिदारम्भः कदाचिदवसीदति।। | 12-304-42a 12-304-42b |
अद्वैधमनसं युक्तं शूरं धीरं विपश्चितम्। न श्रीः संत्यजते नित्यमादित्यमिव रश्मयः।। | 12-304-43a 12-304-43b |
आस्तिक्यव्यवसायाभ्यामुपायान्वितया धिया। य आरभत्यनिन्द्यात्मा न सोऽर्थात्परिसीदति।। | 12-304-44a 12-304-44b |
सर्वःस्वानि शुभाशुभानि नियतं कर्माणि जन्तुःस्वयं गर्भात्संप्रतिपद्यते तदुभयं यत्तेन पूर्वं कृतम्। मृत्युश्चापरिहारवान्समगतिः कालेन विच्छेदिना दारोश्चूर्णमिवाश्मसारविहितं कर्मान्तिकं प्रापयेत् | 12-304-45a 12-304-45b 12-304-45c 12-304-45d |
स्वरूपतामात्मकृतं च विस्तरं कुलान्वयं द्रव्यसमृद्धिसंचयम्। नरो हि सर्वो भलते यथाकृतं शुभाशुभेनात्मकृतेन कर्मणा।। | 12-304-46a 12-304-46b 12-304-46c 12-304-46d |
भीष्म उवाच। | 12-304-47x |
इत्युक्तो जनको राजन्याथातथ्यं मनीषिणा। श्रुत्वा धर्मविदां श्रेष्ठः परां मुदमवाप ह।। | 12-304-47a 12-304-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुरधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 304।। |
12-304-2 श्रेयः श्रेयः साधनम्। क्व गत्वा न निवर्तन्त इति ड. थ. पाठः।। 12-304-3 ज्ञानं चैव परा गतिरिति ड. थ. पाठः। न प्रणश्येत्संसिद्धो न निवर्तते इति ड. थ. पाठः।। 12-304-5 स दानमतिवर्तते इति ध. पाठः।। 12-304-11 यथा नद्यां बद्धः सेतुर्नैव सीदति स्रोतःपुष्टिं करोति एवमसक्तो धर्म एव सेतुर्यस्य सः। मर्यादायां बद्धो नैव सीदति। संचयस्तपावृद्धिश्च स्फीता भवतीत्यर्थः।। 12-304-13 यथानिलानामिह पुष्पसंचयादिति ध. पाठः।। 12-304-14 जहाति राजन्विहितेन संपदा सदश्वयानं विविधाश्च शय्याः इति ध. पाठः।। 12-304-15 आमिषेण बडिशमर्भितेन। झषो मत्स्यः। न विन्दते ह्यात्मपदं कदाचनेति ड. थ. पाठः।। 12-304-16 संघातवद्देहेन्द्रियादिसमुदायवत्। मर्त्यलोकः स्त्रीपुत्रपश्वादिसमुदायः। अपाश्रित उपकारकः।। 12-304-19 जन्मनि जन्मनिमित्तम्।। 12-304-20 विस्तराः वैतानिकान्यग्रिहोत्रादीनि। संक्षेपास्त्यागादयः।। 12-304-23 स्वकार्यं यो निवर्तते इति थ. ध. पाठः।। 12-304-25 मृण्मये भाजने बह्नौ यथा वै शुष्यते द्रवमिति ड. थ. पाठः।। 12-304-41 वान्ति फलं दातुमिति शेषः।। 12-304-42 व्यपसायमुद्योगम्।। 12-304-43 अद्वैधमनसं एकाग्रचित्तम्।। 12-304-45 गर्भात् गर्भप्रवेशमारभ्य। यत् यस्मात्तदुभयं शुभाशुभम्। अपरिहारवान्परिहर्तुमशक्यः। कालेन प्राप्तेन विच्छेदिना जीवननाशकेन सहायेन सृत्युः कर्मान्तिकं दिष्टान्तं विनाशाख्यं प्रापयेत्। दारोः काष्ठस्य चूर्णं अश्मसारविहितं ककचकृतम्। समा सीतोष्णसाम्यवती गतिर्यस्य स समगतिर्वायुः। दारुचूर्णमिव मृत्युर्नरं कालेनान्तं नयतीत्यर्थः। कर्मान्तरं प्रापयेदिति ध. पाठः।। 12-304-46 स्वरूपतां स्वस्य रूपं हिरण्यं पशवो विवाहा इति श्रुतं रूपमिव रूपं यस्य स्वकुलानुसारि विवाहादिकं तदेव तत्ता ताम्। आत्मकृतं विस्तरं पुत्रसंतत्यादिपौष्कल्यम्। कुलान्वयं सत्कुले जन्म। यथाकृतं कृतमनतिक्रम्य सर्वं प्राक्कर्मवशादेव लभ्यते।।
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