महाभारतम्-12-शांतिपर्व-008
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युधिष्ठिरंप्रत्यर्जुनवचनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-8-1x |
अथार्जुन उवाचेदमधिक्षिप्त इवाक्षमी। अभिनीततरं वाक्यं दृढवादपराक्रमः।। | 12-8-1a 12-8-1b |
दर्शयन्नैन्द्रिरात्मानमुग्रमुग्रपराक्रमः। स्मयमानो महातेजाः सृक्किणी परिसंलिहन्।। | 12-8-2a 12-8-2b |
अर्जुन उवाच। | 12-8-3x |
अहो दुःखमहो कृच्छ्रमहो वैक्लव्यमुत्तमम्। यत्कृत्वाऽमानुषं कर्म त्यजेथाः श्रियमुत्तमाम्।। | 12-8-3a 12-8-3b |
शत्रून्हत्वा महीं लब्ध्वा स्वधर्मेणोपपादिताम्। हतामित्रः कथं स त्वं त्यजेथा बुद्धिलाघवात्।। | 12-8-4a 12-8-4b |
क्लीबस्य हि कुतो राज्यं दीर्घसूत्रस्य वा पुनः। किमर्थं च महीपालानवधीः क्रोधमूर्च्छितः।। | 12-8-5a 12-8-5b |
यो ह्याजिजीविषेद्भैक्षं कर्मणा नैव कस्य चित्। समारम्भान्बुभूषेत हतस्वस्तिरकिञ्चनः। सर्वलोकेषु विख्यातो न पुत्रपशुसंहितः।। | 12-8-6a 12-8-6b 12-8-6c |
कापालीं नृप पापिष्ठां वृत्तिमासाद्य जीवतः। संत्यज्य राज्यमृद्धं ते लोकोऽयं किं वदिष्यति।। | 12-8-7a 12-8-7b |
सर्वारम्भान्समुत्सृज्य हतस्वस्तिरकिञ्चनः। कस्मादाशंससे भैक्षं चर्तुं प्राकृतवत्प्रभो।। | 12-8-8a 12-8-8b |
कस्माद्राजकुले जातो जित्वा कृत्स्नां वसुंधराम्। धर्मार्थावखिलौ हित्वा वनं मौढ्यात्प्रतिष्ठसे।। | 12-8-9a 12-8-9b |
यदीमानि हवींषीह विमथिष्यन्त्यसाधवः। भवता विप्रहीणत्वात्प्राप्तं त्वामेव किल्विषम्।। | 12-8-10a 12-8-10b |
आकिञ्चन्यं मुनीनां च इति वै नहुषोऽब्रवीत्। कृत्वा नृशंसं ह्यधने धिगस्त्वधनतामिह।। | 12-8-11a 12-8-11b |
आश्वस्तन्यमृषीणां हि विद्यते वेद तद्भवान्। यं त्विमं धर्ममित्याहुर्धनादेष प्रवर्तते।। | 12-8-12a 12-8-12b |
धर्मं स हरते तस्य धनं हरति यस्य यः। ह्रियमाणे धने राजन्वयं कस्य क्षमेमहि।। | 12-8-13a 12-8-13b |
अभिशस्तं प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वतः स्थितम्। दारिद्र्यं पातकं लोके कस्तच्छंसितुमर्हति।। | 12-8-14a 12-8-14b |
पतितः शोच्यते राजन्निर्धनश्चापि शोच्यते। विशेषं नाधिगच्छामि पतितस्याधनस्य च।। | 12-8-15a 12-8-15b |
अर्थेभ्यो हि विवृद्धेभ्यः संभृतेभ्यस्ततस्ततः। क्रियाः सर्वाः प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगाः।। | 12-8-16a 12-8-16b |
अर्थाद्धर्मश्च कामश्च स्वर्गश्चैव नराधिप। प्राणयात्राऽपि लोकस्य विना ह्यर्थं न सिध्द्यति।। | 12-8-17a 12-8-17b |
अर्थेन हि विहीनस्य पुरुषस्याल्पमेधसः। विच्छिद्यन्ते क्रियाः सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा।। | 12-8-18a 12-8-18b |
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमाँल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः।। | 12-8-19a 12-8-19b |
अधनेनार्थकामेन नार्थः शक्यो विधित्सितुम्। अर्थैरर्था निबध्यन्ते गजैरिव महागजाः।। | 12-8-20a 12-8-20b |
धर्मः कामश्च स्वर्गश्च हर्षः क्रोधः श्रुतं दमः। अर्थादेतानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप।। | 12-8-21a 12-8-21b |
धनात्कुलं प्रभवति धनाद्धर्मः प्रवर्धते। नाधनस्यास्त्ययं लोको न परः पुरुषोत्तम।। | 12-8-22a 12-8-22b |
नाधनो धर्मकृत्यानि यथावदनुतिष्ठति। धनाद्धि धर्मः स्रवति शैलादभिनदी यथा।। | 12-8-23a 12-8-23b |
यः कृशार्थः कृशगवः कृशभृत्यः कृशांतिथिः। स वै राजन्कृशो नाम न शरीरकृशः कृशः।। | 12-8-24a 12-8-24b |
अवेक्षस्व यथान्यायं पश्य देवासुरं यथा। राजन्किमन्यज्ज्ञातीनां वधाद्गृध्यन्ति देवताः।। | 12-8-25a 12-8-25b |
न चेद्धर्तव्यमन्यस्य कथं तद्धर्ममारभेत्। एतावानेव वेदेषु निश्चयः कविभिः कृतः।। | 12-8-26a 12-8-26b |
अध्येतव्या त्रयी नित्यं भवितव्यं विपश्चिता। सर्वथा धनमाहार्यं यष्टव्यं चापि यत्नतः।। | 12-8-27a 12-8-27b |
द्रोहाद्देवैरवाप्तानि दिवि स्थानानि सर्वशः। द्रोहात्किमन्यज्ज्ञातीनां गृध्यन्ते येन देवताः।। | 12-8-28a 12-8-28b |
इति देवा व्यवसिता वेदवादाश्च शाश्वताः। अधीयन्तेऽध्यापयन्ते यजन्ते याजयन्ति च।। | 12-8-29a 12-8-29b |
कृत्स्नं तदेव तच्छ्रेयो यदप्याददतेऽन्यतः। न पश्यामोऽनपकृतं धनं किंचित्क्वचिद्वयम्।। | 12-8-30a 12-8-30b |
एवमेव हि राजानो यजन्ति पृथिवीमिमाम्। जित्वा ममेयं ब्रुवते पुत्रा इव पितृर्धनम्।। | 12-8-31a 12-8-31b |
राजर्षयोऽपि ते स्वर्ग्या धर्मो ह्येषां निरुच्यते।। | 12-8-32a |
यथैव पूर्णादुदधेः स्यन्दन्त्यापो दिशो दश। एवं राजकुलाद्वित्तं पृथिवीं प्रतितिष्ठति।। | 12-8-33a 12-8-33b |
आसीदियं दिलीपस्य नृगस्य नहुषस्य च। अंबरीपस्य मान्धातुः पृथिवी सा त्वयि स्थिता।। | 12-8-34a 12-8-34b |
स त्वां द्रव्यमयो यज्ञः संप्राप्तः सर्वदक्षिणः। तं चेन्न यजसे राजन्प्राप्तस्त्वं राज्यकिल्बिषम्।। | 12-8-35a 12-8-35b |
येषां राजाऽश्वमेधेन यजते दक्षिणावता। उपेत्य तस्यावभृथे पूताः सर्वे भवन्ति ते।। | 12-8-36a 12-8-36b |
विश्वरूपो महादेवः सर्वमेधे महामखे। जुहाव सर्वभूतानि तथैवात्मानमात्मना।। | 12-8-37a 12-8-37b |
शाश्वतोऽयं भूतिपथो नास्त्यन्तमनुशुश्रुम। महाजनपथं गन्ता मा राजन्कुपथं गमः।। | 12-8-38a 12-8-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8।। |
12-8-1 दृढौ युक्तिशक्त्युपेतौ वादपराक्रमावुक्तिविक्रमौ यस्य स तथा।। 12-8-2 दर्शयन्नैन्द्रमात्मनिमिति ड.थ.द. पाठः।। 12-8-5 क्लीबस्य स्वीयवधे कातरस्य। दीर्घसूत्रस्य परवधे अलसस्य।। 12-8-6 यः पुमान्हतस्वस्तिर्नष्टकल्याणः। अकिञ्चनो दरिद्रः। अतएव कमात्सर्वलोकेषु न विख्यातः। पुत्रपशुसंहितः पुत्रादिभिराश्लिष्टश्च न भवति। स भैक्षं आजिजीविषेदुपजीवितुमिच्छेत्। स कर्मणा पौरुषेण कस्यचिदपि परस्य। समारभ्यन्त इति समारम्भा अर्थास्तान्नैव बुभूषेत नैव प्राप्तुमिच्छेत्। त्वं तु प्राप्तकल्याणः संपन्नः ख्यातः पुत्राद्याश्लिष्टश्च पौरुषेणार्थांल्लब्ध्वा नाजिजीविषेद्भैक्षं कर्मणा येन केनचित्। समारम्भाद्वुभूषेत हतस्वस्तिरकिञ्चनः। इति ट. ड. पाठः। यो ह्याजिजीविषेद्भैक्षं कर्मणा नैव केनचित्। इति थ. पाठः। सर्वलोकेन विख्यातो न पुत्रपशुसंहितः। कापालीं नृप पापिष्ठां वृत्तिमास्थाय जीवतीति ट. ड. थ. द. पाठः।। 12-8-7 कापालीं भिक्षापात्रवतीम्। संत्यज्यराज्यमृद्धिं त्वां लोकोऽयं प्रवदिष्यतीति ट. ड. पाठः।। 12-8-8 सर्वारम्भान्सर्वार्थान्धर्मादीन् प्राकृतवन्मूढवत्।। 12-8-11 आकिञ्चन्यं मुनीनां च राज्यादप्यधिकं मतमिति यद्वाक्यं तदुद्दिश्य नहुषो राजा अधनतामिह धिगस्त्वित्यब्रवीत्। अधने धनाभावे निमित्ते सति पुरुषो नृशंसं कर्म कृत्वा जीवतीति दारिद्र्यं पापहेतुत्वान्निन्दितवानित्यर्थः। आकिञ्चन्यमहीनस्य मृत्यवे इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-8-25 यत्तूक्तं ज्ञातीनां परस्परं युद्धे हतानां हन्तॄणां च श्रेयो नास्तीति तच्छिष्टाचारदर्शनेन दूषयति। अवेक्षस्वेत्यादिना।। 12-8-26 अन्यस्य परस्य धनं चेन्न हर्तव्यं तत्तर्हि राजा कथं धर्ममाचरेत्। तस्य वृत्त्यन्तराभावान्न कथंचिदित्यर्थः।। 12-8-32 निरुच्यते उत्कृष्टत्वेन कीर्त्यते।। 12-8-33 स्यन्दन्ति प्रस्रवन्ति।।
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