महाभारतम्-12-शांतिपर्व-235
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गङ्गापुलिनगतयोः शक्रनारदयोः समीपंप्रति श्रीदेव्या आगमनम्।। 1।। शक्रंप्रति श्रिया स्वस्य देत्येषु निवासविप्रवासयोः कारणीभूततद्गुणदोषाभिधानम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-235-1x |
पूर्वरूपाणि मे राजन्पुरुषस्य भविष्यतः। पराभविष्यतश्चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-235-1a 12-235-1b |
भीष्म उवाच। | 12-235-2x |
मन एव मनुष्यस्य पूर्वरूपाणि शंसति। भविष्यतश्च भद्रं ते तथैव न भविष्यतः।। | 12-235-2a 12-235-2b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। श्रिया शक्रस्य संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 12-235-3a 12-235-3b |
महतस्तपसो व्यष्ट्या पश्यँल्लोकौ परावरौ। सामान्यमृषिभिर्गत्वा ब्रह्मलोकनिवासिभिः।। | 12-235-4a 12-235-4b |
ब्रह्मेवामितदीप्तौजाः शान्तपाप्मा महातपाः। विचचार यथाकालं त्रिषु लोकेषु नारदः।। | 12-235-5a 12-235-5b |
कदाचित्प्रातरुत्थाय पिस्पृक्षुः सलिलं शुचि। ध्रुवद्वारभवां गङ्गां जगामावततार च।। | 12-235-6a 12-235-6b |
`मेरुपादोद्भवां गङ्गां नारायणपदच्युताम्। स वीक्षमाणो हृष्टात्मा तं देशमभिजग्मिवान्।। | 12-235-7a 12-235-7b |
यं--देवजवाकीर्णं सूक्ष्मकाञ्जनवालुकम्। गङ्गाद्वीपं समासाद्य नानावृक्षैरलङ्कृतम्।। | 12-235-8a 12-235-8b |
सालतालाश्वकर्णानां चन्दनानां च राजिभिः। मण्डितं विविधैः पुष्पैर्हंसकारण्डवायुतम्।। | 12-235-9a 12-235-9b |
नदीपुलिनमासाद्य स्नात्वा संतर्प्य देवताः। जजाप जप्यं धर्मात्मा तन्मयत्वेन भास्वता।।' | 12-235-10a 12-235-10b |
सहस्रनयनश्चापि वज्री शम्बरपाकहा। तस्या देवर्षिजुष्टायास्तीरमभ्याजगाम ह।। | 12-235-11a 12-235-11b |
तावाप्लुत्य यतात्मानौ कृतजप्यौ समासतः। नद्याः पुलिनमासाद्य सूक्ष्मकाञ्चनवालुकम्।। | 12-235-12a 12-235-12b |
पुण्यकर्मभिराख्याता देवर्षिकथिताः कथाः। चक्रतुस्तौ तथाऽऽसीनौ महर्षिकथितास्तथा। पूर्ववृत्तव्यतीतानि कथयन्तौ समाहितौ।। | 12-235-13a 12-235-13b 12-235-13c |
अद्य भास्करमुद्यन्तं रश्मिजालपुरस्कृतम्। पूर्णमण्डलमालोक्य तावुत्थायोपतस्थतुः।। | 12-235-14a 12-235-14b |
`विविक्ते पुण्यदेशे तु रममाणौ मुदा युतौ। ददृशातेऽन्तरिक्षे तौ सूर्यस्योदयनं प्रति।। | 12-235-15a 12-235-15b |
ज्योतिर्ज्वालसमाकीर्णं ज्योतिषां गणमण्डितम्। अभितस्तूदयन्तं तमर्कमर्कमिवापरम्।। | 12-235-16a 12-235-16b |
आकाशो ददृशे ज्योतिरुद्यतार्चिः समप्रभम्। `अर्कस्य तेजसा तुल्यं तद्भास्करसमप्रभम्।' तयोः समीपं तं प्राप्तं प्रत्यदृश्यत भारत।। | 12-235-17a 12-235-17b 12-235-17c |
तत्सुपर्णार्करचितमास्थितं वैष्णवं पदम्। भाभिरप्रतिमं भाति त्रैलोक्यमवभासयत्।। | 12-235-18a 12-235-18b |
`दृष्ट्वा तौ तु विक्रान्तौ प्राञ्जली समुपास्थितौ। क्रमात्संप्रेक्ष्यमाणौ तौ विमानं दिव्यमद्भुतम्।। | 12-235-19a 12-235-19b |
तस्मिंस्तदा सतीं कान्तां लोककान्तां परां शुभाम्। धात्रीं लोकस्य रमणीं लोकमातरमच्युताम्।।' | 12-235-20a 12-235-20b |
दिव्याभिरुपशोभाभिरप्सरोभिः पुरस्कृताम्। बृहतीमंशुमत्प्रख्यां बृहद्भानोरिवार्चिषम्।। | 12-235-21a 12-235-21b |
नक्षत्रकल्पाभरणां तारापङ्क्तिसमस्रजम्। श्रियं ददृशतुः पद्मां साक्षात्पद्मदलस्थिताम्।। | 12-235-22a 12-235-22b |
साऽवरुह्य विमानाग्रादङ्गनानामनुत्तमा। अभ्यागच्छन्त्रिलोकेशं शक्रं चर्षि च नारदम्।। | 12-235-23a 12-235-23b |
नारदानुगतः साक्षान्मघवांस्तामुपागमत्। कृताञ्जलिपुटो देवीं निवेद्यात्मानमात्मना।। | 12-235-24a 12-235-24b |
चक्रे चानुपमां पूजां तस्याश्चापि स सर्वंवित्। देवराजः श्रियं राजन्वाक्यं चेदमुवाच ह।। | 12-235-25a 12-235-25b |
का त्वं केन च कार्येण संप्राप्ता चारुहासिनि। कुतश्चागम्यते सुभ्रु गन्तव्यं क्व च ते शुभे।। | 12-235-26a 12-235-26b |
श्रीरुवाच। | 12-235-27x |
पुण्येषु त्रिषु लोकेषु सर्वे स्थावरजङ्गमाः। ममात्मभावमिच्छन्तो यतन्ते परमात्मना।। | 12-235-27a 12-235-27b |
साऽहं वै पङ्कजे जाता सूर्यरश्मिप्रबोधिते। भूत्यर्तं सर्वभूतानां पद्मा श्रीः पद्ममालिनी।। | 12-235-28a 12-235-28b |
अहं लक्ष्मीरहं भूतिः श्रीश्चाहं बलसूदन। अहं श्रद्धा च मेधा च सन्नतिर्विजितिः स्थितिः।। | 12-235-29a 12-235-29b |
अहं धृतिरहं सिद्धिरहं संभूतिरेव च। अहं स्वाहा स्वधा चैव संस्तुतिर्नियतिः कृतिः।। | 12-235-30a 12-235-30b |
राज्ञां विजयमानानां सेनाग्नेषु ध्वजेषु च। निवसे धर्मशीलानां विषयेषु पुरेषु च।। | 12-235-31a 12-235-31b |
जितकाशिनि शूरे च संग्रामेष्वनिवर्तिनि। निवसामि मनुष्येन्द्रे सदैव बलसूदन।। | 12-235-32a 12-235-32b |
धर्मनित्ये महाबुद्धौ ब्रह्मण्ये सत्यवादिनि। प्रश्रिते दानशीले च सदैव निवसाम्यहम्।। | 12-235-33a 12-235-33b |
असुरेष्ववसं पूर्वं सत्यधर्मनिबन्धनात्। विपरीतांस्तु तान्बुद्ध्वा त्वयि वासमरोचयम्।। | 12-235-34a 12-235-34b |
शक्र उवाच। | 12-235-35x |
कथं वृत्तेषु दैत्येषु त्वमवात्सीर्वरानाने। दृष्ट्वा च किमिहागास्त्वं हित्वा दैतेयदानवान्।। | 12-235-35a 12-235-35b |
श्रीरुवाच। | 12-235-36x |
स्वधर्ममनुतिष्ठत्सु धैर्यादचलितेषु च। स्वर्गमार्गाभिरामेषु सत्वेषु निरता ह्यहम्।। | 12-235-36a 12-235-36b |
दानाध्ययनयज्ञेज्यापितृदैवतपूजनम्। गुरूणामतिथीनां च तेषां नित्यमवर्तत।। | 12-235-37a 12-235-37b |
सुसंमृष्टगुहाश्चासञ्जितस्त्रीका हुताग्नयः। गुरुशुश्रूषका दान्ता ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।। | 12-235-38a 12-235-38b |
श्रद्दधाना जितक्रोधा दानशीलाऽनसूयवः। भृतपुत्रा भृतामात्या भृतदारा ह्यनीर्षवः।। | 12-235-39a 12-235-39b |
अमर्षेण न चान्योन्यं स्पृहयन्ते कदाचन। न च जातूपतप्यन्ति धीराः परसमृद्धिभिः।। | 12-235-40a 12-235-40b |
दातारः संग्रहीतार आर्याः करुणवेदिनः। महाप्रसादा ऋजवो दृढभक्ता जितेन्द्रियाः।। | 12-235-41a 12-235-41b |
संतुष्टभृत्यसचिवाः कृतज्ञाः प्रियवादिनः। यथार्हमानार्थकरा ह्रीनिषेवा यतव्रताः।। | 12-235-42a 12-235-42b |
नित्यं पर्वसु सुस्नाताः स्वनुलिप्ताः स्वलङ्कृताः। उपवासतपः शीलाः प्रतीता ब्रह्मवादिनः।। | 12-235-43a 12-235-43b |
नैनानभ्युदियात्सूर्यो नैवास्वप्स्यन्प्रगेशयाः। रात्रौ दधि च सक्तूंश्च नित्यमेव व्यवर्जयन्।। | 12-235-44a 12-235-44b |
काल्यं घृतं तु चान्वीक्ष्य प्रयता ब्रह्मवादिनः। पङ्गल्यान्यपि चापश्यन्ब्रह्माणांश्चाप्यपूजयन्।। | 12-235-45a 12-235-45b |
सदा हि ददतां धर्म्यं सदाचाप्रतिगृह्णताम्। अर्धं च रात्र्याः स्वपतां दिवा चास्वपतां तथा।। | 12-235-46a 12-235-46b |
कृपणानाथवृद्धानां दुर्बलातुरयोषिताम्। दयां च संविभागं च नित्यमेवान्वमोदताम्। कालो यातः सुखेनैव धर्ममार्गे निवर्तताम्।। | 12-235-47a 12-235-47b 12-235-47c |
त्रस्तं विषण्णमुद्विग्नं भयार्तं व्याधिपीडितम्। हृतस्वं व्यसनार्तं च नित्यमाश्वासयन्ति ते।। | 12-235-48a 12-235-48b |
धर्ममेवानुवर्तन्ते न हिंसन्ति परस्परम्। अनुकूलाश्च कार्येषु गुरुवृद्धोपसेविनः।। | 12-235-49a 12-235-49b |
पितॄन्देवातिथींश्चैव गुरूंश्चैवाभ्यपूजयन्। अवशेषाणि चाश्नन्ति नित्यं सत्यतपोधृताः।। | 12-235-50a 12-235-50b |
नैकेऽश्नन्ति सुसंपन्नं न गच्छन्ति परस्त्रियम्। सर्वभूतेष्ववर्तन्त यथाऽऽत्मनि दयां प्रति।। | 12-235-51a 12-235-51b |
नैवाकाशे न पशुषु नायोनौ च न पर्वसु। इन्द्रियस्य विसर्गं ते रोचयन्ति कदाचन।। | 12-235-52a 12-235-52b |
नित्यं दानं तथा दाक्ष्यमार्जवं चैव नित्यदा। उत्साहोऽथानहकारः परमं सौहृदं क्षमा।। | 12-235-53a 12-235-53b |
सत्यं दानं तपः शौचं कारुण्यं वागनिष्ठुरा। मित्रेषु चानभिद्रोहः सर्वं तेष्वभवत्प्रभो।। | 12-235-54a 12-235-54b |
निद्रा तन्द्रीरसंप्रीतिरसूयाऽथानवेक्षिता। अरतिश्च विषादश्च स्पृहा चाप्यविशन्न तान्।। | 12-235-55a 12-235-55b |
साऽहमेवंगुणेष्वेव दानवेष्ववसं पुरा। प्रजासर्गमुपादाय यावद्गुणविपर्ययम्।। | 12-235-56a 12-235-56b |
ततः कालविपर्यासे तेषां गुणविपर्ययात्। अपश्यं निर्गतं धर्मं कामक्रोधवशात्मनाम्।। | 12-235-57a 12-235-57b |
सभासदां च वृद्धानां सतां कथयतां कथाः। प्राहसन्नभ्यसूयंश्च सर्वबुद्धान्गुरून्परान्।। | 12-235-58a 12-235-58b |
युवानश्च समासीना वृद्धानपि गतान्सतः। नाभ्युत्थानाभिवादाभ्यां यथापूर्वमपूजयन्।। | 12-235-59a 12-235-59b |
वर्तयत्येव पितरि पुत्रः प्रभवते तथा। अमित्रभृत्यतां प्राप्य ख्यापयन्त्यनपत्रपाः।। | 12-235-60a 12-235-60b |
तथा धर्मादपेतेन कर्मणा गर्हितेन ये। महतः प्राप्नुवन्त्यर्थांस्तेषां तत्राभवत्स्पृहा।। | 12-235-61a 12-235-61b |
उच्चैश्चाभ्यवदन्रात्रौ नीचैस्तत्राग्निरज्वलत्। पुत्राः पितृनत्यचरन्नार्यश्चात्यचरन्पतीन्।। | 12-235-62a 12-235-62b |
मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम्। गुरुत्वान्नाभ्यनन्दन्त कुमारान्नान्वपालयन्।। | 12-235-63a 12-235-63b |
भिक्षां बलिमदत्त्वा च स्वयमन्नानि भुञ्जते। अनिष्ट्वाऽसंविभज्याथ पितृदेवातिथीन्गुरून्।। | 12-235-64a 12-235-64b |
न शौचमन्वरुद्ध्यन्त तेषां सूदजनास्तथा। मनसा कर्मणा वाचा भक्ष्यमासीदनावृतम्।। | 12-235-65a 12-235-65b |
`बालानां प्रेक्षमाणानां भक्तान्यश्नन्ति मोहिताः। एको दासो भवेत्तेषां तेषां दासीद्वयं तथा।। | 12-235-66a 12-235-66b |
त्रिगवा दानवाः केचिच्चतुरोजास्तथा परे। षडश्वाः सप्तमातङ्गाः पञ्चमाहिषिकाः परे।। | 12-235-67a 12-235-67b |
रात्रौ दधि च सक्तूंश्च नित्यमेवाविवर्जिताः। अन्तर्दशाहे चाश्नन्ति गवां क्षिरं विचेतनाः।। | 12-235-68a 12-235-68b |
क्रमदोहं न कुर्वन्ति वत्सस्तन्यानि भुञ्जते। अनाथां कृपणां भार्यां घ्नन्ति नित्यं शपन्ति च।। | 12-235-69a 12-235-69b |
शूद्रान्नपुष्टा विप्रास्तु निर्लज्जाश्च भवन्त्युत। संकीर्णानि च धान्यानि नात्यवेक्षत्कुटुंबिनी।। | 12-235-70a 12-235-70b |
मार्जारकुक्कुटश्वानैः क्रीडां कुर्वन्ति मानवाः। गृहे कण्टकिनो वृक्षास्तथा निष्पाववल्लरी।। | 12-235-71a 12-235-71b |
यज्ञियाश्च तथा वृक्षास्तेषामासन्दुरात्मनाम्। कूपस्नानरता नित्यं पर्वमैथुनगामिनः।। | 12-235-72a 12-235-72b |
तिलानश्नन्ति रात्रौ च तैलाभ्यक्ताश्च शेरते। विभीतककरञ्जानां छायामूलनिवासिनः।। | 12-235-73a 12-235-73b |
करवीरं च ते पुष्पं धारयन्ति च मोहिताः। पद्मबिजानि खादन्ति पुष्पं जिघ्रन्ति मोहिताः।। | 12-235-74a 12-235-74b |
न भोक्ष्यन्ति तथा नित्यं दैत्याः कालेन मोहिताः। निन्दन्ति स्तवनं विष्णोस्तस्य नित्यद्विषो जनाः।। | 12-235-75a 12-235-75b |
होमधूमो न तत्रासीद्वेदघोषस्तथैव च। यज्ञाश्च न प्रवर्तन्ते यथापूर्वं गृहेगृहे।। | 12-235-76a 12-235-76b |
शिष्याचार्यक्रमो नासीत्पुत्रैरात्मपितुः पिता। विष्णुं ब्रह्मण्यदेवेशं हित्वा पाषण्डमाश्रिताः।। | 12-235-77a 12-235-77b |
हव्यकव्यविहीनाश्च ज्ञानाध्ययनवर्जिताः। देवस्वादानरुचयो ब्रह्मस्वरुचयस्तथा। स्तुतिमङ्गलहीनानि देवस्थानानि सर्वशः।।' | 12-235-78a 12-235-78b 12-235-78c |
विप्रकीर्णानि धान्यानि काकमूषिकभोजनम्। अपावृतं पयोतिष्ठदुच्छिष्टाश्चास्पृशन्धृतम्।। | 12-235-79a 12-235-79b |
कुद्दालं दात्रपिटकं प्रकीर्णं कांस्यभोजनम्। द्रव्योपकरणं सर्वं नान्ववैक्षत्कुटुम्बिनी।। | 12-235-80a 12-235-80b |
प्राकारागारविध्वंसान्न स्म ते प्रतिकुर्वते। `क्षुद्राः संस्कारहीनाश्च नार्यो ह्युदरपोषणाः।। | 12-235-81a 12-235-81b |
शौचाचारपरिभ्रष्टा निर्लज्जा भोगवञ्चिताः। उभाभ्यामेव पाणिभ्यां शिरः कण्डूयनान्विताः। गृहजालाभिसंस्थाना ह्यासंस्तत्र स्त्रियः पुनः।। | 12-235-82a 12-235-82b 12-235-82c |
श्वश्रूश्वशुरयोर्मध्ये भर्तारं कृतकं यथा। प्रेक्षयन्ति च निर्लज्जा नार्यः कुलजलक्षणाः।।' | 12-235-83a 12-235-83b |
नाद्रियन्ते पशून्बद्ध्वा यवसेनोदकेन च। बालानां प्रेक्षमाणानां स्वयं भक्ष्यमभक्षयन्। तथा भृत्यजनं सर्वमसंतर्प्य च दानवाः।। | 12-235-84a 12-235-84b 12-235-84c |
पायसं कृसरं मांसमपूपानथ शष्कुलीः। अपाचयन्नात्मनोऽर्थे वृथा मांसान्यभक्षयन्।। | 12-235-85a 12-235-85b |
उत्सूर्यशायिनश्चासन्सर्वे चासन्प्रगेशयाः। आवृत्तकलहाश्चात्र दिवारात्रं गृहेगृहे।। | 12-235-86a 12-235-86b |
अनार्याश्चार्यमासीनं पर्युपासन्न तत्र ह। आश्रमस्थान्विकर्मस्थाः प्राद्विषन्त परस्परम्।। | 12-235-87a 12-235-87b |
संकराश्चाभ्यवर्तन्त न च शौचमवर्तत। ये च वेदविदो विप्रा विस्पष्टमनुचश्च ये। निरन्तरविशेषास्ते बहुमानावमानयोः।। | 12-235-88a 12-235-88b 12-235-88c |
भावमाभरणं वेषं गतं स्थितमवेक्षितम्। असेवन्त भुजिष्या वै दुर्जनाचरितं विधिम्।। | 12-235-89a 12-235-89b |
स्त्रियः पुरुषवेषेण पुंसः स्त्रीवेषधारिणः। क्रीडारतिविहारेषु परां मुदमवाप्नुवन्।। | 12-235-90a 12-235-90b |
प्रभवद्भिः पुरा दायानर्हेभ्यः प्रतिपादितान्। नाभ्यवर्न्तत नास्तिक्याद्वर्तन्तः संभवेष्वपि।। | 12-235-91a 12-235-91b |
मित्रेणाभ्यर्थितं द्रव्यमर्थी संश्रयते क्वचित्। वालकोट्यग्रमात्रेण स्वार्थेनाघ्नत तद्वसु।। | 12-235-92a 12-235-92b |
परस्वादानरुचयो विपणव्यवहारिणः। अदृश्यन्तार्यवर्णषु शृद्राश्चापि तपोधनाः।। | 12-235-93a 12-235-93b |
अधीयतेऽव्रताः केचिद्वृथा व्रतमथापरे। अशुश्रूषुर्गुरोः शिष्यः कश्चिच्छिप्यसखो गुरुः।। | 12-235-94a 12-235-94b |
पिता चैव जनित्री च श्रान्तौ वृत्तोत्सवाविव। अप्रभुत्वे स्थितौ वृद्धावन्नं प्रार्थयतः सुतान्।। | 12-235-95a 12-235-95b |
तत्र वेदविदः प्राज्ञा गाम्भीर्ये सागरोपमाः। कृष्यादिष्वभवन्सक्ता मूर्खाः श्राद्धान्यभुञ्जत।। | 12-235-96a 12-235-96b |
प्रातः सायं च सुप्रश्नं कल्पनं प्रेषणक्रियाः। शिष्यानप्रहितास्तेषामकुर्वन्गुरवश्च ह।। | 12-235-97a 12-235-97b |
श्वश्रूश्वशुरयोरग्रे वधूः प्रेष्यानशासत। अन्वशासच्च भर्तारं समाह्वायाभिजल्पति।। | 12-235-98a 12-235-98b |
प्रयत्नेनापि चारक्षच्चित्तं पुत्रस्य वै पिता। व्यभजच्चापि संरम्भाद्दुःखवासं तथाऽवसत्।। | 12-235-99a 12-235-99b |
अग्निदाहेन चोरैर्वा राजभिर्वा हृतं धनम्। दृष्ट्वा द्वेषात्प्राहसन्त सुहृत्संभाविता ह्यपि।। | 12-235-100a 12-235-100b |
कृतघ्ना नास्तिकाः पापा गुरुदाराभिमर्शिनः। `श्वशुरानुगताः सर्वे ह्युत्सृज्य पितरौ सुताः।। | 12-235-101a 12-235-101b |
स्वकर्मणा च जातोऽहमित्येवंवादिनस्तथा।' अभक्ष्यभक्षणरता निर्मर्यादा हतत्विषः।। | 12-235-102a 12-235-102b |
तेष्वेवमादीनाचारानाचरत्सु विपर्यये। नाहं देवेन्द्र वत्स्यामि दानवेष्विति मे मतिः।। | 12-235-103a 12-235-103b |
तन्मां स्वयमनुप्राप्ताभिनन्द शचीपते। त्वयाऽर्चितां मां देवेश पुरो धास्यन्ति देवताः।। | 12-235-104a 12-235-104b |
यत्राहं तत्र मत्कान्ता मद्विशिष्टा मदर्पणाः। सप्तदेव्यो जयाष्टभ्यो वासमेष्यन्ति तेऽष्टधा।। | 12-235-105a 12-235-105b |
आशा श्रद्धा धृतिः क्षान्तिर्विजितिः सन्नतिः क्षमा। अष्टमी वृत्तिरेतासां पुरोगा पाकशासन।। | 12-235-106a 12-235-106b |
ताश्चाहं चासुरांस्त्यक्त्वा युष्मद्विषयमागताः। त्रिदशेषु निवत्स्यामो धर्मनिष्ठान्तरात्मसु।। | 12-235-107a 12-235-107b |
इत्युक्तवचनां देवीं प्रीत्यर्थं च ननन्दतुः। नारदश्चात्र देवर्षिर्वृत्रहन्ता च वासवः।। | 12-235-108a 12-235-108b |
ततोऽनलसखो वायुः प्रववौ देववर्त्मसु। इष्टगन्धः सुखस्पर्शः सर्वेन्द्रियसुखावहः।। | 12-235-109a 12-235-109b |
शुचौ चाभ्यर्थिते देशे त्रिदशाः प्रायशः स्थिताः। लक्ष्मीसहितमासीनं मघवन्तं दिदृक्षवः।। | 12-235-110a 12-235-110b |
ततो दिवं प्राप्य सहस्रलोचनः। स्त्रियोपपन्नः सुहृदा महर्षिणा। रथेन हर्यश्वयुजा सुरर्षभः सदः सुराणामभिसत्कृतो ययौ।। | 12-235-111a 12-235-111b 12-235-111c 12-235-111d |
अथेङ्गितं वज्रधरस्य नारदः श्रियश्च देव्या मनसा विचारयन्। श्रियै शशंसामरदृष्टपौरुषः शिवेन तत्रागमनं महर्षिभिः।। | 12-235-112a 12-235-112b 12-235-112c 12-235-112d |
ततोऽमृतं द्यौः प्रववर्ष भास्वती पितामहस्यायतने स्वयंभुवः। अनाहता दुन्दुभयोऽथ नेदिरे तथा प्रसन्नाश्च दिशश्चकाशिरे।। | 12-235-113a 12-235-113b 12-235-113c 12-235-113d |
यथर्तु सस्येषु ववर्ष वासवो न धर्ममार्गाद्विचचाल कश्चन। अनेकरत्नाकरभूषणा च भूः सुघोषघोषाश्च दिवौकसां जये।। | 12-235-114a 12-235-114b 12-235-114c 12-235-114d |
क्रियाभिरामा मनुजा मनस्विनो बभुः शुभे पुण्यकृतां पथि स्थिताः। नरामराः किन्नरयक्षराक्षसाः समृद्धिमन्तः सुमनस्विनोऽभवन्।। | 12-235-115a 12-235-115b 12-235-115c 12-235-115d |
न जात्वकाले कुसुमं कुतः फलं पपात वृक्षात्पवनेरितादपि। रसप्रदाः कामदुघाश्च धेनवो न दारुणा वाग्विचचार कस्यचित्।। | 12-235-116a 12-235-116b 12-235-116c 12-235-116d |
इमां सपर्यां सह सर्वकामदैः श्रियाश्च शक्रप्रमुखैश्च दैवतैः। पठन्ति ये विप्रसदः समागताः समृद्धकामाः श्रियमाप्नुवन्ति ते।। | 12-235-117a 12-235-117b 12-235-117c 12-235-117d |
त्वया कुरूणां वर यत्प्रचोदितं भवाभवस्येह परं निदर्शनम्। तदद्य सर्वं परिकीर्तितं मया परीक्ष्य तत्त्वं परिगन्तुमर्हसि।। | 12-235-118a 12-235-118b 12-235-118c 12-235-118d |
`संस्मृत्य बुद्धीन्द्रियगोचरातिगं स्वगोचरे सर्वकृतालयं तम्। हरिं महापाग्रहरं जनास्ते संस्मृत्य संपूज्य विधूतपापाः।। | 12-235-119a 12-235-119b 12-235-119c 12-235-119d |
यमैश्च नित्यं नियमैश्च संयता स्तत्वं च विष्णोः परिपश्यमानाः। देवानुसारेण विमुक्तियोगं ते गाहमानाः परमाप्नुवन्ति।। | 12-235-120a 12-235-120b 12-235-120c 12-235-120d |
एवं राजेन्द्र सततं जपहोमपरायणः। वासुदेवपरो नित्यं ज्ञानध्यानपरायणः।। | 12-235-121a 12-235-121b |
दानधर्मरतिर्नित्यं प्रजास्त्वं परिपालय। वासुदेवपरो नित्यं ज्ञानध्यानपरायणान्। विशेषेणार्चयेथास्त्वं सततं पर्युपास्व च।।' | 12-235-122a 12-235-122b 12-235-122c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि प़ञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 235।। |
12-235-6 भवमौलिभवां गङ्गां इति ध. पाठः।। 12-235-26 विजितिः स्मृतिः ट.ड. पाठः।। 12-235-29 इति ट. ड. ध. पाठः।। 12-235-44 धैर्यादुद्धारितारिषु इति नचाप्यासन्प्रगेशयाः इति ध. पाठः।। 12-235-45 कार्यं कृतं चान्ववेक्ष्य इति ट. पाठः।। 12-235-60 मृत्या भर्त्रन्तरं प्राप्य इति ट. पाठः।। 12-235-80 प्रकीर्णं कांस्यभाजनमिति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-234 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-236 |