महाभारतम्-12-शांतिपर्व-286
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वृत्राय सनत्कुमारोक्तविष्णुमाहात्म्यानुवादः।। 1।।
उशनोवाच। | 12-286-1x |
नमस्तस्मै भगवते देवाय प्रभविष्णवे। यस्य पृथ्वी तलं तात साकाशं बाहुगोचरः।। | 12-286-1a 12-286-1b |
मूर्धा यस्य त्वनन्तं च स्थानं दानवसत्तम। तस्याहं ते प्रवक्ष्यामि विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम्।। | 12-286-2a 12-286-2b |
भीष्म उवाच। | 12-286-3x |
तयोः संवदतोरेवमाजगाम महामुनिः। सनत्कुमारो धमार्त्मा संशयच्छेदनाय वै।। | 12-286-3a 12-286-3b |
स पूजितोऽसुरेन्द्रेण मुनिनोशनसा तथा। निषसादासने राजन्महार्हे मुनिपुङ्गवः।। | 12-286-4a 12-286-4b |
तमासीनं महाप्रज्ञमुशना वाक्यमब्रवीत्। ब्रूह्यस्मै दानवेन्दाय विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम्।। | 12-286-5a 12-286-5b |
सनत्कुमारस्तु वचः श्रुत्वा प्राह वचोऽर्थवत्। विष्णोर्माहात्म्यसंयुक्तं दानवेन्द्राय धीमते।। | 12-286-6a 12-286-6b |
शृणु सर्वमिदं दैत्य विष्णोर्माहात्म्यमुत्तमम्। विष्णौ जगत्स्थितं सर्वमिति विद्धि परंतप।। | 12-286-7a 12-286-7b |
अस्मिन्गच्छन्ति विलयमस्माच्च प्रभवन्त्युत। अवत्येष महाबाहुर्भूतग्रामं चराचरम्। एष चाक्षिपते काले काले च सृजते पुनः।। | 12-286-8a 12-286-8b 12-286-8c |
नैष दानव ते शक्यस्तपसा नैव चेज्यया। संप्राप्तुमिन्द्रियाणां तु संयमेनैव शक्यते।। | 12-286-9a 12-286-9b |
बाह्ये चाभ्यन्तरे चैव कर्मणा मनसि स्थितः। निर्मलीकुरुते बुद्ध्या सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते।। | 12-286-10a 12-286-10b |
यथा हिरण्यकर्ता वै रूप्यमग्नौ विशोधयेत्। बहुशोऽतिप्रयत्नेन महताऽऽत्मकृतेन ह।। | 12-286-11a 12-286-11b |
तद्वज्जातिशतैर्जीवः शुद्ध्यतेऽल्पेन कर्मणा। यत्नेन महता चैयवाप्येकजातौ विशुद्ध्यते।। | 12-286-12a 12-286-12b |
लीलयाऽल्पं यथा गात्रात्प्रमृज्यादात्मनो रजः। बहुयत्नेन महता दोषनिर्हरणं तथा।। | 12-286-13a 12-286-13b |
यथा चाल्पेन माल्येन वासितं तिलसर्षपम्। न मुञ्चति स्वकं गन्धं तथा सूक्ष्मस्य दर्शनम्।। | 12-286-14a 12-286-14b |
तदेव बहुभिर्माल्यैर्वास्यमानं पुनः पुनः। विमुच्य तं स्वकं गन्धं माल्यगन्धेऽवतिष्ठते।। | 12-286-15a 12-286-15b |
एवं जातिशतैर्युक्तो गुणैरेव प्रसङ्गिषु। बुद्ध्या निवर्तते दोषो यत्नेनाभ्यासजेन ह।। | 12-286-16a 12-286-16b |
कर्मणा स्वेन रक्तानि विरक्तानि च दानव। यथा कर्मविशेषांश्च प्राप्नुवन्ति तथा शृणु।। | 12-286-17a 12-286-17b |
यथावत्संप्रवर्तन्ते यस्मिंस्तिष्ठति चानिशम्। तत्तेऽनुपूर्व्या व्याख्यास्ये तदिहैकमनाः शृणु।। | 12-286-18a 12-286-18b |
अनादिनिधनः श्रीमान्हरिर्नारायणः प्रभुः। देवः सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च।। | 12-286-19a 12-286-19b |
एष सर्वेषु भूतेषु क्षरश्चाक्षर एव च। एकादश विकारात्मा जगत्पिबति रश्मिभिः।। | 12-286-20a 12-286-20b |
पादौ तस्य महीं विद्धि मूर्धानं दिवमेव च। बाहवस्तु दिशो दैत्य श्रोत्रमाकाशमेव च।। | 12-286-21a 12-286-21b |
तस्य तेजोमयः सूर्यो मनश्चन्द्रमसि स्थितम्। बुद्धिर्ज्ञानगता नित्यं रसस्त्वप्सु प्रवर्तते।। | 12-286-22a 12-286-22b |
भ्रुवोरनन्तरास्तस्य ग्रहा दानवसत्तम। नक्षत्रचक्रं नेत्रं च आस्यमग्निं च दानव। तं विश्वभूतं विश्वादिं परमं विद्धि चेश्वरम्।। | 12-286-23a 12-286-23b 12-286-23c |
रजस्तमश्च सत्वं च विद्धि नारायणात्मकम्। सोश्रमाणां मुखं तात कर्मणस्तत्फलं विदुः।। | 12-286-24a 12-286-24b |
अकर्मणः फलं चैव स एव परमोऽव्ययः। छन्दांसि यस्य रोमाणि ह्यक्षरं च सरस्वती।। | 12-286-25a 12-286-25b |
बह्वाश्रयो बहुमुखो धर्मो हृदि समाश्रितः। स ब्रह्मपरमो धर्मस्तपश्च सदसच्च सः।। | 12-286-26a 12-286-26b |
श्रोत्रशास्त्रग्रहोपेतः षोड्शर्त्विक्क्रतुश्च सः। पितामहश्च रुद्रश्च सोऽश्विनौ स पुरंदरः।। | 12-286-27a 12-286-27b |
मित्रोऽथ वरुणश्चैव यमोऽथ धनदस्तथा। ते पृथग्दर्शनास्तस्य संविदन्ति तथैकताम्। एकस्य विद्धि देवस्य सर्वं जगदिदं वशे।। | 12-286-28a 12-286-28b 12-286-28c |
नानाभूतस्य दैत्येन्द्र तस्यैकत्वं वदन्त्यपि। जन्तुः पश्यति विज्ञानात्ततः सत्वं प्रकाशते।। | 12-286-29a 12-286-29b |
संहारविक्षेपसहस्रकोटी स्तिष्ठन्ति जीवाः प्रचरन्ति चान्ये। प्रजाविसर्गस्य च पारिमाण्यं वापीसहस्राणि बहूनि दैत्य।। | 12-286-30a 12-286-30b 12-286-30c 12-286-30d |
वाप्यः पुनर्योजनविस्तृतास्ताः क्रोशं च गम्भीरतयाऽवगाढाः। आयामतः पञ्चशताश्च सर्वाः प्रत्येकशो योजनतः प्रवृद्धाः।। | 12-286-31a 12-286-31b 12-286-31c 12-286-31d |
वाप्या जलं क्षिप्यति वालकोट्या त्वह्ना सकृच्चाप्यथ न द्वितीयम्। तासां क्षये विद्धि परं विसर्गं संहारमेकं च तथा प्रजानाम्।। | 12-286-32a 12-286-32b 12-286-32c 12-286-32d |
षड्जीववर्णाः परमं प्रमाणं कृष्णो धूम्रो नीलमथास्य मध्यम्। रक्तं पुनः सह्यतरं सुखं तु हारिद्रवर्णं सुसुखं च शुक्लम्।। | 12-286-33a 12-286-33b 12-286-33c 12-286-33d |
परं तु शुक्लं विमलं विशोकं गतक्लमं सिद्ध्यति दानवेन्द्र। गत्वा तु योनिप्रभवाणि दैत्य सहस्रशः सिद्धिमुपैति जीवः।। | 12-286-34a 12-286-34b 12-286-34c 12-286-34d |
गतिं च यां दर्शनमाह देवो गत्वा शुभं दर्शनमेव चापि। गतिः पुनर्वर्णकृता प्रजानां वर्णस्तथा कालकृतोऽसुरेन्द्र।। | 12-286-35a 12-286-35b 12-286-35c 12-286-35d |
शतं सहस्राणि चतुर्दशेह परा गतिर्जीवगणस्य दैत्य। आरोहणं तत्कृतमेव विद्धि स्थानं तथा निःसरणं च तेषाम्।। | 12-286-36a 12-286-36b 12-286-36c 12-286-36d |
`योऽस्मादथ भ्रश्यति कालयोगा त्कृष्णे वर्णे तिष्ठति सर्वकृष्टे। अतिप्रसक्तो निरयाच्च दैत्य ततस्ततः संपरिवर्तते च।।' | 12-286-37a 12-286-37b 12-286-37c 12-286-37d |
कृष्णस्य वर्णस्य गतिर्निकुष्टा स मज्जते नरके पच्यमानः। स्थानं तथा दुर्गतिभिस्तु तस्य प्रजाविसर्गान्सुबहून्वदन्ति।। | 12-286-38a 12-286-38b 12-286-38c 12-286-38d |
शतं सहस्राणि ततश्चरित्वा प्राप्नोति वर्णं हरितं तु पश्चात्। स चैव तस्मिन्निवसत्यनिशो युगक्षयं तमसा संवृतात्मा।। | 12-286-39a 12-286-39b 12-286-39c 12-286-39d |
स वै यदा सत्वगुणेन युक्त स्तमो व्यपोहन्घटते स्वबुद्ध्या। स लोहितं वर्णमुपैति नीला न्मनुष्यलोके परिवर्तते च।। | 12-286-40a 12-286-40b 12-286-40c 12-286-40d |
स तत्र संहारविसर्गमेकं स्वकर्मजैर्बन्धनैः क्लिश्यमानः। ततः स हारिद्रमुपैति वर्णं संहारविक्षेपशते व्यतीते।। | 12-286-41a 12-286-41b 12-286-41c 12-286-41d |
हारिद्रवर्णस्तु प्रजाविसर्गा त्सहस्रशस्तिष्ठति संचरन्वै। अविप्रमुक्तो निरये च दैत्य ततः सहस्राणि दशापराणि।। | 12-286-42a 12-286-42b 12-286-42c 12-286-42d |
गतीः सहस्राणि च पञ्च तस्य चत्वारि संवर्तकृतानि चैव। विमुक्तमेनं निरयाच्च विद्धि सर्वेषु चान्येषु च संभवेषु।। | 12-286-43a 12-286-43b 12-286-43c 12-286-43d |
स देवलोके विहरत्यभीक्ष्णं ततश्च्युतो मानुषतामुपैति संहारविक्षेपशतानि चाष्टौ मर्त्येषु तिष्ठन्नमृतत्वमेवि।। | 12-286-44a 12-286-44b 12-286-44c 12-286-44d |
सोऽस्मादय भ्रश्यति कालयोगा त्कृष्णे तले तिष्ठति सर्वकृष्टे। यथा त्वयं सिध्यति जीवलोक स्तत्तेऽभिधास्याम्यसुरप्रवीर।। | 12-286-45a 12-286-45b 12-286-45c 12-286-45d |
दैवानि स व्यूहशतानि सप्त रक्तो हरिद्रोऽथ तथैव शुक्लः। संश्रित्य संधावति शुक्लमेत मष्टावरानर्च्यतमान्स लोकान्। | 12-286-46a 12-286-46b 12-286-46c 12-286-46d |
अष्टौ च षष्टिं च शतानि चैव मनोविरुद्धानि महाद्युतीनाम्। शुक्लस्य वर्णस्य परा गतिर्या त्रीण्येव रुद्धानि महानुभाव।। | 12-286-47a 12-286-47b 12-286-47c 12-286-47d |
संहाराविक्षेपमनिष्टमेकं चत्वारि चान्यानि वसत्यनीशः। षष्ठस्य वर्णस्य परा गतिर्या सिद्धावसिद्धस्य गतक्लमस्यर।। | 12-286-48a 12-286-48b 12-286-48c 12-286-48d |
ततो महान्मानुषतामुपैति।। | 12-286-49f |
तस्मादुपावृत्य ततः क्रमेण सोग्रेण संतिष्ठति भूतसर्गम्। स सप्तकृत्वश्च परैति लोका न्संहारविक्षेपकृतप्रवासः।। | 12-286-50a 12-286-50b 12-286-50c 12-286-50d |
देवस्य विष्णोः परमस्य चैव।। | 12-286-51f |
संहारकाले परदिग्धकाया ब्रह्माणमायान्ति सदा प्रजाहि। चेष्टात्मनो देवगणाश्च सर्वे ये ब्रह्मलोके ह्यमराः स्म तेऽपि।। | 12-286-52a 12-286-52b 12-286-52c 12-286-52d |
प्रजानिसर्गे तु स शेषकाले स्थानानि स्वान्येव सरन्ति जीवाः। निःशेषतस्तत्पदं वान्ति चान्ते सर्वे देवा ये सदृशा मनुष्याः।। | 12-286-53a 12-286-53b 12-286-53c 12-286-53d |
ये तु च्युताः सिद्धलोकात्क्रमेण तेषां गतिं यान्ति यथाऽऽनुपूर्व्या। जीवाः परे तद्बलवेषरूपाः स्वकं विधिं यान्ति विषर्ययेण।। | 12-286-54a 12-286-54b 12-286-54c 12-286-54d |
स यावदेवास्ति सशेषभुक्तिः प्रजाश्च देव्यौ च तथैव शुक्ले। तावत्तदङ्गेषु विशुद्धभावः संयम्य पञ्चेन्द्रियरूपमेतत्।। | 12-286-55a 12-286-55b 12-286-55c 12-286-55d |
नारायणस्येह बलं मया ते।। | 12-286-56f |
वृत्र उवाच। | 12-286-57x |
एवं गते मे न विषादोस्ति कश्चि त्सम्यक्च पश्यामि वचस्तथैतत्। श्रुत्वा तु ते वाचमदीनसत्व विकल्मषोस्म्यद्य तथा विपाष्मा।। | 12-286-57a 12-286-57b 12-286-57c 12-286-57d |
तस्मिज्जगत्सर्वमिदं प्रतिष्ठितम्।। | 12-286-58f |
भीष्म उवाच। | 12-286-59x |
एवमुक्त्वा स कौन्तेय वृत्रः प्राणानवासृजत्। योजयित्वा तथाऽऽत्मानं परं स्थानमवाप्तवान्।। | 12-286-59a 12-286-59b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-286-60x |
अयं स भगवान्देवः पितामह जनार्दनः। सनत्कुमारो वृत्राय यत्तदाख्यातवान्पुरा।। | 12-286-60a 12-286-60b |
भीष्म उवाच। | 12-286-61x |
मूलस्थायी स भगवान्स्वेनानन्तेन तेजसा। तत्स्थः सृजति तान्भावानात्मरूपान्महामनाः।। | 12-286-61a 12-286-61b |
तुरीयांशेन तस्येमं विद्धि केशवमच्युतम्। `तुरीयांशेन ब्रह्माणं तस्य विद्धि महात्मनः।' तुरीयार्धेन लोकांस्त्रीन्भावयत्येव बुद्धिमान्।। | 12-286-62a 12-286-62b 12-286-62c |
अर्वाक्स्थितस्तु यः स्थायी कल्पान्ते परिवर्तते। स शेते भगवानप्सु योऽसावतिबलः प्रभुः। तान्विघाता प्रसन्नात्मा लोकांश्चरति शाश्वतान्।। | 12-286-63a 12-286-63b 12-286-63c |
सर्वाण्यशून्यानि करोत्यनन्तः सनातनः संचरते च लोकान्। स चानिरुद्धः सृजते महात्मा तत्स्थं जगत्सर्वमिदं विचित्रम्।। | 12-286-64a 12-286-64b 12-286-64c 12-286-64d |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-286-65x |
वृत्रेण परमार्थज्ञ दृष्टा मन्येत्मनो गतिः। सुखात्तस्मात्स सुखितो न शोचति पितामह।। | 12-286-65a 12-286-65b |
शुक्लः शुक्लाभिजातीयः साध्यो नावर्ततेऽनघ। तिर्यग्गतेश्च निर्मुक्तो निरयाच्च पितामह।। | 12-286-66a 12-286-66b |
हारिद्रवर्णे रक्ते वा वर्तमानस्तु पार्थिव। तिर्यगेवानुपश्येत कर्मभिस्तामसैर्वृतः।। | 12-286-67a 12-286-67b |
वयं तु भृशमापन्ना रक्ताः कष्टाः सुखेऽसुखे। कां गतिं प्रतिपत्स्यामो नीलां कृष्णाधमामथ।। | 12-286-68a 12-286-68b |
भीष्म उवाच। | 12-286-69x |
शुद्धाभिजनसंपन्नाः पाण्डवाः संशितव्रताः। विहत्य देवलोकेषु पुनर्मानुषमेध्यथ।। | 12-286-69a 12-286-69b |
प्रजाविसर्गं च सुखेन लोके प्रेत्यान्येदेहेषु सुखानि भुक्त्वा। सुखेन संयास्यथ सिद्धसङ्ख्यां मा वो भयं भवतु न वोऽस्तु पापम्।। | 12-286-70a 12-286-70b 12-286-70c 12-286-70d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि ष॰शीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 286।। |
12-286-1 तलमधोभागः। साकाशमाकाशसहितं सर्वमुपरितनम्। बाहुगोचरो मध्यस्थमित्यर्थः। यस्य पृथ्वीतलं पादमाशा वै बहुगोचरा इति ट. थ. पाठः।। 12-286-2 अनन्तं स्थानं मोक्षः।। 12-286-9 नैष दानकृता शक्य इति थ. पाठः।। 12-286-11 महताल्पकृतेन चेति ध. पाठः।। 12-286-12 जातिशतैर्जन्मशतैः एकजातौ एकजन्मन्यपि।। 12-286-22 अप्सु प्रतिष्ठित इति झ. पाठः।। 12-286-23 नेत्राभ्यां पादयोर्भूश्च दानयेति झ. पाठः।। 12-286-24 फलं तातेति झ. पाठः।। 12-286-29 ततो ब्रह्म प्रकाशते इति झ. पाठः।। 12-286-30 वापीसहस्राणि ततोऽप्यशीतिः इति ध. पाठः।। 12-286-31 योजनविस्तृताश्चेति थ. पाठः।। 12-286-34 गत्वाशुयोनिप्रभावानुतीत्येति ध. पाठः।। 12-286-35 दर्शनमापजीव इति थ. ध. पाठः।। 12-286-36 जीवगुणस्य दैत्येति झ. थ. पाठः।। 12-286-38 प्रजानिसर्गात्सबहून्वदन्तीति ट. थ. पाठः।। 12-286-39 युगक्षये तपसेति झ. पाठः।। 12-286-44 तिष्ठग्रमलत्वमेतीति ट.थ. पाठः।। 12-286-50 स्वर्गं सुखं तिष्ठति भूतसर्गमिति ट. पाठः। विक्षेपकृतप्रभाव इति झ. पाठः।। 12-286-51 सिद्धिलोके इति थ. ध. पाठः। संतिष्ठति सर्वलोके इति ट. पाठः।। 12-286-53 निश्शेषा वै तत्पदं यान्तति ट. थ. ध. पाठः।। 12-286-55 सशेषभाव इति ट. पाठः। दिव्याश्च तथैव शुक्ले इति ध. पाठः। तावत्तरत्येष विशुद्धभाव इतिं ध. पाठः।। 12-286-56 दुष्प्रापमभ्येति स इति झ. ट. थ. पाठः।। 12-286-61 महादेवो भगवान्स्वेन तेजसेति झ. पाठः। नानारूपान्महामना इति झ. ट. थ. पाठः।। 12-286-64 सनत्कुमारश्चरते चेति ध. पाठः।। 12-286-65 मन्ये शुभा गतिरिति थ. पाठः।। 12-286-66 नावर्तते पुनरिति ध. पाठः।। 12-286-68 रक्ताः काममुखेषु वै इति ध. पाठः। दुःखमुखेऽमुखे इति झ. पाठः।। 12-286-70 प्रत्येत्य देवेषु सुखानि बुक्त्वेति झ. पाठः। मा वो भयं भूद्विमलाः स्थ सर्वे इति च. झ. पाठः।।
शांतिपर्व-285 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-287 |