महाभारतम्-12-शांतिपर्व-133
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राज्ञा यथाकथंचित्कोशवृद्धेः कर्तव्यत्वोक्तिः।। 1।। तथा दस्युभिरापद्यपि सावशेषं परस्वापहा धर्म्यत्वोक्तिः।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-133-1x |
स्वराष्ट्रात्परराष्ट्राच्च कोशं संजनयेन्नृपः। कोशाद्धि धर्मः कौन्तेय राज्यमूलं प्रवर्तते।। | 12-133-1a 12-133-1b |
तस्मात्संजनयेत्कोशं सत्कृत्य परिपालयेत्। परिपाल्यानुगृह्णीयादेव धर्मः सनातनः।। | 12-133-2a 12-133-2b |
स कोशः शुद्धभावेन न नृशंसेन जायते। मध्यमं पदमास्थाय कोशसंग्रहणं चरेत्।। | 12-133-3a 12-133-3b |
अबलस्य कुतः कोशो ह्यकोशस्य कुतो बलम्। अबलस्य कुतो राज्यमराज्ये श्रीर्भवेत्कुतः।। | 12-133-4a 12-133-4b |
उच्चैर्वृत्तेः श्रियो हानिर्यथैव मरणं तथा। तस्मात्कोशं बलं मित्रमथ राजा विवर्धयेत्।। | 12-133-5a 12-133-5b |
हीनकोशं हि राजानमवमन्यन्ति शत्रवः। न चास्याल्पे तुष्यन्ति कर्मणाऽप्युत्सहन्ति च।। | 12-133-6a 12-133-6b |
श्रियो हि कारणाद्राजा सत्क्रियां लभते पराम्। साऽस्य गूहति पापानि वासो गुह्यमिव स्त्रियाः।। | 12-133-7a 12-133-7b |
ऋद्धिमस्यानुतप्यन्ते पुरा विप्रकृता नराः। सालावृका इवाजस्नं जिघांसूनेव विन्दति। ईदृशस्य कुतो राज्यं सुखं भरतसत्तम।। | 12-133-8a 12-133-8b 12-133-8c |
उद्यच्छेदेव न ग्लायेदुद्यमो ह्येव पौरुषम्। अप्यपर्वणि भज्येत न नमेतेह कस्यचित्।। | 12-133-9a 12-133-9b |
अप्यरण्यं समाश्रित्य चरेन्मृगगणैः सह। न त्वेवोद्रिक्तमर्यादैर्दस्युभिः सहितश्चरेत्।। | 12-133-10a 12-133-10b |
दस्यूनां सुलभा सेना रौद्रकर्मसु भारत। एकान्ततो ह्यमर्यादात्सर्वोऽप्युद्विजते जनः।। | 12-133-11a 12-133-11b |
दस्यवोऽप्यभिशङ्कन्ते निरनुक्रोशकारिणः।। | 12-133-12a |
स्थापयेदेव मर्यादां जनचित्तप्रसादिनीम्। अल्पाप्यर्थेषु मर्यादा लोके भवति पूजिता।। | 12-133-13a 12-133-13b |
नायं लोकोऽस्ति न पर इति व्यवसितो जनः। नालं गन्तुमिहाश्वासं नास्तिक्यभयशङ्कितैः।। | 12-133-14a 12-133-14b |
यथा सद्भिः परादानमहिंसा दस्युभिस्तथा। अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु।। | 12-133-15a 12-133-15b |
अयुध्यमानस्यादानं दारामर्शः कृतघ्नता। ब्रह्मवित्तस्य चादानं निःशेषकरणं तथा।। | 12-133-16a 12-133-16b |
स्त्रिया मोषः पथिस्थानं साधुष्वेव विगर्हितम्। सदोष एव भवति दस्युरेतानि वर्जयेत्।। | 12-133-17a 12-133-17b |
अभिसंदधते ये च विनाशायास्य भारत। सशेषमेवोपलभ्य कुर्वन्तीति विनिश्चयः।। | 12-133-18a 12-133-18b |
तस्मात्सशेषं कर्तव्यं स्वाधीनमपि दस्युभिः। न बलस्थोऽहमस्मीति नृशंसानि समाचरेत्।। | 12-133-19a 12-133-19b |
सशेषकारिणस्तत्र शेषं पश्यन्ति सर्वशः। निःशेषकारिणो नित्यं निःशेषकरणाद्भयम्।। | 12-133-20a 12-133-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 133।। |
12-133-5 उच्चैर्वृत्तेः महतः।। 12-133-7 वासः पापमिव स्त्रिय इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-133-8 विप्रकृताः सालावृकवत् जिघांसूनेव विन्दन्ति आश्रयन्ति कपटेन हन्तुम्। आर्षो वचनव्यत्ययः।। 12-133-10 दस्युभिः दस्युप्रायैरमात्यैः।। 12-133-11 अत्यन्तापन्नस्य वनस्था दस्यवोऽपि कार्यकरा इत्याह दस्यूनामिति। दस्यूनां सुलभां सेनां रौद्रकर्मसु कारयेदिति ध. पाठः। तेष्वपि सत्येन मार्दवेन च स्थेयमित्याह एकान्तत इति।। 12-133-14 जनः प्राकृतः। अलं पर्याप्तं युक्तमित्यर्थः।। 12-133-15 सद्भिर्दस्युभिः परादानं परस्वहरणमपि कृत अहिंसा भवति तथा वक्ष्ये इत शेषः।। 12-133-16 निःशेषकरणं सर्वहरणम्।। 12-133-17 स्त्रिया कन्यायाः मोषश्चौर्यम्।। 12-133-19 यस्मादेवं तस्मात् सशेषभेपरलुम्पनं कर्तव्यम्।। 12-133-20 यो यथा करोति तथैव प्रजा कुर्वन्तीत्याह सशेषेति।।
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