महाभारतम्-12-शांतिपर्व-146
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कपोतस्य वह्निप्रवेशदर्शिना व्याधेन आत्मोपालम्भपूर्वकं स्वप्राणविमोक्षणायानशनादिना शरीरशोषणाध्यवसायः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-146-1x |
ततः स लुब्धकः पश्यन्क्षुधयाऽपि परिप्लुतः। कपोतमग्निपतितं वाक्यं पुनरुवाच ह।। | 12-146-1a 12-146-1b |
किमीदृशं नृशंसेन मया कृतमबुद्धिना। भविष्यति हि मे नित्यं पातकं भुवि जीवतः। स विनिन्दंस्तथाऽऽत्मानं पुनः पुनरुवाच ह।। | 12-146-2a 12-146-2b 12-146-2c |
धिङ्भामस्तु सुदुर्बुद्धिं सदा निकृतिनिश्चयम्। शुभं कर्म परित्यज्य सोऽहं शकुनिलुब्धकः।। | 12-146-3a 12-146-3b |
नृशंसस्य ममाद्यायं प्रत्यादेशो न संशयः। दत्तः स्वमांसं दहता कपोतेन महात्मना।। | 12-146-4a 12-146-4b |
सोहं त्यक्ष्ये प्रियान्प्राणान्पुत्रान्दारान्विसृज्य च। उपदिष्टो हि मे धर्मः कपोतेनात्र धर्मिणा।। | 12-146-5a 12-146-5b |
अद्यप्रभुति देहं स्वं सर्वभोगैर्विवर्जितम्। यथा स्वल्पं सरो ग्रीष्मे शोषयिष्याम्महं तथा।। | 12-146-6a 12-146-6b |
क्षुत्पिपासातपसहः कृशो ध्रमनिसन्ततः। उपवासैर्बहुविधैश्चरिष्ये पारलौकिकम्।। | 12-146-7a 12-146-7b |
अहो देहप्रदानेन दर्शिताऽतिथिपूजना। तस्माद्धर्मं चरिष्यामि धर्मो हि परमा गतिः।। | 12-146-8a 12-146-8b |
दृष्टो धर्मो हि धर्मिष्ठे यादृशो विहगोत्तमे। एवमुक्त्वा विनिश्चित्य रौद्रकर्मा स लुब्धकः।। | 12-146-9a 12-146-9b |
महाप्रस्थानमाश्रित्य प्रययौ संशितव्रतः।। | 12-146-10a |
ततो यष्टिं शलाकां च धारकं पञ्जरं तथा। तां च बद्धां कपोतीं स प्रमुच्य विससर्ज ह।। | 12-146-11a 12-146-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 146।। |
12-146-4 प्रत्यादेशः धिक्कारपूर्वक उपदेशः।।
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