महाभारतम्-12-शांतिपर्व-018
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अर्जुनेन युधिष्ठिरंप्रति जनकतद्भार्यासंवादकथनपूर्वकं कर्तव्योपदेशः।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-18-1x |
तूष्णींभूतं तु राजानं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्। संतप्तः शोकदुःखाभ्यां राजवाक्शल्यपीडितः।। | 12-18-1a 12-18-1b |
अर्जुन उवाच। | 12-18-2x |
कथयन्ति पुरावृत्तमितिहासमिमं जनाः। विदेहराज्ञः संवादं भार्यया सह भारत।। | 12-18-2a 12-18-2b |
उत्सृज्य राज्यं भिक्षार्थं कृतबुद्धिं नरेश्वरम्। विदेहराजमहीषी दुःखिता प्रत्यभाषत।। | 12-18-3a 12-18-3b |
धनान्यपत्यं मित्राणि रत्नानि विविधानि च। पन्थानं पावनं हित्वा जनको मौढ्यमास्थितः।। | 12-18-4a 12-18-4b |
तं ददर्श प्रिया भार्या भैक्षवृत्तिमकिंचनम्। धानामुष्टिमुपासीनं निरीहं गतमत्सरम्।। | 12-18-5a 12-18-5b |
तमुवाच समामत्य भर्तारमकुतोभयम्। क्रुद्धा मनस्विनी भार्या विविक्ते हेतुमद्वचः।। | 12-18-6a 12-18-6b |
कथमुत्सृज्य राज्यं स्वं धनधान्यसमन्वितम्। कापालीं वृत्तिमास्थाय धान्यमुष्टिमुपाससे।। | 12-18-7a 12-18-7b |
प्रतिज्ञा तेऽन्यथा राजन्विचेष्टा चान्यथा तव। यद्राज्यं महदुत्सृज्य स्वल्पे लुभ्यसि पार्थिव।। | 12-18-8a 12-18-8b |
नैतेनातिथयो राजन्देवर्षिपितरस्तथा। अद्य शक्यास्त्वया भर्तुं मोघस्तेऽयं परिश्रमः।। | 12-18-9a 12-18-9b |
देवतातिथिभिश्चैव पितृभिश्चैव पार्थिव। सर्वैरेतैः परित्यक्तः परिव्रजसि निष्क्रियः।। | 12-18-10a 12-18-10b |
यस्त्वं त्रैविद्यवृद्धानां ब्राह्मणानां सहस्रशः। भर्ता भूत्वा च लोकस्य सोऽद्यान्यैर्भूतिमिच्छसि।। | 12-18-11a 12-18-11b |
श्रियं हित्वा प्रदीप्तां त्वं श्ववत्संप्रति वीक्ष्यसे। अपुत्रा जननी तेऽद्य कौसल्या चापतिस्त्वया।। | 12-18-12a 12-18-12b |
आश्रिता धर्मकामास्त्वां क्षत्रियाः पर्युपासते। त्वदाशामभिकाङ्क्षन्तः कृपणाः फलहेतुकाः।। | 12-18-13a 12-18-13b |
तांश्च त्वं विफलान्कृत्वा कं नु लोकं गमिष्यसि। राजन्संशयिते मोक्षे परतन्त्रेषु देहिषु।। | 12-18-14a 12-18-14b |
नैव तेऽस्ति परो लोको नापरः पापकर्मणः। धर्म्यान्दारान्परित्यज्य यस्त्वमिच्छसि जीवितुम्।। | 12-18-15a 12-18-15b |
स्रजो गन्धानलंकारान्वासांसि विविधानि च। किमर्थमभिसंत्यज्य परिव्रजसि निष्क्रियः।। | 12-18-16a 12-18-16b |
निपानं सर्वभूतानां भूत्वा त्वं पावनं महत। आढ्यो वनस्पतिर्भूत्वा सोन्यांस्त्वं पर्युपाससे।। | 12-18-17a 12-18-17b |
खादन्ति हस्तिनं न्यासे क्रव्यादा बहवोऽप्युत। बहवः कृमयश्चैव किं पुनस्त्वामनर्थकम्।। | 12-18-18a 12-18-18b |
य इमां कुण्डिकां भिन्द्यान्त्रिविष्टब्धं च यो हरेत्। वासश्चापि हरेत्तस्मिन्कथं ते मानसं भवेत्।। | 12-18-19a 12-18-19b |
यस्त्वं सर्वं समुत्सृज्य धानामुष्टिमनुग्रहः। यदनेन कृतं सर्वं किमिदं मम दीयते।। | 12-18-20a 12-18-20b |
धानामुष्टेरिहार्थश्चेत्प्रतिज्ञा ते विनश्यति। का वाऽहं तव को मे त्वं कश्च ते मय्यनुग्रहः।। | 12-18-21a 12-18-21b |
प्रशाधि पृथिवीं राजन्यत्र तेऽनुग्रहो भवेत्। प्रासादे शयनं यानं वासांस्याभरणानि च।। | 12-18-22a 12-18-22b |
श्रियां निराशैरधनेस्त्यक्तमित्रैरकिंचनैः। सौखिकैः संभृतो योऽर्थः स संत्यजति किंनु तं।। | 12-18-23a 12-18-23b |
योऽत्यन्तं प्रतिगृह्णीयाद्यश्च दद्यात्सदैव हि। तयोस्त्वमन्तरं विद्धि श्रेयांस्ताभ्यां क उच्यते।। | 12-18-24a 12-18-24b |
सदैव याचमानेषु तथा दम्भान्वितेषु च। एतेषु दक्षिणा दत्ता दावाग्राविव दुर्हुतम्।। | 12-18-25a 12-18-25b |
जातवेदा यथा राजन्नादग्ध्वैवोपशाम्यति। सदैव याचमानो वै तथा शाम्यति न द्विजः।। | 12-18-26a 12-18-26b |
सतां वै ददतोऽन्नं च लोकेऽस्मिन्प्रकृतिर्ध्रुवा। न चेद्राजा भवेद्दाता कुतः स्युर्मोक्षकाङ्क्षिणः।। | 12-18-27a 12-18-27b |
अन्नाद्गृहस्था लोकेऽस्मिन्भिक्षवस्तत एव च। अन्नात्प्राणः प्रभवति अन्नदः प्राणदो भवेत्।। | 12-18-28a 12-18-28b |
गृहस्थेभ्योऽपि निर्मुक्ता गृहस्थानेव संश्रिताः। प्रभवं च प्रतिष्ठां च दान्ता विन्दन्त आसते।। | 12-18-29a 12-18-29b |
त्यागान्न भिक्षुकं विन्द्यान्न मौढ्यान्न च याचनात्। ऋजुस्तु योऽर्थं त्यजति तं मुक्तं विद्धि भिक्षुकम्।। | 12-18-30a 12-18-30b |
असक्तः शक्तवद्गच्छन्निः सङ्गो मुक्तबन्धनः। समः शत्रौ च मित्रे च स वै मुक्तो महीपते।। | 12-18-31a 12-18-31b |
परिव्रजन्ति दानार्थं मुण्डाः काषायवाससः। सिता बहुविधैः पाशैः संचिन्वन्तो वृथामिषम्।। | 12-18-32a 12-18-32b |
त्रयीं च नामवार्तां च त्यक्त्वा पुत्रान्व्रजन्ति ये। त्रिविष्टब्धं च वासश्च प्रतिगृह्णन्त्यबुद्धयः।। | 12-18-33a 12-18-33b |
अनिष्कषाये काषायमीहार्थमिति विद्धि तम्। धर्मध्वजानां मुण्डानां वृत्त्यर्थमिति मे मतिः।। | 12-18-34a 12-18-34b |
काषायैरजिनैश्चीरैर्नग्नान्मुण्डाञ्जटाधरान्। बिभ्रत्साधून्महाराज जय लोकाञ्जितेन्द्रियः।। | 12-18-35a 12-18-35b |
अग्न्याधेयानि गुर्वर्थं क्रतूनपि सुदक्षिणान्। ददात्यहरहः पूर्वं को नु धर्मरतस्ततः।। | 12-18-36a 12-18-36b |
अर्जुन उवाच। | 12-18-37x |
तत्त्वज्ञो जनको राजा लोकेऽस्मिन्निति गीयते। सोऽप्यासीन्मोहसंपन्नो मा मोहवशमन्वगाः।। | 12-18-37a 12-18-37b |
एवं धर्ममनुक्रान्ता सदा दानतपः पराः। आनृशंस्यगुणोपेताः कामक्रोधविवर्जिताः।। | 12-18-38a 12-18-38b |
प्रजानां पालने युक्ता दममुत्तममास्थिताः। इष्ट्वा लोकानवाप्स्यामो गुरुवृद्धोपचायिनः।। | 12-18-39a 12-18-39b |
देवतातिथिभूतानां निर्वपन्तो यथाविधि। स्थानमिष्टमवाप्स्यामो ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।। | 12-18-40a 12-18-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।। 18।। |
12-18-5 धाना भृष्टयवाः। निरीहं वितृष्णम्।। 12-18-8 स्वल्पे मुह्यसीति द.थ. पाठः। प्रतिज्ञाते ते वृथेति ड. पाठः।। 12-18-9 एतेन धानामुष्टिना।। 12-18-12 कौसल्या पातिता त्वयेति ट. ड. थ. पाठः।। 12-18-13 फलहेतुकाः फलार्थिनः।। 12-18-17 निपीयतेऽस्मिन्स्वेच्छया गोभिर्जलमिति निपानं आहावः। कूपोपान्तस्थक्षुद्रजलाशय इतियावत्। तथा आढ्यः फलवान्।। 12-18-18 हस्तिनमपि न्यासे कृते सति क्रव्यादा मांसादाः खादन्ति। अनर्थकं सर्वपुरुषार्थहीनम्।। 12-18-19 त्रिविष्टब्धं त्रिदण्डम्।। 12-18-20 अनुग्रहः अन्वग्रहीः। यदानेन समं सर्वं किमिदं ह्यवसीयते इति झ. पाठः। तत्र अवसीयसे अध्यवस्यति। अनेन धानामुष्टिना सर्वं राज्यादिकं समम्। सङ्गित्वाविशेषात् इत्यर्थः।। 12-18-23 सौखिकैः संभृतानर्थान्यः संत्यजति किंनु तत् इति झ. पाठः। तत्र सौखिकैः परममुखार्थिभिः संन्यासिभिः। संभृतानर्थान् कुण्डिकादीन् वीक्ष्य यः स्वयमपि तथा करोति स किंनु तद्राज्यादिकं त्यजति। अपितु नैव त्यजति। किंतूचितं परिग्रहं त्यक्त्वा दैवोपहतत्वादनुचितं परिग्रहान्तरमेव करोतीत्यसङ्गत्वमस्य दुर्लभमित्यर्थः।। 12-18-25 सदैव वाचमानः परिव्राट्। सदैव याचमानेषु सत्सु (दण्ड)डम्भविवर्जिषु इति ट.ड. थ. द. पाठः।। 12-18-26 सदैव याचमानो हि तथा शाम्यति वै द्विजः। इति झ. पाठः।। 12-18-27 सतां संन्यासिनां प्रकृतिर्जीवनम्। सतां च वेदा अन्नं च लोकेऽस्मिन्प्रकृतिर्ध्रुवा। अन्नदाता भवेद्दाता कुशास्त्रं मोक्षकाङ्क्षिणः। इति ट.ड.थ.द. पाठः।। 12-18-32 परिव्रजन्ति येऽनर्था इति ट. ड. पाठः।। 12-18-34 अनिष्कषाये रागादिदोषवर्जनाभावे। अनिष्कषायाः काषायमिति ड. थ. द. पाठः।।
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