महाभारतम्-12-शांतिपर्व-237
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सद्गुणानां जनवशीकरणकारणत्वे दृष्टान्ततया उग्रसेनाय कृष्णोदितनारदगुणानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-237-1x |
प्रियः सर्वस्य लोकस्य सर्वसत्वाभिनन्दितः। गुणैः तर्पैरुपेतश्च कोन्वस्ति भुवि मानवः।। | 12-237-1a 12-237-1b |
भीष्म उवाच। | 12-237-2x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि पृच्छतो भरतर्षभ। उग्रसेनस्य संवादं नारदे केशवस्य च।। | 12-237-2a 12-237-2b |
उग्रसेन उवाच। | 12-237-3x |
यस्य संकल्पते लोको नारदस्य प्रकीर्तने। मन्ये स गुणसंपन्नो ब्रूहि तन्मम पृच्छतः।। | 12-237-3a 12-237-3b |
वासुदेव उवाच। | 12-237-4x |
कुकुराधिप यान्मन्ये शृणु तान्मे विवक्षतः। नारदस्य गुणान्साधून्संक्षेपेण नराधिप।। | 12-237-4a 12-237-4b |
न चारित्रनिमित्तोऽस्याहंकारो देहपातनः। अभिन्नश्रुतचारित्रस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-5a 12-237-5b |
अरतिः क्रोधचापल्ये भयं नैतानि नारदे।। अदीर्घसूत्रः शूरश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-6a 12-237-6b |
उपास्यो नारदो बाढं वाचि नास्य व्यतिक्रमः। कामतो यदि वा लोभात्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-7a 12-237-7b |
अध्यात्मविधितत्त्वज्ञः क्षान्तः शक्तो जितेन्द्रियः। ऋजुश्च सत्यवादी च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-8a 12-237-8b |
तेजसा यशसा बुद्ध्या ज्ञानेन विनयेन च। जन्मना तपसा वृद्धस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-9a 12-237-9b |
सुशीलः सुखसंवेशः सुभोजः स्वादरः शुचिः। सुवाक्यश्चाप्यनीर्ष्यश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-10a 12-237-10b |
कल्याणं कुरुते बाढं पापमस्मिन्न विद्यते। न प्रीयते परानर्थैस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-11a 12-237-11b |
वेदश्रूतिभिराख्यानैरर्थानभिजिगीषति। तितिक्षुरनवज्ञश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-12a 12-237-12b |
समत्वाच्च प्रियो नास्ति नाप्रियश्च कथंचन। मनोऽनुकूलवादी च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-13a 12-237-13b |
बहुश्रुतश्चित्रकथः पण्डितोऽनलसोऽशठः। अदीनोऽक्रोधनोऽलुब्धस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-14a 12-237-14b |
नार्थे धने वा कामे वा भूतपूर्वोऽस्य विग्रहः। दोषाश्चास्य समुच्छिन्नास्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-15a 12-237-15b |
दृढभक्तिरनिन्द्यात्मा श्रुतवाननृशंसवान्। वीतसंमोहदोषश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-16a 12-237-16b |
असक्तः सर्वसङ्गेषु सक्तात्मेव च लक्ष्यते। अदीर्घसंशयो वाग्मी तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-17a 12-237-17b |
समाधिर्नास्य कामार्थै नात्मानं स्तौति कर्हिचित्। अनीर्षुर्मृदुसंवादस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-18a 12-237-18b |
`नाहंकारे मुक्तिरस्य चारित्रे बुद्धिरास्थिता। वेदार्थविद्विभागेन यज्ञविद्योगवित्कविः। भक्तिमान्य सदा विद्वांस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-19a 12-237-19b 12-237-19c |
त्रिगुणं गुणभोक्तारं पञ्चयज्ञात्मकं तथा। यथावत्स विजानाति तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-20a 12-237-20b |
कल्याणं कुरुते बाढं पापमस्मिन्न विद्यते। न प्रीयते परानर्थैस्तस्मात्सर्वत्र पूज्यते।।' | 12-237-21a 12-237-21b |
लोकस्य विविधं चित्तं प्रेक्षते चाप्यकुत्सयन्। संसर्गविद्याकुशलस्तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-22a 12-237-22b |
नासूयत्यागमं कंचित्स्वनयेनोपजीवति। अबन्ध्यकालोऽवश्यात्मा तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-23a 12-237-23b |
कृतश्रमः कृतप्रज्ञो न च तृप्तः समाधितः। नित्ययुक्तोऽप्रमत्तश्च तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-24a 12-237-24b |
नापत्रपश्च युक्तश्च नियुक्तः श्रेयसे परैः। अभेत्ता परगुह्यानां तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-25a 12-237-25b |
न हृष्यत्यर्थलाभेषु नालाभे तु व्यथत्यपि। स्थिरबुद्धिरसक्तात्मा तस्मात्सर्वत्र पूजितः।। | 12-237-26a 12-237-26b |
तं सर्वगुणसंपन्नं दक्षं शुचिमनामयम्। कालज्ञं च प्रियज्ञं च कः प्रियं न करिष्यति।। | 12-237-27a 12-237-27b |
`इत्युक्तः संप्रशस्यैनमुग्रसेनो गतो गृहात्। आस्ते कृष्णस्तथैकान्ते पर्यङ्के रत्नभूषिते।। | 12-237-28a 12-237-28b |
कदाचित्तत्र भगवान्प्रविवेश महामुनिः। तमभ्यर्च्य यथान्यायं तूष्णीमास्ते जनार्दनः।। | 12-237-29a 12-237-29b |
तं खिन्नमिव संलक्ष्य केशवं वाक्यमब्रवीत्। किमिदं केशव तव वैमनस्यं जनार्दन। अभूतपूर्वं गोविन्द तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-237-30a 12-237-30b 12-237-30c |
श्रीवासुदेव उवाच। | 12-237-31x |
नासुहृत्परमं मेऽद्य नापदोऽर्हति वेदितुम्। अपण्डितो वापि सुहृत्पण्डितो वाऽप्यनात्मवान्।। | 12-237-31a 12-237-31b |
स त्वं सुहृच्च विद्वांश्च जितात्मा श्रोतुमर्हसि। अप्येतद्धृदि यद्दुःखं तद्भवाञ्श्रोतुमर्हति।। | 12-237-32a 12-237-32b |
दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां च करोम्यहम्। द्विषन्ति सततं क्रुद्धा ज्ञातिसंबन्धिवान्धवाः।। | 12-237-33a 12-237-33b |
दिव्या अपि तथा भोगा दत्तास्तेषां मया पृथक्। तथाऽपि च द्विषन्तो मां वर्तन्ते च परस्परम्।। | 12-237-34a 12-237-34b |
नारद उवाच। | 12-237-35x |
अनायसेन शस्त्रेण परिमृज्यानुमृज्य च। जिह्वामुद्धर चैतेषां न वक्ष्यन्ति ततः परम्।। | 12-237-35a 12-237-35b |
भगवानुवाच। | 12-237-36x |
अनायसं कथं विन्द्यां शस्त्रं मुनिवरोत्तम। येनषामुद्धरे जिह्वां ब्रूहि तन्मे यथातथम्।। | 12-237-36a 12-237-36b |
नारद उवाच। | 12-237-37x |
गोहिरण्यं च वासांसि रत्नाद्यं यद्धनं बहु। आस्ये प्रक्षिप चैतेषां शस्त्रमेतदनायसम्।। | 12-237-37a 12-237-37b |
सुहृत्संबन्धिमित्राणां गुरूणां स्वजनस्य च। आख्यातं शस्रमेतद्धि तेन च्छिन्धि पुनः पुनः।। | 12-237-38a 12-237-38b |
तवैश्वर्यप्रदानानि श्लाध्यमेषां वचांसि च। समर्थं त्वामभिज्ञाय प्रवदन्ति च ते नराः।। | 12-237-39a 12-237-39b |
भीष्म उवाच। | 12-237-40x |
ततः प्रहस्य भगवान्संपूज्य च महामुनिम्। तथाऽकरोन्महातेजा मुनिवाक्येन चोदितः।। | 12-237-40a 12-237-40b |
एवंप्रभावो ब्रह्मर्षिर्नारदो मुनिसत्तमः। पृष्टवानसि यन्मां त्वं तदुक्तं राजसत्तम।। | 12-237-41a 12-237-41b |
सर्वधर्महिते युक्ताः सत्यधर्मपरायणाः। लोकप्रियत्वं गच्छन्ति ज्ञानविज्ञानकोविदाः।।' | 12-237-42a 12-237-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 237।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-237-12 तितिक्षुरनवद्यश्चेति ट. पाठः।। 12-237-31 असुहृत्नापुरुषः।।
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