महाभारतम्-12-शांतिपर्व-217
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वैराग्यादिमोक्षसाधनप्रतिपादकगुरुवाक्यानुवादः।। 1।।
गुरुरुवाच। | 12-217-1x |
दुरन्तेष्विन्द्रियार्थेषु सक्ताः सीदन्ति जन्तवः। ये त्वसक्ता महात्मानस्ते यान्ति परमां गतिम्।। | 12-217-1a 12-217-1b |
जन्ममृत्युजरादुःखैर्व्याधिभिर्मानसक्लमैः। दृष्ट्वैव संततं लोकं घटेन्मोक्षाय बुद्धिमान्।। | 12-217-2a 12-217-2b |
वाङ्भनोभ्यां शरीरेण शुचिः स्यादनहंकृतः। प्रशान्तो ज्ञानवान्भिक्षुर्निरपेक्षश्चरेत्सुखम्।। | 12-217-3a 12-217-3b |
`वशा मोक्षवतां पाशास्तासां रूपं प्रदर्शकम्। दुर्ग्रहं पश्यमानोऽपि मन्यते मोहितस्तदा।। | 12-217-4a 12-217-4b |
एवं पश्यन्तमात्मानमनुध्यातं हि बन्धुषु। अयथात्वेन जानामि भेदरूपेण संस्थितम्।।' | 12-217-5a 12-217-5b |
अथवा मनसः सङ्गं पश्येद्भूतानुकम्पया। तत्राप्युपेक्षां कुर्वीत ज्ञात्वा कर्मफलं जगत्।। | 12-217-6a 12-217-6b |
यत्कृतं स्याच्छुभं कर्म पापं वा यदि वाऽश्नुते। तस्माच्छुभानि कर्माणि कुर्याद्वा बुद्धिकर्मभिः।। | 12-217-7a 12-217-7b |
अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतेषु चार्जवम्। क्षमा चैवाप्रमादश्च यस्यैते स सुखी भवेत्।। | 12-217-8a 12-217-8b |
`अनक्षसाध्यं तद्ब्रह्म निर्मलं जगतः परम्। स्वात्मप्रकाशमग्राह्यमहेतुकमचञ्चलम्।। | 12-217-9a 12-217-9b |
विवेकज्ञानवाचिस्थो ह्याशुरूपेण संस्थितः। वैकारिकात्प्रदृश्येतै गैरिके मधुधारवत्।।' | 12-217-10a 12-217-10b |
यश्चैनं परमं धर्मं सर्वभूतसुखावहम्। दुःखान्निः सरणं वेद तत्त्वज्ञः स सुखी भवेत्।। | 12-217-11a 12-217-11b |
तस्मात्समाहितं बुद्ध्या मनो भूतेषु धारयेत्। नापथ्यायेन्न स्पृहयेन्नाबद्धं चिन्तयेदसत्।। | 12-217-12a 12-217-12b |
अथामोघप्रयत्नेन मनो ज्ञाने निवेशयेत्। सुवाचोऽथ प्रयोगेण मनोज्ञं संप्रवर्तते।। | 12-217-13a 12-217-13b |
विवेकयित्वा तद्वाक्यं धर्मसूक्ष्ममवेक्ष्य च। सत्यां वाचमहिंस्रां च वदेदनपवादिनीम्।। | 12-217-14a 12-217-14b |
कल्कापेतामपरुषामनृशंसामपैशुनीम्। ईदृगल्पं च वक्तव्यमविक्षिप्तेन चेतसा।। | 12-217-15a 12-217-15b |
वाक्यबन्धेन संरागविहाराद्व्याहरेद्यदि। बुद्ध्याऽप्यनुगृहीतेन मनसा कर्म तामसम्।। | 12-217-16a 12-217-16b |
रजोभूतैर्हि करणैः कर्मणि प्रतिपद्यते। स दुःखं प्राप्य लोकेऽस्मिन्नरकायोपपद्यते। तस्मान्मनोवाक्शरीरैराचरेद्वैर्यमात्मनः।। | 12-217-17a 12-217-17b 12-217-17c |
प्रकीर्ण एव भारो हि यद्वद्धार्येत दस्युभिः। प्रतिलोमां दिशं बुद्ध्वा संसारमबुधास्तथा। `संसारमार्गमापन्नः प्रतिलोमं विवर्जयेत्।।' | 12-217-18a 12-217-18b 12-217-18c |
तामेव च यथा दस्यून्हत्वा गच्छेच्छिवां दिशम्। तथा रजस्तमः कर्माण्युत्सृज्य प्राप्नुयाच्छुभम्।। | 12-217-19a 12-217-19b |
निःसंदिग्धमनीहो वै मुक्तः सर्वपरिग्रहैः। विविक्तचारी लघ्वाशी तपस्वी नियतेन्द्रियः।। | 12-217-20a 12-217-20b |
ज्ञानदग्धपरिक्लेशः प्रयोगरतिरात्मवान्। निष्प्रचारेण मनसा परं तदधिगच्छति।। | 12-217-21a 12-217-21b |
धृतिमानात्मवान्बुद्धिं निगृह्णीयादसंशयम्। मनो बुद्ध्या निगृह्णीयाद्विषयान्मनसाऽऽत्मनः। `योजयित्वा मनस्तत्र निश्चलं परमात्मनि।। | 12-217-22a 12-217-22b 12-217-22c |
योगाभिसन्धियुक्तस्य ब्रह्म तत्संप्रकाशते। ऐकान्त्यं तदिदं विद्धि सर्ववस्त्वन्तरस्थितिः।। | 12-217-23a 12-217-23b |
विशेषहीनं गृह्णन्ति विशेषां कारणात्मिकाम्। अथवा न प्रभुस्तत्र परमात्मनि वर्तितुम्। आगामित्तत्त्वं योगात्मा योगतन्त्रमुपक्रमेत्।।' | 12-217-24a 12-217-24b 12-217-24c |
निगृहीतेन्द्रियस्यास्य कुर्वाणस्य मनो वशे। देवतास्ताः प्रकाशन्ते हृष्टा यान्ति तमीश्वरम्।। | 12-217-25a 12-217-25b |
ताभिः संयुक्तमनसो ब्रह्म तत्संप्रकाशते। शनैश्चापगते सत्वे ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 12-217-26a 12-217-26b |
अथवा न प्रवर्तेत योगतन्त्रैरुपक्रमेत्। योगतन्त्रमयं तन्त्रं वृत्तिः स्यात्ततदाचरेत्।। | 12-217-27a 12-217-27b |
कणकुल्माषपिण्याकशाकयावकसक्तवः। तथा मूलफलं भैक्ष्यं पर्यायेणोपयोजयेत्।। | 12-217-28a 12-217-28b |
आहारनियमं चैव देशे काले च सात्विकः। तत्परीक्ष्यानुवर्तेत यत्प्रवृत्त्यनुवर्तकम्।। | 12-217-29a 12-217-29b |
प्रवृत्तं नोपरुन्धेत शनैरग्निमिवेन्धयेत्। ज्ञानैधितं तथा ज्ञानमर्कवत्संप्रकाशते।। | 12-217-30a 12-217-30b |
ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं त्रील्लोँकानधितिष्ठति। विज्ञानानुगतं ज्ञानमज्ञानेनापकृष्यते।। | 12-217-31a 12-217-31b |
पृथक्त्वात्संप्रयोगाच्च नासूयुर्वेद शाश्वतम्। स तयोरपवर्गज्ञो वीतरागो विमुच्यते।। | 12-217-32a 12-217-32b |
वयोतीतो जरामृत्यू जित्वा ब्रह्म सनातनम्। अमृतं तदवाप्नोति यत्तदक्षरमव्ययम्।। | 12-217-33a 12-217-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 217।। |
12-217-2 क्लमैः क्लेशैः संततं व्याप्तं दृष्ट्वैव नतु ममेदानीं क्लेशो नास्तीत्युपेक्षेत।। 12-217-3 घटनमेवाहाध्यायेन वागिति। चरेद्गुरुरिति ध.पाठः।। 12-217-6 पश्येद्भूतादिकं यथा इति ध. पाठः।। 12-217-12 नापथ्यायेत् परानिष्टं न चिन्तयेत्। अबद्धं स्वस्यायोग्यं राज्यादिकं न स्पृहयेत्। असन्नष्टं भावि वा स्त्रीपुत्रादिकं न चिन्तयेत्।। 12-217-13 वाचामोधप्रयासेन मनोज्ञं तत्प्रवर्तते इति झ. पाठः।। 12-217-14 विवक्षता च तद्वाक्यं धर्मं सूक्ष्ममवेक्षता इति झ. पाठः।। 12-217-15 कल्कापेतां शाठ्येन हीनाम्।। 12-217-16 वाक्प्रबद्धो हि संसारो विरागात् इति झ. पाठः।। 12-217-17 रजोभूतैः प्रवृत्तिपरैः।। 12-217-20 अनीहश्चेष्टाशून्यः।। 12-217-21 प्रयोगो योगाङ्गानामनुष्ठानं तत्र रतिः प्रीतिर्यस्य। निष्प्रचारेण निरुद्धेन।। 12-217-26 एतैश्चाभिमतैः सर्वैरिति ध. पाठः।।
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