महाभारतम्-12-शांतिपर्व-306
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति योगनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-306-1x |
साङ्ख्ये योगे च मे तात विशेषं वक्तुमर्हसि। तव धर्मज्ञ सर्वं हि विदितं कुरुसत्तम।। | 12-306-1a 12-306-1b |
भीष्म उवाच। | 12-306-2x |
साङ्ख्याः साङ्ख्यं प्रशंसन्ति योगा योगं द्विजातयः। वदन्ति कारणं श्रेष्ठं स्वपक्षोद्भावनाय वै।। | 12-306-2a 12-306-2b |
अनीश्वरः कथं मुच्येदित्येवं शत्रुसूदन। वदन्ति कारणश्रैष्ठ्यं योगाः सम्यङ्भनीषिणः।। | 12-306-3a 12-306-3b |
वदन्ति कारणं चेदं साङ्ख्याः सम्यग्द्विजातयः। विज्ञायेह गतीः सर्वा विरक्तो विषयेषु यः।। | 12-306-4a 12-306-4b |
ऊर्ध्वं च देहात्सुव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा। एतदाहुर्महाप्राज्ञाः साङ्ख्यं वै मोक्षदर्शनम्।। | 12-306-5a 12-306-5b |
स्वपक्षे कारणं ग्राह्यं समर्थं वचनं हितम्। शिष्टानां हि मतं ग्राह्यं त्वद्विधैः शिष्टसंमतैः।। | 12-306-6a 12-306-6b |
प्रत्यक्षहेतवो योगाः साङ्ख्याः शास्त्रविनिश्चयाः। उभे चैते मते तत्त्वे मम तात युधिष्ठिर।। | 12-306-7a 12-306-7b |
उभे चैते मते ज्ञाने नृपते शिष्टसंमते। अनुष्ठिते यथाशास्त्रं नयेतां परमां गतिम्।। | 12-306-8a 12-306-8b |
तुल्यं शौचं तयोरेकं दया भूतेषु चानघ। व्रतानां धारणं तुल्यं दर्शनं न समं तयोः। `तयोस्तु दर्शनं सम्यक्सूक्ष्माभावे प्रसज्यते।।' | 12-306-9a 12-306-9b 12-306-9c |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-306-10x |
यदि तुल्यं व्रतं शौचं दया चात्र फलं तथा। न तुल्यं दर्शनं कस्मात्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-306-10a 12-306-10b |
भीष्म उवाच। | 12-306-11x |
रागं मोहं तथा स्नेहं कामं क्रोधं च केवलम्। योगाच्छित्त्वा ततो दोषान्पञ्चैतान्प्राप्नुवन्ति ते।। | 12-306-11a 12-306-11b |
यथा चानिमिषाः स्थूला जालं छित्त्वा पुनर्जलम्। प्राप्नुवन्ति तथा योगास्तत्पदं वीतकल्मषाः।। | 12-306-12a 12-306-12b |
तथैव वागुरां छित्त्वा बलवन्तो यथा मृगाः। प्राप्नुयुर्विमलं मार्गं विमुक्ताः सर्वबन्धनैः।। | 12-306-13a 12-306-13b |
लोभजानि तथा राजन्बन्धनानि बलान्विताः। छित्त्वा योगात्परं मार्गं गच्छन्ति विमलं शिवम्।। | 12-306-14a 12-306-14b |
अबलाश्च मृगा राजन्वागुरासु यथा परे। विनश्यन्ति न संदेहस्तद्वद्योगबलादृते।। | 12-306-15a 12-306-15b |
बलहीनाश्च कौन्तेय यथा जालं गता झषाः। अन्तं गच्छन्ति राजेन्द्र योगास्तद्वत्सुदुर्बलाः।। | 12-306-16a 12-306-16b |
यथा च शकुनाः सूक्ष्मं प्राप्य जालमरिंदम। तत्र सक्ता विपद्यन्ते मुच्यन्ते च बलान्विताः।। | 12-306-17a 12-306-17b |
कर्मजैर्बन्धनैर्बद्धास्तद्वद्योगाः परंतप। अबला वै विनश्यन्ति मुच्यन्ते च बलान्विताः।। | 12-306-18a 12-306-18b |
अल्पकश्च यथा राजन्वह्निः शाम्यति दुर्बलः। आक्रान्त इन्धनैः स्थूलैस्तद्वद्योगो बलः प्रभो।। | 12-306-19a 12-306-19b |
स एव च यदा राजन्वह्निर्जातबलः पुनः। समीरणयुतः क्षिप्रं दहेत्कृत्स्नां महीमपि।। | 12-306-20a 12-306-20b |
तद्वज्जातबलो योगी दीप्ततेजा महाबलः। अन्तकाल इवादित्यः कृत्स्नं संशोषयेज्जगत्।। | 12-306-21a 12-306-21b |
दुर्बलश्च यथा राजन्स्रोतसा हियते नरः। बलहीनस्तथा योगो विषयैर्ह्रियतेऽवशः।। | 12-306-22a 12-306-22b |
तदेव च महास्रोतो विष्टम्भयति वारणः। तद्वद्योगबलं लब्ध्वा व्यूहते विषयान्बहून्।। | 12-306-23a 12-306-23b |
विशन्ति चावशाः पार्थ योगाद्योगबलान्विताः। प्रजापतीनृषीन्देवान्महाभूतानि चेश्वराः।। | 12-306-24a 12-306-24b |
न यमो नान्तकः क्रुद्धो न नृत्युर्भीमविक्रमः। ईशते नृपते सर्वे योगस्यामिततेजसः।। | 12-306-25a 12-306-25b |
आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ। योगः कुर्याद्बलं प्राप्य तैश्च सर्वैर्महीं चरेत्।। | 12-306-26a 12-306-26b |
प्राप्नुयाद्विषयान्कश्चित्पुनश्चोग्रं तपश्चरेत्। संक्षिपेच्च पुनस्तात सूर्यस्तेतोगुणानिव।। | 12-306-27a 12-306-27b |
बलस्थस्य हि योगस्य बन्धनेशस्य पार्थिव। विमोक्षे प्रभविष्णुत्वमुपपन्नमसंशयम्।। | 12-306-28a 12-306-28b |
बलानि योगप्राप्तानि मयैतानि विशांपते। निदर्शनार्थं सूक्ष्माणि वक्ष्यामि च पुनस्तव।। | 12-306-29a 12-306-29b |
आत्मनश्च समाधाने धारणां प्रति वा विभो। निदर्शनानि सूक्ष्माणि शृणु मे भरतर्षभ।। | 12-306-30a 12-306-30b |
अप्रमत्तो यथा धन्वी लक्ष्यं हन्ति समाहितः। युक्तः सम्यक्तथा योगी मोक्षं प्राप्नोत्यसशयम्।। | 12-306-31a 12-306-31b |
स्नेहपूर्णे यथा पात्रे मन आधाय निश्चलम्। पुरुषो युक्त आरोहेत्सोपानं युक्तमानसः।। | 12-306-32a 12-306-32b |
युक्तस्तथाऽयमात्मानं योगः षार्थिव निश्चलम्। करोत्यमलमात्मानं भास्करोपमदर्शनम्।। | 12-306-33a 12-306-33b |
यथा च नावं कौन्तेय कर्णधारः समाहितः। महार्णवगतां शीघ्रं नयेत्पार्थिव पत्तनम्।। | 12-306-34a 12-306-34b |
तद्वदात्मसमाधानं युक्त्वा योगेन तत्ववित्। दुर्गमं स्थानमाप्नोति हित्वा देहमिमं नृप।। | 12-306-35a 12-306-35b |
सारथिश्च यथा युक्त्वा सदश्वान्सुसमाहितः। देशमिष्टं नयत्याशु धन्विनं पुरुषर्षभ।। | 12-306-36a 12-306-36b |
तथैव नृपते योगी धारणासु समाहितः। प्राप्नोत्याशु परं स्थानं लक्षं मुक्त इवाशुगः।। | 12-306-37a 12-306-37b |
आवेश्यात्मनि चात्मानं योगी तिष्ठति योचलः। पापं हन्ति पुनीतानां पदमाप्नोति सोऽजरम्।। | 12-306-38a 12-306-38b |
नाभ्यां कण्ठे च शीर्षे च हृदि वक्षसि पार्श्वयोः। दर्शने श्रवणे चापि घ्राणे चामितविक्रम।। | 12-306-39a 12-306-39b |
स्थानेष्वेतेषु यो योगी महाव्रतसमाहितः। आत्मना सूक्ष्ममात्मानं युङ्क्ते सम्यग्विशांपते।। | 12-306-40a 12-306-40b |
स शीघ्रमचलप्रख्यं कर्म दग्ध्या शुभाशुभम्। उत्तमं योगमास्थाय यदीच्छति विमुच्यते।। | 12-306-41a 12-306-41b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-306-42x |
आहारान्कीदृशान्कृत्वा कानि जित्वा च भारत। योगी बलमवाप्नोति तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-306-42a 12-306-42b |
भीष्म उवाच। | 12-306-43x |
कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भारत। स्नेहानां वर्जने युक्तो योगी बलमवाप्नुयात्।। | 12-306-43a 12-306-43b |
भुञ्जानो यावकं रूक्षं दीर्घकालमरिंदम्। एकाहारो विशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्।। | 12-306-44a 12-306-44b |
पक्षान्मासानृतूंश्चैतान्संवत्सरानहस्तथा। अपः पीत्वा पयोमिश्रा योगी बलमवाप्नुयात्।। | 12-306-45a 12-306-45b |
अखण्डमपि वा मांसं सततं मनुजेश्वर। उपोष्य सम्यक्शुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात्।। | 12-306-46a 12-306-46b |
कामं जित्वा तथा क्रोधं शीतोष्णे वर्षमेव च। भयं शोकं तथा श्वासं पौरुषान्विषयांस्तथा।। | 12-306-47a 12-306-47b |
अरतिं दुर्जयां चैव घोरां तृष्णां च पार्थिव। स्पर्शं निद्रां तथा तन्द्रीं दुर्जयां नृपसत्तम।। | 12-306-48a 12-306-48b |
दीपयन्ति महात्मानः सूक्ष्ममात्मानमात्मना। वीतरागा महाप्रज्ञा ध्यानाध्ययनसंपदा।। | 12-306-49a 12-306-49b |
दुर्गस्त्वेप मतः पन्था ब्राह्मणानां विपश्चिताम्। न कश्चिद्व्रजति ह्यस्मिन्क्षेमेण भरतर्षभ।। | 12-306-50a 12-306-50b |
यथा कश्चिद्वनं घोरं बहुसर्पसरीसृपम्। श्वभ्रवत्तोयहीनं च दुर्गमं बहुकण्टकम्।। | 12-306-51a 12-306-51b |
अभक्षमटवीप्रायं दावदग्धमहीरुहम्। पन्थानं तस्कराकीर्णं क्षेमेणाभिपतेद्युवा।। | 12-306-52a 12-306-52b |
योगमार्गं तथाऽऽसाद्य यः कश्चिद्व्रजते द्विजः। क्षेमेणोपरमेन्मार्गाद्बहुदोषो हि स स्मृतः।। | 12-306-53a 12-306-53b |
सुस्थेयं क्षुरधारासु निशितासु महीपते। धारणासु तु योगस्य दुःस्थेयमकृतात्मभिः।। | 12-306-54a 12-306-54b |
विपन्ना धारणास्तात नयन्ति न शुभां गतिम्। नेतृहीना यथा नावः पुरुषानर्णवे नृप।। | 12-306-55a 12-306-55b |
यस्तु तिष्ठति कौन्तेय धारणासु यथाविधि। मरणं जन्म दुःखं च सुखं च स विमुञ्चति।। | 12-306-56a 12-306-56b |
नानाशास्त्रेषु निष्पन्नं योगेष्विदमुदाहृतम्। परं योगस्य यत्कृत्यं निश्चितं तद्द्विजातिषु।। | 12-306-57a 12-306-57b |
परं हि तद्ब्रह्ममयं महात्म न्ब्रह्माणमीशं वरदं च विष्णुम्। भवं च धर्मं च ष़डाननं च षट्ब्रह्मपुत्रांश्च महान्भावान्।। | 12-306-58a 12-306-58b 12-306-58c 12-306-58d |
तमश्च कष्टं सुमहद्रजश्च सत्वं विशुद्धं प्रकृतिं परां च। सिद्धिं च देवीं वरुणस्य पत्नीं तेजश्च कृत्स्नं सुमहच्च धैर्यम्।। | 12-306-59a 12-306-59b 12-306-59c 12-306-59d |
ताराधिपं खे विमलं सतारं विश्वांश्च देवानुरगान्पितृंश्च। शैलांश्च कृत्स्नानुदधींश्च घोरा न्नदीश्च सर्वाः सवनान्घनांश्च।। | 12-306-60a 12-306-60b 12-306-60c 12-306-60d |
नागान्नगान्यक्षगणान्दिशश्च गन्धर्वसंघान्पुरुषान्स्त्रियश्च। परात्परं प्राप्य महान्महात्मा विशेत योगी नचिराद्विमुक्तः।। | 12-306-61a 12-306-61b 12-306-61c 12-306-61d |
कथा च येयं नृपते प्रसक्ता देवे महावीर्यतमौ शुभेयम्। योगी स सर्वानभिभूय मर्त्या न्नारायणात्मा कुरुते महात्मा।। | 12-306-62a 12-306-62b 12-306-62c 12-306-62d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षडधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 306।। |
12-306-1 तव सर्वज्ञेति थ.ध. पाठः।। 12-306-2 कारणं हेतुः युक्तिरिति यावत्। स्वपक्षस्योद्भावनाय उत्कर्णाय कारणं श्रैठ्यमिति थ. पाठः।। 12-306-5 सांख्या वै मोक्षदर्शिन इति ध. पाठः।। 12-306-7 उभे चैते मते युक्ते इति ध. पाठः।। 12-306-9 भूतानां धारणं तुल्यमिति ध. पाठः।। 12-306-14 छित्त्वा योगाः परमिति ट. थ. पाठः।। 12-306-23 व्यूहते विक्षिपति तुच्छीकरोतीत्यर्थः।। 12-306-24 अवशाः स्वतन्त्राः।। 12-306-26 आत्मानं च सहस्राणीति ट. थ. पाठः। सौभर्यादिवद्युगपदनेकदेहधारणं योगिनां दृष्टमित्यर्थः।। 12-306-28 बन्धनेशस्य बन्धनं छेत्तुं समर्थस्य।। 12-306-29 बलानि योगे प्रोक्तानि इति ध. पाठः। मया उक्तानीति शेषः।। 12-306-32 पात्रे शिरसि धृते।। 12-306-33 योगी पार्थिव निश्चलमिति थ. पाठः।। 12-306-38 अवेक्ष्यात्मनीति झ. पाठः। जलं हन्तेव मीनानामिति ट. पाठः।। 12-306-44 एकारामो विशुद्धात्मेति ठ. ध. पाठः।। 12-306-45 ऋतूंश्चित्रान्संचरश्च गृहांस्तथेति ध. पाठः।। 12-306-51 बहुसंकटमिति ध. पाठः।। 12-306-52 अभक्तमटवीप्रायमिति ट. ध. पाठः।। 12-306-62 योगान्सर्वाननुभूयेह मर्त्य इति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-305 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-307 |