महाभारतम्-12-शांतिपर्व-071
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राजधर्मकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-71-1x |
कथं राजा प्रजा रक्षन्नाधिबन्धेन युज्यते। धर्मे च नापराध्नोति तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-71-1a 12-71-1b |
भीष्म उवाच। | 12-71-2x |
समासेनैव ते राजन्धर्मान्वक्ष्यामि शाश्वतान्। विस्तरेणैव धर्माणां न जात्वन्तमवाप्नुयात्।। | 12-71-2a 12-71-2b |
धर्मनिष्ठाञ्श्रुतवतो देवव्रतसमाहितान्। अर्चितान्वासयेथास्त्वं गृहे गुणवतो द्विजान्।। | 12-71-3a 12-71-3b |
प्रत्युत्थायोपसंगृह्य चरणावभिवाद्य च। अथ सर्वाणि कुर्वीथाः कार्याणि सपुरोहितः।। | 12-71-4a 12-71-4b |
धर्मकार्याणि निर्वर्त्य मङ्गलानि प्रयुज्य च। ब्राह्मणान्वाचयेथास्त्वमर्थसिद्धिजयाशिषः।। | 12-71-5a 12-71-5b |
आर्जवेन च संपन्नो धृत्या बुद्ध्या च भारत। धर्मार्थौ प्रतिगृह्णीयात्कामक्रोधौ च वर्जयेत्।। | 12-71-6a 12-71-6b |
कामक्रोधौ पुरस्कृत्य योऽर्थं राजाऽनुतिष्ठति। न स धर्मं न चाप्यर्थं प्रतिगृह्णाति बालिशः।। | 12-71-7a 12-71-7b |
मा स्म लुब्धांश्च मूर्खांश्च कामार्थे च प्रयूयुजः। अलुब्धान्बुद्धिसंपन्नान्सर्वकर्मसु योजयेत्।। | 12-71-8a 12-71-8b |
मूर्खो ह्यधिकृतोऽर्थेषु कार्याणामविशारदः। प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन कामक्रोधसमन्वितः।। | 12-71-9a 12-71-9b |
बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम्। शास्त्रानीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम्।। | 12-71-10a 12-71-10b |
दापयित्वा करं धर्म्यं राष्ट्रं नीत्या यथाविधि। तथैतं कल्पयेद्राजा योगक्षेममतन्द्रितः।। | 12-71-11a 12-71-11b |
गोपायितारं दातारं धर्मनित्यमतन्द्रितम्। अकामद्वेषसंयुक्तमनुरज्यन्ति मानवाः।। | 12-71-12a 12-71-12b |
तस्माद्धर्मेण लाभेन लिप्सेथास्त्वं धनागमम्। धर्मार्थावध्रुवौ तस्य यो न शास्त्रपरो भवेत्।। | 12-71-13a 12-71-13b |
अपशास्त्रधनो राजा संचयं नाधिगच्छति। अस्थाने चास्य तद्वित्तं सर्वमेव विनश्यति।। | 12-71-14a 12-71-14b |
अर्थमूलोऽपि हिंसां च कुरुते स्वयमात्मनः। करैरशास्त्रदृष्टैर्हि मोहात्संपीडयन्प्रजाः।। | 12-71-15a 12-71-15b |
ऊधश्छिन्द्यात्तु यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत्पयः। एवं राष्ट्रमयोगेन पीडितं न विवर्धते।। | 12-71-16a 12-71-16b |
`यवसोदकमादाय सान्त्वेन विनयेन च।' यो हि दोग्ध्रीमुपास्ते च स नित्यं विन्दते पयः। एवं राष्ट्रमुपायेन भुञ्जानो लभते फलम्।। | 12-71-17a 12-71-17b 12-71-17c |
अथ राष्ट्रमुपायेन भुज्यमानं सुरक्षितम्। जनयत्यतुलां नित्यं कोशवृद्धिं युधिष्ठिर।। | 12-71-18a 12-71-18b |
दोग्ध्री धान्यं हिरण्यं च मही राजा सुरक्षिता। नित्यं स्वेभ्यः परेभ्यश्च तृप्ता माता यथा पयः।। | 12-71-19a 12-71-19b |
मालाकारोपमो राजन्भव माऽऽङ्गारिकोपमः। तथायुक्तश्चिरं राज्यं भोक्तुं शक्ष्यसि पालयन्।। | 12-71-20a 12-71-20b |
परचक्राभियानेन यदि ते स्याद्धनक्षयः। अथ साम्नैव लिप्सेथा धनमब्राह्मणेषु यत्।। | 12-71-21a 12-71-21b |
मा स्म ते ब्राह्मणं दृष्ट्वा धनस्थं प्रचलेन्मनः। अन्त्यायामप्यवस्थायां किमु स्फीतस्य भारत।। | 12-71-22a 12-71-22b |
धनानि तेभ्यो दद्यास्त्वं यथाशक्ति यथार्हतः। सान्त्वयन्परिरक्षंश्च स्वर्गमाप्स्यसि दुर्जयम्।। | 12-71-23a 12-71-23b |
एवं धर्म्येण वृत्तेन प्रजास्त्वं परिपालय। स्वर्ग्यं पुण्यं यशो नित्यं प्राप्स्यसे कुरुनन्दन।। | 12-71-24a 12-71-24b |
धर्मेण व्यवहारेण प्रजाः पालय पाण्डव। युधिष्ठिर यथायुक्तो नाधिबन्धेन योक्ष्यसे।। | 12-71-25a 12-71-25b |
एष एव परो धर्मो यद्राजा रक्षति प्रजाः। भूतानां हि यदा धर्मो रक्षणं परमा दया।। | 12-71-26a 12-71-26b |
तस्मादेवं परं धर्मं मन्यन्ते धर्मकोविदाः। यो राजा रक्षणे युक्तो भूतेषु कुरुते दयाम्।। | 12-71-27a 12-71-27b |
यदह्ना कुरुते पापमरक्षन्भयतः प्रजाः। राजा वर्षसहस्रेण तस्यान्तमधिगच्छति।। | 12-71-28a 12-71-28b |
यदह्ना कुरुते धर्मं प्रजा धर्मेण पालयन्। दशवर्षसहस्राणि तस्य भुङ्क्ते फलं दिवि।। | 12-71-29a 12-71-29b |
स्विष्टिः स्वधीतिः सुतपा लोकाञ्जयति यावतः। क्षणेन तानवाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन्।। | 12-71-30a 12-71-30b |
एवं धर्मं प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालय। ततः पुण्यफलं लब्ध्वा नानुबन्धेन योक्ष्यसे।। | 12-71-31a 12-71-31b |
स्वर्गलोके सुमहतीं श्रियं प्राप्स्यसि पाण्डव। असंभवश्च धर्माणामीदृशानामराजसु।। | 12-71-32a 12-71-32b |
तस्माद्राजैव नान्योऽस्ति यो धर्मफलमाप्नुयात्। स राज्यं धृतिमान्प्राप्य धर्मेण परिपालय। इन्द्रं तर्पय सोमेन कामैश्च सुहृदो जनान्।। | 12-71-33a 12-71-33b 12-71-33c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71।। |
12-71-1 बह्वीनां प्रजानां परिपालन कथं स्यादिति चिन्ता आधिः स एव बन्धस्तेन न युज्यते।। 12-71-9 अयोगेन योग इष्टप्राप्ति स्तदभावेन।। 12-71-10 बली राजदेयं तदेव सस्यादेः षष्ठंशस्तेन बलिषष्ठेन। वेतनेन पथिरक्षितैर्वणिग्भिर्यद्दत्तं तद्राज्ञो वेतनं सेवाधनम्।। 12-71-11 धान्यादेः षष्ठांशे हृते शेषेण प्रजानां यदि वार्षिको ग्रासो न भवेत्तदा राजैव तासां योगक्षेमं कल्पयेदित्याह दापयित्वेति।। 12-71-19 दोग्ध्री पूरयित्री।। 12-71-20 आङ्गारिक इङ्गालकर्ता।। 12-71-25 यथायुक्त उक्तेन प्रकारेणाऽवहितः।। 12-71-27 यो दयां कुरुते तं धर्मं मन्यन्ते इति योजना।। 12-71-28 अन्तं यातनाभोगनिष्कृतिम्।। 12-71-30 स्विष्टिः स्वधीतिः सुतपा इति क्रमेण गृहस्थब्रह्मचारिवानप्रस्थधर्मान्सम्यगनुतिष्ठन्।।
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