महाभारतम्-12-शांतिपर्व-212
← शांतिपर्व-211 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-212 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-213 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शिष्याय गुरूक्तवार्ष्णेयाध्यात्मत्वानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-212-1x |
योगं मे परमं तात मोक्षस्य वदभारत। तमहं तत्त्वतो ज्ञातुमिच्छामि वदतांवर।। | 12-212-1a 12-212-1b |
`भूयोपि ज्ञानसद्भावे स्थित्यर्थं त्वां ब्रवीम्यहम्। अचिन्त्यं वासुदेवाख्यं तस्मात्प्रब्रूहि सत्तम।।' | 12-212-2a 12-212-2b |
भीष्म उवाच। | 12-212-3x |
अत्राप्युदाह न्तीममितिहासं पुरातनम्। संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह।। | 12-212-3a 12-212-3b |
कश्चिद्ब्राह्मणमासीनमाचार्यमृषिसत्तमम्। तेजोराशिं महात्मानं सत्यसन्धं जितेन्द्रियम्।। | 12-212-4a 12-212-4b |
शिष्यः परममेधावी श्रेयोर्थी सुसमाहितः। चरणावुपसंगृह्य स्थितः प्राञ्जलिरब्रवीत्।। | 12-212-5a 12-212-5b |
उपासनात्प्रसन्नोऽसि यदि वै भगवन्मम। संशयो मे महान्कश्चित्तं मे व्याख्यातुमर्हसि। कुतश्चाहं कुतश्च त्वं तत्सम्यग्ब्रूहि यत्परम्।। | 12-212-6a 12-212-6b 12-212-6c |
कथं च सर्वभूतेषु समेषु द्विजसत्तम। सम्यग्वृत्ता निवर्तन्ते विपरीताः क्षयोदयाः।। | 12-212-7a 12-212-7b |
वेदेषु चापि यद्वाक्यं लौकिकं व्यापकं च यत्। एतद्विद्वन्यथातत्त्वं सर्वं व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-212-8a 12-212-8b |
गुरुरुवाच। | 12-212-9x |
शृणु शिष्य महाप्राज्ञ ब्रह्मगुह्यमिदं परम्। अध्यात्मं सर्वभूतानामागमानां च यद्वसु।। | 12-212-9a 12-212-9b |
वासुदेवः सर्वमिदं विश्वस्य ब्रह्मणो सुखम्। सत्यं दानं तपो यज्ञस्तितिक्षा दम आर्जवम्।। | 12-212-10a 12-212-10b |
पुरुषं सनातनं विष्णुं यं तं वेदविदो विदुः। सर्गप्रलयकर्तारमव्यक्तं ब्रह्म शाश्वतम्।। | 12-212-11a 12-212-11b |
तदिदं ब्रह्म वार्ष्णोयमितिहासं शृणुष्व मे। ब्राह्मणो ब्राह्मणैः श्राव्यो राजन्यः क्षत्रियैस्तता।। | 12-212-12a 12-212-12b |
[वैश्यो वैश्यैस्तथा श्राव्यः शूद्रः शूद्रैर्महामनाः।] माहात्म्यं देवदेवस्य विष्णोरमिततेजसः।। | 12-212-13a 12-212-13b |
अर्हस्त्वमसि कल्याणं वार्ष्णेयाध्यात्ममुत्तमम्।। | 12-212-14a |
`यमच्युतं परं नित्यं लिङ्गहीनं च निर्मलम्। निर्वाणममृतं श्रीमत्तद्विष्णोः परमं पदम्।। | 12-212-15a 12-212-15b |
भवे च भेदवद्भिन्नं प्रदानं गुणकारकम्। तस्मिन्न सज्यते नित्यं स एष पुरुषोऽपरः।। | 12-212-16a 12-212-16b |
पुरुषाधिष्ठितं नित्यं प्रधानं ब्रह्म कारणम्। कालस्वरूपं रूपेण विष्णुना प्रभविष्णुना।। | 12-212-17a 12-212-17b |
क्षोभ्यमाणं सृजत्येव नानाभूतानि भागशः। तद्दृष्ट्वा पुरुषोतत्वं साक्षीभूत्वा प्रवर्तते। तत्प्रविश्य यथायोगमभिन्नो भिन्नलक्षणः।।' | 12-212-18a 12-212-18b 12-212-18c |
कालचक्रमनाद्यन्तं भावाभावस्वलक्षणम्। त्रैलोक्ये सर्वभूतेषु चक्रवत्परिवर्तते।। | 12-212-19a 12-212-19b |
यत्तदक्षरमव्यक्तममृतं ब्रह्म शाश्वतम्। वदन्ति पुरुषव्याघ्र केशवं पुरुषर्षभम्।। | 12-212-20a 12-212-20b |
`तदक्षरमचिन्त्यं वै भिन्नरूपेण दृश्यते। पश्य कालाख्यमनिशं न चोष्णं नातिशीतलम्।। | 12-212-21a 12-212-21b |
न सन्त्येते गुणास्तस्मिंतथा तस्मात्प्रवर्तते। शीतलोऽयमनुप्राप्तः कालो ग्रीष्मस्तथैव च।। | 12-212-22a 12-212-22b |
वक्ष्यन्ति सर्वभूतानि ह्येते सूर्योदयं प्रति। आगच्छन्ति निवर्तन्ति स कालो गुणराशयः।। | 12-212-23a 12-212-23b |
न चैव प्रकृतिस्थेन कालयुक्तेन नित्यशः। गुणैः संभोगमरतिस्तत्वविज्ञानकोविदम्। पुरुषाधिष्ठिता नित्यं प्रकृतिः सूयते परा।।' | 12-212-24a 12-212-24b 12-212-24c |
पितॄन्देवानृषींश्चैव तथा वै यक्षराक्षसान्। नागासुरमनुष्यांश्च सृजते मनसाऽव्ययः।। | 12-212-25a 12-212-25b |
तथैव वेदशास्त्राणि लोकधर्मांश्च शाश्वतान्। प्रलये प्रकृतिं यातान्युगादौ सृजते पुनः।। | 12-212-26a 12-212-26b |
यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये। दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु।। | 12-212-27a 12-212-27b |
अथ यद्यद्यदा भावि कालयोगाद्युगादिषु। तत्तदुत्पद्यते ज्ञानं लोकयात्राविधानजम्।। | 12-212-28a 12-212-28b |
`श्रुतिरेषा समाख्याता तदर्थं कारणात्मना। अनाम्नायविधानाद्वै वेदा ह्यन्तर्हिता यथा।।' | 12-212-29a 12-212-29b |
युगान्ते ह्यस्तभूतानि शास्त्राणि विविधानि च। सर्वसत्वविना द्वै जीवात्मनित्यया स्मृताः। अन्यस्मिन्नण्डसद्भावे वर्तमानानि नित्यशः।। | 12-212-30a 12-212-30b 12-212-30c |
युगान्तेऽन्तर्हितान्वेदान्सेतिहासान्महर्षयः। लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा।। | 12-212-31a 12-212-31b |
`नियोगाद्ब्रह्मणो विप्रा लोकतन्त्रप्रवर्तकाः।' वेदविद्भगवान्ब्रह्मा वेदाङ्गानि बृहस्पतिः। भार्गवो नीतिशास्त्रं तु जगाद जगतो हितम्।। | 12-212-32a 12-212-32b 12-212-32c |
गान्धर्वं नारदो वेद भरद्वाजो धनुर्ग्रहम्। देवर्षिचरितं गर्गो कृष्णात्रेयश्चिकित्सितम्।। | 12-212-33a 12-212-33b |
`न्यायतन्त्रं हि कार्त्स्न्येन गौतमो वेद तत्वतः। वेदान्तकर्मायोगं च वेदविद्ब्रह्मविद्विभुः। द्वैपायनो निजग्राह शिल्पशास्त्रं भृगुः पुनः।। | 12-212-34a 12-212-34b 12-212-34c |
न्यायतन्त्राण्यनेकानि तस्तैरुक्तानि वादिभिः। हेत्वागमसदाचारैर्यदुक्तं तदुपास्यते।। | 12-212-35a 12-212-35b |
अनाद्यं तत्परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः। एकस्तद्वेद भगवान्धाता नारायणः प्रभुः।। | 12-212-36a 12-212-36b |
नारायणादृषिगणास्तथा मुख्याः सुरासुराः। राजर्षयः पुराणाश्च परमं दुःखभेषडम्। `वक्ष्येऽहं तव यत्प्राप्तमृषेद्वैपोयनान्मया।।' | 12-212-37a 12-212-37b 12-212-37c |
पुरुषाधिष्ठितान्भावान्प्रकृतिः सूयते यदा। हेतुयुक्तमतः पूर्वं जगत्संपरिवर्तते।। | 12-212-38a 12-212-38b |
दीपादन्ये यथा दीपाः प्रवर्तन्ते सहस्रशः। प्रकृतिः सूयते सद्वदानन्त्यान्नापचीयते।। | 12-212-39a 12-212-39b |
अव्यक्तकर्मजा बुद्धिरहंकारं प्रसूयते। आकाशं चाप्यहंकाराद्वायुराकाशसंभवः।। | 12-212-40a 12-212-40b |
वायोस्तेजस्ततश्चाप अद्भ्योऽथ वसुधोद्गता। मूलप्रकृतयो ह्यष्टौ जगदेतास्ववस्थितम्।। | 12-212-41a 12-212-41b |
ज्ञानेन्द्रियाण्यतः पञ्च पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यपि। विषयाः पञ्च चैकं च विकाराः षोडशं मनः।। | 12-212-42a 12-212-42b |
श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा घ्राणं ज्ञानेन्द्रियाण्यश्च। पादौ पायुरुपस्थश्च हस्तौ वाक्कर्मणी अपि।। | 12-212-43a 12-212-43b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च। विज्ञेयं व्यापकं चित्तं तेषु सर्वगतं मनः।। | 12-212-44a 12-212-44b |
`बुद्धीन्द्रियार्था इत्युक्ता दशसंसर्गयोनयः। सदसद्भावयोगे च मन इत्यभिधीयते।। | 12-212-45a 12-212-45b |
व्यवसायगुणा बुद्धिरहंकारोऽभिमानकः। न बीजं देहयोगे च कर्मबीजप्रवर्तनात्।।' | 12-212-46a 12-212-46b |
रसज्ञाने तु जिह्वेयं व्याहृते वाक्यथैव च। इन्द्रियैर्विविधैर्युक्तं सर्वैर्व्यतं मनस्तथा।। | 12-212-47a 12-212-47b |
विद्यात्तु षोडशैतानि दैवतानि विभागशः। देहेषु ज्ञानकर्तारमुपासीनमुपासते।। | 12-212-48a 12-212-48b |
तत्र सोमगुणा जिह्वा गन्धस्तु पृथिवीगुणः। श्रोत्रे शब्दगुणे चैव चक्षुरग्नेर्गुणस्तथा। स्पर्शं वायुगुणं विद्यात्सर्वभूतेषु सर्वदा।। | 12-212-49a 12-212-49b 12-212-49c |
मनः सत्वगुणं प्राहु सत्वमव्यक्तजं तथा। सर्वभूतात्मभूतस्थं तस्माद्बुद्ध्येत बुद्धिमान्।। | 12-212-50a 12-212-50b |
एते भावा जगत्सर्वं बहन्ति सचराचरम्। श्रिता विरजसं देवं यमाहुः परमं पदम्।। | 12-212-51a 12-212-51b |
नवद्वारं पुरं पुण्यमेतैर्भावैः स्मन्वितम्। व्याप्य शेते महानात्मा तस्मात्पुरुष उच्यते।। | 12-212-52a 12-212-52b |
अजरश्चामरश्चैव व्यक्ताव्यक्तोपदेशवान्। व्यापकः सगुणः सूक्ष्मः सर्वभूतगुणाश्रयः।। | 12-212-53a 12-212-53b |
यथा दीपः प्रकाशात्मा ह्रस्वो वा यदि वा महान्। ज्ञानात्मानं तथा विद्यात्पुरुषं सर्वजन्तुषु।। | 12-212-54a 12-212-54b |
श्रोत्रं वेदयते वेद्यं स शृणोति स पश्यति। कारणं तस्य देहोऽयं स कर्ता सर्वकर्मणाम्।। | 12-212-55a 12-212-55b |
अग्निर्दारुगतो यद्वद्भिन्ने दारौ न दृश्यते। तथैवात्मा शरीरस्थ ऋते योगान्न दृश्यते।। | 12-212-56a 12-212-56b |
अग्निर्यथा ह्युपायेन मथित्वा दारु दृश्यते। तथैवात्मा शरीरस्थो योगेनैवात्र दृश्यते।। | 12-212-57a 12-212-57b |
नदीष्वापो यथा युक्ता यथा सूर्ये मरीचयः। संतन्वाना यथा यान्ति तथा देहाः शरीरिणाम्।। | 12-212-58a 12-212-58b |
स्वप्नयोगे यथैवात्मा पञ्चेन्द्रियसमायुतः। देहमुत्सृज्य वै याति तथैवात्मोपलभ्यते।। | 12-212-59a 12-212-59b |
कर्मणा व्याप्यते सर्वं कर्मणैवोपपद्यते। कर्मणा नीयतेऽन्यत्र स्वकृतेन बलीयसा।। | 12-212-60a 12-212-60b |
स तु देहाद्यथा देहं त्यक्त्वाऽन्यं प्रतिपद्यते। तथा तं संप्रवक्ष्यामि भूतग्रामं स्वकर्मजम्।। | 12-212-61a 12-212-61b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 212।। |
12-212-7,8 भूतेषु पञ्चसूपादानकारणेषु समेषु सत्सु विपरीता विषमाः कथं क्षयोदया निवर्तन्ते नितरां वर्तन्ते। वेदेषु यद्वाक्यं वर्णधर्मव्यवस्थापरं, लौकिकं स्मृतिवाक्यं तादृशं व्यापकं सर्ववर्णा श्रमसाधारणं इदमपि कथम्। हेतुसाम्येऽपि कार्यवैषम्ये किं बीजं तद्ब्रहीत्यर्थः। श्लोकद्वयमेकं वाक्यम्।। 12-212-9 ब्रह्म गुह्य वेदगोप्यम्। वसु धनं तद्वद्रक्षणीयमुपकारकं वा।। 12-212-10 ब्रह्मणो मुखं वेदादिः प्रणवः। उपायोपेययोरभेदात्प्रणवादीनां वासुदेवत्वम्।। 12-212-11 उपेयस्वरूपमाह पुरुषमिति।। 12-212-12 एतदेवायं कृष्ण इत्याह तदिति। वार्ष्णेयं वृष्णिषु कृतावतारम्। इतिहासं तत्स्वरूपप्रकाशनपरं ग्रन्थम्। राजन्यः क्षत्रियस्तथेति ड. पाठः।। 12-212-27 भावाभावौ सृष्टिप्रलयौ स्वलक्षणं स्वरूपज्ञापकौ यस्य। प्रत्यब्दं यथा वसन्तादिष्वाम्रादयो नियमेन पुष्पिता भवन्त्येवं ब्रह्महरविष्णुषु प्रतिकल्पं सृष्टिप्रलयस्थितिकर्तृत्वं तदातद आविर्भवति। तथा ब्रह्महरादिषु इति ट. पाठः। ब्रह्मापरादिष्विति ड. पाठः। ब्रह्माक्षरादिष्विति ध. पाठः।। 12-212-31 अनुज्ञाता उपदिष्टाः। स्वयंभुवा ब्रह्मणा।। 12-212-33 दत्तात्रेयश्चिकित्सितमिति ट. ड. पाठः।। 12-212-35 हेतुर्युक्तिः। आगमो वेदः। सदाचारः प्रत्यक्षम्। तैः प्रमाणैः।। 12-212-36 अनाद्यं नास्ति आद्यं कारणं यस्य तत्।। 12-212-42 शब्दादिविषयाः पञ्च विकाराः इति थ.पाठः।। 12-212-43 वाक्कर्मणामपि इति थ. पाठः।। 12-212-48 ज्ञानकर्तार उदासीनमुपासते इति ध. पाठः।। 12-212-49 श्रोत्रं नभोगुणं चैव इति झ. पाठः।। 12-212-50 ईश्वरस्तत्स्थमुपाधित्वेन तत्र स्थितं सर्वान्तरङ्गं सत्त्वं जानीयात्। सत्त्वविशिष्टस्य ज्ञेयत्वेऽपि विद्विवेके परिशेषादचितः सत्वस्यैव ज्ञेयत्वमस्तीति सत्वमेव बुद्भ्येतेत्युक्तम्।। 12-212-51 यमादुः प्रकृतेः परमिति झ. पाठः।। 12-212-52 व्यापकः स गुणैः सूक्ष्मः इति थ. पाठः।। 12-212-55 भेदेनैवात्र दृश्यते इति ट. थ. पाठः। शरीरस्थो योगेनैवानुदृश्यते इति झ. पाठः।। 12-212-57 संततत्वाद्यथा यान्ति इति झ. पाठः।। 12-212-59 कर्मणा जायते पूर्वं इति ट. पाठः। कर्मणा बाध्यते रूपं इति पाठः।।
शांतिपर्व-211 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-213 |