महाभारतम्-12-शांतिपर्व-268
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तुलाधारेण जाजलये धर्मरहस्योपदेशः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-268-1x |
इत्युक्तः स तदा तेन तुलाधारेण धीमता। प्रोवाच वचनं धीमाञ्जाजलिर्जपतांवरः।। | 12-268-1a 12-268-1b |
जाजलिरुवाच। | 12-268-2x |
विक्रीणतः सर्वरसान्सर्वगन्धांश्च वाणिज। वनस्पतीनोषधीश्च तेषां मूलफलानि च।। | 12-268-2a 12-268-2b |
अग्र्या सा नैष्ठिकी बुद्धिः कुतस्त्वामियमागता। एतदाचक्ष्व मे सर्वं निखिलेन महामते।। | 12-268-3a 12-268-3b |
भीष्म उवाच। | 12-268-4x |
एवमुक्तस्तुलाधारो ब्राह्मणेन यशस्विना। उवाच धर्मसूक्ष्माणि वैश्यो धर्मार्थतत्त्ववित्।। | 12-268-4a 12-268-4b |
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्। सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।। | 12-268-5a 12-268-5b |
अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। या वृत्तिः स परो धर्मस्तेन जीवामि जाजले।। | 12-268-6a 12-268-6b |
परिच्छिन्नैः काष्ठतृणैर्मयेदं शरणं कृतम्। अलक्तं पद्मकं तुङ्गं गन्धांश्चोच्चावचांस्तथा।। | 12-268-7a 12-268-7b |
रसांश्च तांस्तान्विप्रर्षे मद्यवर्ज्यान्बहूनहम्। क्रीत्वा वै प्रतिविक्रीणे परहस्तादमायया।। | 12-268-8a 12-268-8b |
सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः। कर्मणा मनसा वाचा स धर्मं वेद जाजले।। | 12-268-9a 12-268-9b |
नानुरुध्ये विरुध्ये वा न द्वेष्मि न च कामये। समोऽहं सर्वभूतेषु पश्य मे जाजले व्रतम्। तुला मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले।। | 12-268-10a 12-268-10b 12-268-10c |
नाहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये। आकाशस्येव विप्रेन्द्र पश्यँल्लोकस्य चित्रताम्।। | 12-268-11a 12-268-11b |
`कृपा मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले। इष्टानिष्टनियुक्तस्य प्रियद्वेषौ बहिष्कृतौ।।' | 12-268-12a 12-268-12b |
इति मां त्वं विजानीहि सर्वलोकस्य जाजले। समं मतिमतां श्रेष्ठ समलोष्टाश्मकाञ्चनम्।। | 12-268-13a 12-268-13b |
यथाऽन्धबधिरोत्मत्ता उच्छ्वासपरमाः सदा। देवैरपिहितद्वाराः सोपमा पश्यतो मम।। | 12-268-14a 12-268-14b |
यथा वृद्धातुरकृशा निस्पृहा विषयान्प्रति। तथाऽर्थकामभोगेषु ममापि विगता स्पृहा।। | 12-268-15a 12-268-15b |
यदा चायं न बिभेति यदा चास्मान्न बिभ्यति। यदा नेच्छति न द्वेष्टि तदा सिद्ध्यति वै द्विज।। | 12-268-16a 12-268-16b |
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम्। कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-268-17a 12-268-17b |
न भूतो न भविष्योऽस्ति न च धर्मोस्ति कश्चन। योऽभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम्।। | 12-268-18a 12-268-18b |
यस्मादुद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव। वाक्क्रूराद्दण्डपरुषात्स प्राप्नोति महद्भयम्।। | 12-268-19a 12-268-19b |
यथावद्वर्तमानानां वृद्धानां पुत्रपौत्रिणाम्। अनुवर्तामहे वृत्तमहिंस्त्राणां महात्मनाम्।। | 12-268-20a 12-268-20b |
प्रनष्टः शाश्वतो धर्मः सदाचारेण मोहितः। तेन वैद्यस्तपस्वी वा बलवान्वा विमुह्यते।। | 12-268-21a 12-268-21b |
आचाराज्जाजले प्राज्ञः क्षिप्रं धर्ममवाप्नुयात्। एवं यः साधुभिर्दान्तश्चरेदद्रोहचेतसा।। | 12-268-22a 12-268-22b |
नद्यां चेह यथा काष्ठमुह्यमानं यदृच्छया। यदृच्छयैव काष्ठेन सन्धि गच्छेत केनचित्।। | 12-268-23a 12-268-23b |
तत्रापराणि दारूणि संसृज्यन्ते ततस्ततः। तृणकाष्ठकरीपाणि कदाचिन्न समीक्षया।। | 12-268-24a 12-268-24b |
यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंचन। अभयं सर्वभूतेभ्यः स प्राप्नोति सदा मुने।। | 12-268-25a 12-268-25b |
यस्मादुद्विजते विद्वन्सर्वलोको वृकादिव। क्रोशतस्तीरमासाद्य यथा सर्वे जलेचराः।। | 12-268-26a 12-268-26b |
एवमेवायमाचारः प्रादुर्भूतो यतस्ततः। सहायवान्द्रव्यवान्यः सुभगोऽथ परस्तथा।। | 12-268-27a 12-268-27b |
ततस्तानेव कवयः शास्त्रेषु प्रवदन्त्युत। कीर्त्यर्थमल्पहृल्लेखाः पटवः कृत्स्ननिर्णयाः।। | 12-268-28a 12-268-28b |
तपोभिर्यज्ञदानैश्च वाक्यैः प्रज्ञाश्रितैस्तथा। प्राप्नोत्यभयदानस्य यद्यत्फलमिहाश्नुते।। | 12-268-29a 12-268-29b |
लोके यः सर्वभूतेभ्यो ददात्यभयदक्षिणाम्। स सत्ययज्ञैरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम्।। | 12-268-30a 12-268-30b |
न भूतानामहिंसाया ज्यायान्धर्मोऽस्ति कश्चन। यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित्कथंचन। सोऽभयं सर्वभूतेभ्यः संप्राप्नोति महामुने।। | 12-268-31a 12-268-31b 12-268-31c |
यस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद्वेश्मगतादिव। न स धर्ममवाप्नोति इह लोके परत्र च।। | 12-268-32a 12-268-32b |
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः। देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति ह्यपदस्य पदैपिणः।। | 12-268-33a 12-268-33b |
दानं भूताभयस्याहुः सर्वदानेभ्य उत्तमम्। ब्रवीमि ते सत्यमिदं श्रद्धत्स्व मम जाजले।। | 12-268-34a 12-268-34b |
स एव सुभगो भूत्वा पुनर्भवति दुर्भगः। व्यापत्तिं कर्मणां दृष्ट्वा जुगुप्सन्ति जनाः सदा।। | 12-268-35a 12-268-35b |
अकारणो हि नैवास्ति धर्मः सूक्ष्मो हि जाजले। भूतभव्यार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम्।। | 12-268-36a 12-268-36b |
सूक्ष्मत्वान्न स विज्ञातुं शक्यते बहुनिह्नवः। उपलभ्यान्तरा चान्यानाचारानवबुध्यते।। | 12-268-37a 12-268-37b |
ये च च्छिन्दन्ति वृषणान्ये च भिन्दन्ति नस्तकान्। वहन्ति महतो भारान्बध्नन्ति दमयन्ति च। हत्वा सत्वानि खादन्ति तान्कथं न विगर्हसे।। | 12-268-38a 12-268-38b 12-268-38c |
मानुषा मानुपानेव दासभोगेन भुञ्जते। वधबन्धनिरोधेन कारयन्ति दिवानिशम्।। | 12-268-39a 12-268-39b |
आत्मनश्चापि जानाति यद्दुःखं वधबन्धने। पञ्चेन्द्रियेषु भूतेषु सर्वं वसति दैवतम्।। | 12-268-40a 12-268-40b |
आदित्यश्चन्द्रमा वायुर्ब्रह्मा प्राणः क्रतुर्यमः। तानि जीवानि विक्रीय का मृतेषु विचारणा।। | 12-268-41a 12-268-41b |
अजोऽग्निर्वरुणो मेपः सूर्योऽश्वः पृथिवी विराट्। धेनुर्वत्सश्च सोमो वै विक्रीयैतन्न सिध्यति।। | 12-268-42a 12-268-42b |
का तैले का धृते ब्रह्मन्मधुन्यप्स्वोषधीषु वा।। | 12-268-43a |
अदंशमशके देशे सुखसंवर्धितान्पशून्। तांश्च मातुः प्रियाञ्जानन्नाक्रम्य बहुधा नराः।। | 12-268-44a 12-268-44b |
बहुदंशाकुलान्देशान्नयन्ति बहुकर्दमान्। वाहसंपीडिता धुर्याः सीदन्त्यविधिना परे।। | 12-268-45a 12-268-45b |
न मन्ये भ्रूणहत्याऽपि विशिष्टा तेन कर्मणा। कृपिं साध्विति मन्यन्ते सा च वृत्तिः सुदारुणा।। | 12-268-46a 12-268-46b |
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठैरयोमुखैः। तथैवानडुहो युक्तान्क्षुत्तृष्णाश्रमकर्शितान्।। | 12-268-47a 12-268-47b |
अध्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति। महच्चकाराकुशलं वृथा यो गां निहन्ति ह।। | 12-268-48a 12-268-48b |
ऋपयो यतयो ह्येतन्नहुपे प्रत्यवेदयन्। गां मातरं चाप्यवधीर्वृपभं च प्रजापतिम्। अकार्यं नहुपाकापींर्लप्स्यामस्त्वत्कृते व्यथाम्।। | 12-268-49a 12-268-49b 12-268-49c |
शतं चैकं च रोगाणां सर्वभूतेष्वपातयन्। ऋपयस्ते महाभागाः प्रशस्तास्ते च जाजले।। | 12-268-50a 12-268-50b |
भ्रृणहं नहुषं त्वाहुर्न तं भोक्ष्यामहे वयम्। इत्युक्त्वा ते महात्मानः सर्वे तत्त्वार्थदर्शिनः। ऋषयो यतयः शान्तास्तपसा प्रत्येषधयन्।। | 12-268-51a 12-268-51b 12-268-51c |
ईदृशानशिवान्घोरानाचारानिह जाजले। केवलाचरितत्वात्तु निपुणो नावबुध्यसे।। | 12-268-52a 12-268-52b |
कारणाद्धर्ममन्विच्छन्न लोकं विरसं चरेत्।। | 12-268-53a |
यो हन्याद्यश्च मां स्तौति तत्रापि शृणु जाजले। समौ तावपि मे स्थातां न हि मे स्तः प्रियाप्रिये। एतदीदृशकं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः।। | 12-268-54a 12-268-54b 12-268-54c |
उपपत्त्या हि संपन्नो यतिभिश्चैव सेव्यते। सततं धर्मशीलैश्च निपुणेनोपलक्षितः।। | 12-268-55a 12-268-55b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 268।। |
12-268-2 वाणिज वणिक्पुत्र।। 12-268-3 अध्यगा नैष्ठकीं बुद्धिं कुतस्त्वामिदमागतमिति झ. पाठः।। 12-268-7 पद्मकं तुङ्गं च काष्ठविशेषौ। कस्तूर्यादीन्गन्धान्।। 12-268-8 रसान् लवणादीन्।। 12-268-16 न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदेति झ. पाठः।। 12-268-26 दृष्टान्ते वडवाग्निः।। 12-268-33 सम्यग्भृतानि पश्यत इति ध. पाठः।। 12-268-35 व्यापत्ति नाशम्। कर्मणां कर्मफलानां स्वर्गादीनाम्।। 12-268-36 अकारणः कारणमनुष्ठानप्रयोजकं फलं तद्धीनः।। 12-268-38 यदुक्तमलक्तपद्मकादीन्यपण्यानि विक्रीणासीति तत्राह येचेति। नस्तकान् नासागर्भान्। वहन्ति वाहयन्ति।। 12-268-39 दासभावेन भुञ्जते इति झ. पाठः।। 12-268-45 अविधिना कत्वर्थापि हिंसा दोपावहा किमुताऽकत्वर्थेत्यर्थः।। 12-268-47 भूमिशयान्सर्पादीन्। अयोमुखं काष्ठं लाङ्गलम्।। 12-268-48 न हन्तुं शक्या अध्न्या इति योगाद्गवमावध्यत्वं श्रौतमित्यर्थः।। 12-268-50 नहुपकृता गोवृपहत्या सर्वभूतेष्वेकाधिकशतरोगरूपेण क्षिप्तत्यर्थः।। 12-268-51 एवमुक्त्वापि तपसा ध्यानेन तं प्रत्यवेदयन् प्रतीपमवेदयन्। हन्तारमपि धीपूर्वमहन्तारं नहुपं ध्यानबलेन ज्ञात्वा तथैव लोकेऽपि प्रमादात्कृतोऽपि गोवधो व्याधिरूपेण सर्वलोकापकारायाभृत किमुत बुद्धिपूर्वं कुत इति ज्ञापितवन्त इत्यर्थः।। 12-268-52 केवलेति पूर्वैः कृत इत्यन्धपरंपरामात्रात्करोपि नतु तत्त्वबुद्ध्या।।
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