महाभारतम्-12-शांतिपर्व-017
दिखावट
← शांतिपर्व-016 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-017 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-018 → |
भीमप्रति युधिष्ठिरवचनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-17-1x |
असंतोषः प्रमादश्च मदो रागोऽप्रशान्तता। बलं मोहोऽभिमानश्चाप्युद्वेगश्चैव सर्वशः।। | 12-17-1a 12-17-1b |
एभिः पाप्मभिराविष्टो राज्यं त्वमभिकाङ्क्षसे। निरामिषो विनिर्मुक्तः प्रशान्तः सुसुखी भव।। | 12-17-2a 12-17-2b |
य इमामखिलां भूमिं शिष्यादेको महीपतिः। तस्याप्युदरमेकं वै किमिदं त्वं प्रशंससि।। | 12-17-3a 12-17-3b |
नाह्ना पूरयितुं शक्यां न मासैर्भरतर्षभ। अपूर्यां पूरयन्निच्छामायुषाऽपि न शक्नुयात्।। | 12-17-4a 12-17-4b |
यथेद्धः प्रज्वलत्यग्निरसमिद्धः प्रशाम्यति। अल्पाहारतयाग्निं त्वं शमयौदर्यमुत्थितम्।। | 12-17-5a 12-17-5b |
आत्मोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विशसं बहु। जयोदरं पृथिव्या ते श्रेयो निर्जितया जितम्।। | 12-17-6a 12-17-6b |
मानुषान्कामभोगांस्त्वमैश्वर्यं च प्रशंससि। अभोगिनोऽबलाश्चैव यान्ति स्थानमनुत्तमम्।। | 12-17-7a 12-17-7b |
योगः क्षेमश्च राष्ट्रस्य धर्माधर्मौ त्वयि स्थितौ। मुच्यस्व महतो भारात्त्यागमेवाभिसंश्रय।। | 12-17-8a 12-17-8b |
एकोदरकृते व्याघ्रः करोति विशसं बहु। तमन्येऽप्युपजीवन्ति मन्दवेगतरा मृगाः।। | 12-17-9a 12-17-9b |
विषयान्प्रतिसंगृह्य संन्यासे कुरुते मतिम्। न च तुष्यन्ति राजानः पश्य बुद्ध्यन्तरं यथा।। | 12-17-10a 12-17-10b |
पत्राहारैरश्मकुट्टैर्दन्तोलूखलिकैस्तथा। अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च तेरयं नरको जितः।। | 12-17-11a 12-17-11b |
यस्त्विमां वसुधां कृत्स्नां प्रशासेदखिलां नृपः। तुल्याश्मकाञ्चनो यश्च स कृतार्थो न पार्थिवः।। | 12-17-12a 12-17-12b |
संकल्पेषु निरारम्भो निराशीर्निर्ममो भव। अशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाव्ययम्।। | 12-17-13a 12-17-13b |
निरामिषा न शोचन्ति शोचन्ति त्वामिषैषिणः। परित्यज्यामिषं सर्वं मृषावादात्प्रमोक्ष्यसे।। | 12-17-14a 12-17-14b |
पन्थानौ पितृयानश्च देवयानश्च विश्रुतौ। ईजानाः पितृयानेन देवयानेन मोक्षिणः।। | 12-17-15a 12-17-15b |
तपसा ब्रह्मर्येण स्वाध्यायेन महर्षयः। विमुच्य देहांस्ते यान्ति मृत्योरविषयं गताः।। | 12-17-16a 12-17-16b |
आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथाऽऽमिषम्। ताभ्यां विमुक्तः पापाभ्यां पदमाप्नोति तत्परम्।। | 12-17-17a 12-17-17b |
अपि गाथां पुरा गीतां जनकेन वदन्त्युत। निर्द्वन्द्वेन विमुक्तेन मोक्षं समनुपश्यता।। | 12-17-18a 12-17-18b |
अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन। मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचित्प्रदह्यते।। | 12-17-19a 12-17-19b |
प्रज्ञाप्रासादमारुह्य न शोचेच्छोचतो जनान्। जगतीस्थोऽथवाऽद्रिस्थो मन्दबुद्धिर्नचेक्षते।। | 12-17-20a 12-17-20b |
दृश्यं पश्यति यः पश्यन्स चक्षुष्मान्स बुद्धिमान्। अज्ञातानां च विज्ञानात्संबोधाद्रुद्धिरुच्यते।। | 12-17-21a 12-17-21b |
यस्तु मानं विजानाति बहुमानमियात्स वै। ब्रह्मभावप्रभूतानां वैद्यानां भावितात्मनाम्।। | 12-17-22a 12-17-22b |
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति। तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-17-23a 12-17-23b |
ते जनास्तां गतिं यान्ति नाविद्वांसोऽल्पचेतसः। नाबुद्धयो नातपसः सर्वं बुद्धौ प्रतिष्ठितम्।। | 12-17-24a 12-17-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः।। 17।। |
12-17-5 इद्धः प्रदीप्तः।। 12-17-6 विशसं विशसनम्।। 12-17-7 अबलास्तपःकृशाः।। 12-17-8 अलब्धलाभो योगः। लब्धसंरक्षणं क्षेमः।। 12-17-21 दृश्यं द्रष्टुं योग्यं कर्तव्यमकर्तव्यं च।। 12-17-22 यस्तु वाचं विजानातीति झ. पाठः।। 12-17-24 ते बुद्धिमन्तः।।
शांतिपर्व-016 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-018 |