महाभारतम्-12-शांतिपर्व-073
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पुरोहितलक्षणादिवर्णनम्। ऐलकश्यपसंवादानुवादश्च।। 1।।
` युधिष्ठिर उवाच। | 12-73-1x |
राज्ञा पुरोहितः कार्यः कीदृशो वर्णतो भवेत्। पुरोधा यादृशः कार्यः कथयस्व पितामह।। | 12-73-1a 12-73-1b |
भीष्म उवाच। | 12-73-2x |
गौरो वा लोहितो वाऽपि श्यामो वा नीरुजः सुखी। अक्रोधनो ह्यचपलः सर्वतश्च जितेन्द्रियः।।' | 12-73-2a 12-73-2b |
राज्ञा पुरोहितः कार्यो भवेद्विद्वान्बहुश्रुतः। उभौ समीक्ष्य धर्मार्थावप्रमेयावनन्तरम्।। | 12-73-3a 12-73-3b |
धर्मात्मा मन्त्रविद्येषां राज्ञां राजन्पुरोहितः। `तेषामर्थश्च कामश्च धर्मश्चेति विनिश्चयः।। | 12-73-4a 12-73-4b |
श्लोकाश्चोशनसा गीतास्तान्निबोध युधिष्ठिर। उच्छिष्टः स भवेद्राजा यस्य नास्ति पुरोहितः।। | 12-73-5a 12-73-5b |
रक्षसामसुराणां च पिशाचोरगपक्षिणाम्। शत्रूणां च भवेद्वध्यो यस्य नास्ति पुरोहितः।। | 12-73-6a 12-73-6b |
ब्रह्मत्वं सर्वयज्ञेषु कुर्वीताथर्वणो द्विजः। राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।। | 12-73-7a 12-73-7b |
ब्रूयाद्गर्ह्याणि सततं महोत्पातान्यघानि च। इष्टमङ्गलयुक्तानि तथाऽन्तः पुरिकाणि च।। | 12-73-8a 12-73-8b |
गीतनृत्ताधिकारेषु संमतेषु महीपतेः। कर्तव्यं करणीयं वै वैश्वदेवबलिस्तथा।। | 12-73-9a 12-73-9b |
पक्षसंधिषु कुर्वीत महाशान्तिं पुरोहितः। रौद्रहोमसहस्रं च स्वस्य राज्ञः प्रियं हितम्।। | 12-73-10a 12-73-10b |
राज्ञः पापमलाः सप्त यानृच्छति पुरोहितः। अमात्याश्च कुकर्माणो मन्त्रिणश्चाप्युपेक्षकाः।। | 12-73-11a 12-73-11b |
चौर्यमव्यवहारश्च व्यवहारोपसेविनाम्। अदण्ड्यदण्डनं चैव दण्ड्यानां चाप्यदण्डनम्।। | 12-73-12a 12-73-12b |
हिंसा चान्यत्र संग्रामाद्राज्ञश्च मल उच्यते। कुभृत्यैस्तु प्रजानाशः सप्तमस्तु महामलः।। | 12-73-13a 12-73-13b |
रौद्रैर्होमैर्महाशान्त्या घृतकम्बलकर्मणा। भृग्वङ्गिरोविधिज्ञो वै पुरोधा निर्णुदे मलात्।। | 12-73-14a 12-73-14b |
एतान्हित्वा दिवं याति राजा सप्त महामलान्। सामात्यः सपुरोधाश्च प्रजानां पालने रतः।। | 12-73-15a 12-73-15b |
एतस्मिन्नेव कौरव्य पौरोहित्ये महामते। श्लोकानाह महेन्द्रस्य गुरुर्देवो बृहस्पतिः।। | 12-73-16a 12-73-16b |
तान्निबोध महीपाल महाभाग हिताञ्शुभान्। ऋग्वेदे सामवेदे च यजुर्वेदे च वाजिनाम्।। | 12-73-17a 12-73-17b |
न निर्दिष्टानि कर्माणि त्रिषु स्थानेषु भूभृताम्। शान्तिकं पौष्टिकं चैव अरिष्टानां च शातनम्।। | 12-73-18a 12-73-18b |
शप्तास्ते याज्ञवल्क्येन यज्ञानां हितमीहता। ब्रह्मिष्ठानां वरिष्ठेन ब्रह्मणः संमते विभोः।। | 12-73-19a 12-73-19b |
बह्वृचं सामगं चैव वाजिनं च विवर्जयेत्। बह्वृचो राष्ट्रनाशाय राजनाशाय सामगः। अध्वर्युर्बलनाशाय प्रोक्तो वाजसनेयकः।। | 12-73-20a 12-73-20b 12-73-20c |
अब्राह्मणेषु वर्णेषु मन्त्रान्वाजसनेयकान्। शान्तिके पौष्टिके चैव नित्यं कर्मणि वर्जयेत्।। | 12-73-21a 12-73-21b |
ब्राह्मणस्य महीपस्य सर्वथा न विरोधिनः। वेदाश्चत्वार इत्येते ब्राह्मणा ये च तद्विदुः।। | 12-73-22a 12-73-22b |
पौरोहित्ये प्रमाणं तु ब्राह्मणश्च महीपतेः। जात्या न क्षत्रियः प्रोक्तः क्षतत्राणं करोति यः।। | 12-73-23a 12-73-23b |
चातुर्वर्ण्यबहिष्ठोऽपि स एव क्षत्रियः स्मृतः। भार्गवाङ्गिरसैर्मन्त्रैस्तेषां कर्म विधीयते।। | 12-73-24a 12-73-24b |
वैतानं कर्म यच्चैव गृह्यकर्म च यत्स्मृतम्। द्विजातीनां त्रयाणां तु सर्वकर्म विधीयते।। | 12-73-25a 12-73-25b |
राजधर्मप्रवृत्तानां हितार्थं त्रीमि कारयेत्। शान्तिकं पौष्टिकं चैव तथाऽभिचरणं च यत्।। | 12-73-26a 12-73-26b |
अग्निष्टोममुखैर्यज्ञैर्दूषिता भूपकर्मभिः। न सम्यक्फलमृच्छन्ति ये यजन्ति द्विजातयः।। | 12-73-27a 12-73-27b |
पौरोहित्यं तु कुर्वाणा नाशं यास्यन्ति भूभृताम्। यज्ञकर्माणि कुर्वाणा ऋत्विजस्तु विरोधिनः।। | 12-73-28a 12-73-28b |
ब्रह्मक्षत्रविशः सर्वे पौरोहित्ये विवर्जिताः। तदभावे च पारक्यं निर्दिष्टं राजकर्मसु।। | 12-73-29a 12-73-29b |
ऋषिणा याज्ञवल्क्येन तत्तथा न तदन्यथा। भार्गवाङ्गिरसां वेदे कृतविद्यः षडङ्गवित्।। | 12-73-30a 12-73-30b |
यज्ञकर्मविधिज्ञस्तु विधिज्ञः पौष्टिकेषु च। अष्टादशविकल्पानां विधिज्ञः शान्तिकर्मणाम्।। | 12-73-31a 12-73-31b |
सर्वरोगविहीनश्च संयतः संयतेन्द्रियः। श्वित्रकुष्ठक्षयक्षीणैर्ग्रहापस्मारदूषितैः।। | 12-73-32a 12-73-32b |
अशस्तैर्वातदुष्टैश्च दूरस्थैः संवदेन्नृपः। रोगिणं ऋत्विजं चैव वर्जयेच्च पुरोहितम्।। | 12-73-33a 12-73-33b |
नचान्यस्य कृतं येन पौरोहित्यं कदाचन। यस्य याज्यो मृतश्चैव भ्रष्टः प्रव्रजितो यथा।। | 12-73-34a 12-73-34b |
युद्धे पराजितश्चैव सर्वांस्तान्वर्जयेन्नृपः। नक्षत्रस्यानुकूल्येन यः संजातो नरेश्वरः।। | 12-73-35a 12-73-35b |
राजशास्त्रविनीतश्च श्रेयान्राज्ञः पुरोहितः। अधन्यानां निमित्तानामुत्पातानामथार्थवित्।। | 12-73-36a 12-73-36b |
शत्रुपक्षक्षयज्ञश्च श्रेयान्राज्ञः पुरोहितः। वाजिनं तदभावे च चरकाध्वर्यवानपि।। | 12-73-37a 12-73-37b |
बह्वृचं सामगं चैव नीतिशास्त्रकृतश्रमान्। कृतिनोऽथर्वणो वेदे स्थापयेत्तु पुरोहितान्।। | 12-73-38a 12-73-38b |
हिंसालिङ्गा हि निर्दिष्टा मन्त्रा वैतानिकैर्द्विजैः। न तानुच्चारयेत्प्राज्ञः क्षात्रधर्मविरोधिनः।। | 12-73-39a 12-73-39b |
प्रजागुणाः पुरोधाश्च पुरोहितगुणाः प्रजाः।' राजा वै सगुणो येषां कुशलं तेषु सर्वशः।। | 12-73-40a 12-73-40b |
उभौ प्रजा वर्धयतो देवान्पूर्वापरान्पितॄन्। यौ भवेतां स्थितौ धर्मे श्रद्धेयौ सुतपस्विनौ।। | 12-73-41a 12-73-41b |
परस्परस्य सुहृदौ विहितौ समचेतसौ। ब्रह्मक्षत्रस्य समानात्प्रजा सुखमवाप्नुयात्।। | 12-73-42a 12-73-42b |
विमाननात्तयोरेव प्रजा नश्येयुरेव हि। ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वासां प्रजानां मूलमुच्यते।। | 12-73-43a 12-73-43b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ऐलकश्यपसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर।। | 12-73-44a 12-73-44b |
ऐल उवाच। | 12-73-45x |
यदा हि ब्रह्म प्रजहाति क्षत्रं क्षत्रं यदा वा प्रजहाति ब्रह्म। अन्वग्बलं कतमेऽस्मिन्भजन्ते तथा बलं कतमेऽस्मिन्ध्रियन्ते।। | 12-73-45a 12-73-45b 12-73-45c 12-73-45d |
कश्यप उवाच। | 12-73-46x |
द्विधा हि राष्ट्रं भवति क्षत्रियस्य ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुध्यतीह। अन्वग्बलं दस्यवस्तद्भजन्ते तथा वर्णं तत्र विदन्ति सन्तः।। | 12-73-46a 12-73-46b 12-73-46c 12-73-46d |
नैषां ब्रह्म च वर्धते नोत पुत्रा न गर्गरो मथ्यते नो जयन्ते। नैषां पुत्रा देवमधीयते च यदा ब्रह्म क्षत्रियाः संत्यजन्ति।। | 12-73-47a 12-73-47b 12-73-47c 12-73-47d |
नैषामर्थो वर्धते जातु गेहे नाधीयते तत्प्रजा नो यजन्ते। अपध्वस्ता दस्युभूता भवन्ति ये ब्राह्मणान्क्षत्रियाः संत्यजन्ति।। | 12-73-48a 12-73-48b 12-73-48c 12-73-48d |
एतौ हि नित्यं संयुक्तावितरेतरधारणे। क्षत्रं वै ब्रह्मणो योनिर्योनिः क्षत्रस्य वै द्विजः।। | 12-73-49a 12-73-49b |
उभावेतौ नित्यमभिप्रपन्नौ संप्रापतुर्महतीं संप्रतिष्ठाम्। तयोः सन्धिर्भिद्यते चेत्पुराण स्ततः सर्वं भवति हि संप्रमूढम्।। | 12-73-50a 12-73-50b 12-73-50c 12-73-50d |
नात्र पारं लभते पारगामी महोदधौ नौरिव संप्रभिन्ना। चातुर्वण्यं भवति हि संप्रमूढं प्रजास्ततः क्षयसंस्था भवन्ति।। | 12-73-51a 12-73-51b 12-73-51c 12-73-51d |
ब्रह्मवृक्षो रक्ष्यमाणो मधु हेम च वर्षति। अरक्ष्यमाणः सततमश्रु पापं च वर्षति।। | 12-73-52a 12-73-52b |
अब्रह्मचारी चरणादपेतो यदा ब्रह्म ब्रह्मणि त्राणमिच्छेत्। आश्चर्यतो वर्षति तत्र देव स्तत्राभीक्ष्णं दुष्प्रभाश्चाविशन्ति।। | 12-73-53a 12-73-53b 12-73-53c 12-73-53d |
स्त्रियं हत्वा ब्राह्मणं वाऽपि पापः सभायां यत्र लभते साधुवादम्। राज्ञः सकाशे न विभेति चापि ततो भयं विद्यते क्षत्रियस्य।। | 12-73-54a 12-73-54b 12-73-54c 12-73-54d |
पापैः पापे क्रियमाणेऽतिवेलं ततो रुद्रो जायते देव एषः। पापैः पापाः संजनयन्ति रुद्रं ततः सर्वान्साध्वसाधून्हिनस्ति।। | 12-73-55a 12-73-55b 12-73-55c 12-73-55d |
ऐल उवाच। | 12-73-56x |
कुतो रुद्रः कीदृशो वाऽपि रुद्रः सत्वैः सत्वं दृश्यते वध्यमानम्। एतत्सर्वं कश्यप मे प्रचक्ष्व यतो रुद्रो जायते देव एषः।। | 12-73-56a 12-73-56b 12-73-56c 12-73-56d |
कश्यप उवाच। | 12-73-57x |
आत्मा रुद्रो हृदये मानवानां स्वं स्वं देहं परदेहं च हन्ति। वातोत्पातैः सदृशं रुद्रमाहु र्देवं जीमूतैः सदृशं रूपमस्य।। | 12-73-57a 12-73-57b 12-73-57c 12-73-57d |
ऐल उवाच। | 12-73-58x |
न वै वातः परिवृणोति कश्चि न्न जीमूतो वर्षति तत्र देवः। तथा युक्तो दृश्यते मानुषेषु कामद्वेषाद्वध्यते मुह्यते च।। | 12-73-58a 12-73-58b 12-73-58c 12-73-58d |
कश्यप उवाच। | 12-73-59x |
यथैकगेहाज्जातवेदाः प्रदीप्तः कृत्स्नं ग्रामं दहते च त्वरावान्। विमोहनं कुरुते देव एप ततः सर्वं स्पृश्यते पुण्यपापैः।। | 12-73-59a 12-73-59b 12-73-59c 12-73-59d |
ऐल उवाच। | 12-73-60x |
यदि दण्डः स्पृशतेऽपुण्यपापं पापं पापे क्रियमाणे विशेषात्। कस्य हेतोः सुकृतं नाम कुर्या द्दुष्कृतं वा कस्य हेतोर्न कुर्यात्।। | 12-73-60a 12-73-60b 12-73-60c 12-73-60d |
कश्यप उवाच। | 12-73-61x |
असंत्यागात्पापकृतामपापां स्तुल्यो दण्डः स्पृशते मिश्रभावात्। शुष्केणार्द्रं दह्यते मिश्रभावा न्न मिश्रः स्यात्पापकृद्भिः कथंचित्।। | 12-73-61a 12-73-61b 12-73-61c 12-73-61d |
ऐल उवाच। | 12-73-62x |
साध्वसाधून्धारयतीह भूमिः साध्वसाधूंस्तापयतीह सूर्यः। साध्वसाधूंश्चापि वातीह वायु रापस्तथा साध्वसाधून्वहन्ति।। | 12-73-62a 12-73-62b 12-73-62c 12-73-62d |
कश्यप उवाच। | 12-73-63x |
एवमस्मिन्वर्तते लोक एष नामुत्रैवं वर्तते राजपुत्र। प्रेत्यैतयोरन्तरावान्विशेषो यो वै पुण्यं चरते यश्च पापम्।। | 12-73-63a 12-73-63b 12-73-63c 12-73-63d |
पुण्यस्य लोको मधुमान्घृतार्चि र्हिरण्यज्योतिरमृतस्य नाभिः। तत्र प्रेत्य मोदते ब्रह्मचारी न तत्र मृत्युर्न जरा नोत दुःखम्।। | 12-73-64a 12-73-64b 12-73-64c 12-73-64d |
पापस्य लोको निरयोऽप्रकाशो नित्यं दुःखं शोकभूयिष्ठमेव। तत्रात्मानं शोचति पापकर्मा वह्वीः समाः प्रतपन्नप्रतिष्ठः।। | 12-73-65a 12-73-65b 12-73-65c 12-73-65d |
मिथोभेदाद्ब्राह्मणक्षत्रियाणां प्रजा दुःखं दुःसहं चाविशन्ति। एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह विद्वान् पुरोहितो नैकविद्यो नृपेण।। | 12-73-66a 12-73-66b 12-73-66c 12-73-66d |
तं चैव लब्ध्वाभिषिञ्चेत्तथा धर्मो विधीयते। अग्रं हि ब्राह्मणः प्रोक्तं सर्वस्यैवेह धर्मतः।। | 12-73-67a 12-73-67b |
पूर्वं हि ब्रह्मणः सृष्टिरिति ब्रह्मविदो विदुः। ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं पूर्वं यदुत्तमम्।। | 12-73-68a 12-73-68b |
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक्। सर्वं श्रेष्ठं विशिष्टं च निवेद्यं तस्य धीमतः।। | 12-73-69a 12-73-69b |
अवश्यमेतत्कर्तव्यं राज्ञा बलवताऽपि हि। ब्रह्म वर्धयति क्षत्रं क्षत्रतो ब्रह्म वर्धते। राज्ञः सर्वस्य चान्यस्य स्वामी राज्ञः पुरोहितः।। | 12-73-70a 12-73-70b 12-73-70c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-73-14 निर्णुदे मोचयेत्। राजानमिति शेषः।। 12-73-46 क्षत्र कर्तृ। तत्र क्षत्रे सन्तः वर्णं विन्दन्ति। ब्राह्मणानामवमन्ता म्लेच्छजातीयोऽयं राजेत्यनुमानाज्जानन्ति। यथोक्तंभोगेन ज्ञायते कर्म कर्मणा ज्ञायते जनिरिति। तथा बलं तद्भियन्ते च सन्त इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-73-50 अभिप्रपन्नौ अन्योन्यशरणौ। क्षत्रशरणं ब्रह्म तपस्यति ब्रह्मशरणं क्षत्रं जयतीति भावः।। 12-73-52 मधु सुखम्। अश्रु दुःखम्। पापं नरकम्।। 12-73-53 ब्रह्म ब्राह्मणजातिः। ब्रह्मचरणादपेतत्वादब्रह्मचारी वेदाध्ययनशून्यः सन् त्राणं रक्षणं इच्छेत्तदा देवस्तत्र आश्चर्यतो वर्षति। तत्र वर्षः अत्यन्तं दुर्लभमित्यर्थः।। 12-73-55 रुद्रो हिंस्रः। देवो राजा। रुद्रं कलिम्।। 12-73-57 मानवानां हृदये य आत्मा जीवोऽस्ति स एव रुद्रः संहर्ता भवति। ननु कुतः शान्तस्यात्मनो रुद्रत्वमत आह वातेति। यथा उत्पातवात आकाशोत्थ आकाशोत्थां मेघदेवतामितस्ततो नयति गर्जयति विद्युदशनिवारीणि च तत आविर्भावयत्येवमात्मोत्थिताः काप्नक्रोधादयः सर्वं हिंस्रं कारयन्तीत्यर्थः।। 12-73-58 यथा आकाशेन युक्तास्ततः पृथग्भूताः वातो मेघाश्च मेघप्रवर्तकदेवता च प्रत्यक्षेण शास्त्रज्ञानेन च दृश्यन्ते नैवं जीवो वा तदभिभावकः कामादिर्वा पृथक् दृश्यते किंत्वात्मन्येव वह्यौष्ण्यवत्कामद्वेषौ वर्तेते तौ चैतस्य संबन्धकौ मोहको च भवत इत्यर्थः।। 12-73-59 यथाऽल्पोऽपि वह्निरधिकमधिकं काष्ठभारमुपारुह्य कृत्स्नं ग्रामं दहति तत्र न केवलं काष्ठानां दाहकत्वं नापि काष्ठान्यनुपारूढस्याग्नेः किंतु तदुभयसंघातस्यैव। तत्रापि विवेके क्रियमाणे वह्नेरेवोपाध्यावेशाद्दाहकत्वम्। एवमात्मानमारुह्याहंकारवह्निः कामक्रोधादिवातैरुद्दीपितो रुद्रत्वं प्रतिपद्यते।। 12-73-60 अपुण्यपापमप्यात्मानं यदि विशेषात् क्रियमाणे पापे निमित्तभूते सति दण्डः पापं दण्डात्मकं पापं गालनताडनादि दुःखं कर्तृ स्पृशते मोहादिति ब्रवीषि तर्हि पुण्यकरणं पापवर्जनं च शास्त्रचोदितं वृथैव स्यात्।। 12-73-67 तं पुरोहितं लब्ध्वा आत्मानं राज्येऽभिषिञ्चेत्।। 12-73-70 एवं राज्ञा विशेषेण पूज्या वै ब्राह्मणाः सदा इति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-072 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-074 |