महाभारतम्-12-शांतिपर्व-063
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राजधर्मप्रशंसकेन्द्रमांधातृसंवादानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-63-1x |
चातुराश्रम्यधर्माश्च यतिधर्माश्च पाण्डव। लोकवेदोत्तराश्चैव क्षात्रधर्मे समाहिताः।। | 12-63-1a 12-63-1b |
सर्वाण्येतानि कर्माणि क्षात्रे भरतसत्तम। निराशिषो जीवलोकाः क्षत्रधर्मे व्यवस्थिते।। | 12-63-2a 12-63-2b |
अप्रत्यक्षं बहुफलं धर्ममाश्रमवासिनाम्। प्ररूपयन्ति तद्भावमागमैरेव शाश्वतम्।। | 12-63-3a 12-63-3b |
अपरे वचनैः पुण्यैर्वादिनो लोकनिश्चये। अनिश्चयज्ञा धर्माणामदृष्टान्ते परे रताः।। | 12-63-4a 12-63-4b |
प्रत्यक्षं फलभूयिष्ठमात्मसाक्षिकमच्छलम्। सर्वलोकहितं धर्मं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्।। | 12-63-5a 12-63-5b |
धर्माश्रमेऽध्यवसिनां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर। यथा त्रयाणां वर्णानां संख्यातोपश्रुतिः पुरा। राजधर्मेष्वनुमता लोकाः सुचरितैः सह।। | 12-63-6a 12-63-6b 12-63-6c |
उदाहृतं ते राजेन्द्र यथा विष्णुं महौजसम्। सर्वभूतेश्वरं देवं ब्राह्मं नारायणं पुरा। जग्मुः सुबहुशः शूरा राजानो दण्डनीतये।। | 12-63-7a 12-63-7b 12-63-7c |
एकैकमात्मनः कर्म तुलयित्वाश्रमं पुरा। जानः पर्युपासन्त दृष्टान्तवचने स्थिताः।। | 12-63-8a 12-63-8b |
साध्या देवा वसवश्चाश्विनौ च रुद्राश्च विश्वे मरुतां गणाश्च। सृष्टाः पुरा ह्यादिदेवेन देवाः क्षात्रे धर्मे वर्तयन्ते च सिद्धाः।। | 12-63-9a 12-63-9b 12-63-9c 12-63-9d |
अत्र ते वर्तयिष्यामि धर्ममर्थविनिश्चये। निर्मर्यादे वर्तमाने दानवैकार्णवे पुरा।। | 12-63-10a 12-63-10b |
बभूव राजा राजेन्द्र मान्धाता नाम वीर्यवान्। पुरा वसुमतीपालो यज्ञं चक्रे दिदृक्षया।। | 12-63-11a 12-63-11b |
अनादिमध्यनिधनं देवं नारायणं प्रभुम्। स राजा राजशार्दूल मान्धाता परमेश्वरम्।। | 12-63-12a 12-63-12b |
जगाम शिरसा पादौ यज्ञे विष्णोर्महात्मनः। दर्शयामास तं विष्णू रूपमास्थाय वासवम्।। | 12-63-13a 12-63-13b |
स पार्थिवैर्वृतः सद्भिरर्चयामास तं प्रभुम्। तस्य पार्थिवसङ्घस्य तस्य चैव महात्मनः। संवादोऽयं महानासीद्विष्णुं प्रति महाद्युतिम्।। | 12-63-14a 12-63-14b 12-63-14c |
इन्द्र उवाच। | 12-63-15x |
किमिष्यसे धर्मभूतां वरिष्ठ यं द्रष्टुकामोऽसि तमप्रमेयम्। अनन्तमायामितमन्त्रवीर्यं नारायणं ह्यादिदेवं पुराणम्।। | 12-63-15a 12-63-15b 12-63-15c 12-63-15d |
नासौ देवो विश्वरूपो मयाऽपि शक्यो द्रष्टुं ब्रह्मणा वाऽपि साक्षात् येऽन्ये कामास्तव राजन्हृदिस्था दास्ये चैतांस्त्वं हि मर्त्येषु राजा।। | 12-63-16a 12-63-16b 12-63-16c 12-63-16d |
सत्ये स्थितो धर्मपरो जितेन्द्रियः शूरो दृढप्रीतिरतः सुराणाम्। बुद्ध्या भक्त्या चोत्तमः श्रद्धया च ततस्तेऽहं दझि वरान्यथेष्टम्।। | 12-63-17a 12-63-17b 12-63-17c 12-63-17d |
मान्धातोवाच। | 12-63-18x |
असंशयं भगवन्नादिदेवं वक्ष्यामि त्वाऽहं शिरसा संप्रसाद्य। त्यक्त्वा कामान्धर्मकामो ह्यरण्य मिच्छे गन्तुं सत्पथं साधुजुष्टम्।। | 12-63-18a 12-63-18b 12-63-18c 12-63-18d |
क्षात्राद्धर्माद्विपुलादप्रमेया श्लोकाः प्राप्ताः स्थापितं स्वं यशश्च। धर्मो योऽसावादिदेवात्प्रवृत्तो लोकश्रेष्ठं तं न जानामि कर्तुम्।। | 12-63-19a 12-63-19b 12-63-19c 12-63-19d |
इन्द्र उवाच। | 12-63-20x |
असैनिका धर्मपराश्च धर्मे परां गतिं न नयन्ते ह्ययुक्तम्। क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात्प्रवृत्तः पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः।। | 12-63-20a 12-63-20b 12-63-20c 12-63-20d |
शेषाः सृष्टा ह्यन्तवन्तो ह्यनन्ताः सप्रस्थानाः क्षात्रधर्मा विशिष्टाः। अस्मिन्धर्मे सर्वधर्माः प्रविष्टाः क्षात्रं धर्मं श्रेष्ठतमं वदन्ति।। | 12-63-21a 12-63-21b 12-63-21c 12-63-21d |
कर्मणा वै पुरा देवा ऋषयश्चामितौजसः। त्राताः सर्वे प्रसह्यारीन्क्षत्रधर्मेण विष्णुना।। | 12-63-22a 12-63-22b |
यदि ह्यसौ भगवन्नाहनिष्य द्रिपू सर्वानसुरानप्रमेयः। न च ब्रह्मा नैव लोकादिकर्ता सन्तो धर्माश्चादिधर्माश्च न स्युः।। | 12-63-23a 12-63-23b 12-63-23c 12-63-23d |
इमामुर्वी नाजयद्विक्रमेण देवश्रेष्ठः सासुरामादिदेवः। चातुर्वर्ण्यं चातुराश्रम्यधर्माः सर्वे न स्युर्ब्राह्मणानां विनाशात्।। | 12-63-24a 12-63-24b 12-63-24c 12-63-24d |
नष्टा धर्माः शतधा शाश्वतास्ते क्षात्रेण धर्मेण पुनः प्रवृद्धाः। युगेयुगे ह्यादिधर्माः प्रवृत्ता लोकज्येष्ठं क्षात्रधर्मं वदन्ति।। | 12-63-25a 12-63-25b 12-63-25c 12-63-25d |
आत्मत्यागः सर्वभूतानुकम्पा लोकज्ञानं पालनं मोक्षणं च। विषण्णानां मोक्षणं पीडितानां क्षात्रे धर्मे विद्यते पार्थिवानाम्।। | 12-63-26a 12-63-26b 12-63-26c 12-63-26d |
निर्मर्यादाः काममन्युप्रवृत्ता भीता राज्ञो नाधिगच्छन्ति पापम्। शिष्टाश्चान्ये सर्वधर्मोपपन्नाः साध्वाचाराः साधुधर्मं वदन्ति।। | 12-63-27a 12-63-27b 12-63-27c 12-63-27d |
पुत्रवत्पाल्यमानानि धर्मलिङ्गानि पार्थिवैः। लोके भूतानि सर्वाणि चरन्ते नात्र संशयः।। | 12-63-28a 12-63-28b |
सर्वधर्मपरं क्षात्रं लोकश्रेष्ठं सनातनम्। शश्वदक्षरपर्यन्तमक्षरं सर्वतोमुखम्।। | 12-63-29a 12-63-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। 63।। |
12-63-1 राजधर्माश्च पाण्डव। लोकालोकोत्तराश्चैव धर्माः क्षात्रे समर्पिता इति ट. ड.द. पाठः।। 12-63-3 बहुद्वारमिति झ. पाठः।। 12-63-4 अदृष्टान्ते न दृष्टोऽन्तो यस्य तस्मिन्।। 12-63-5 सुखभूयिष्ठमिति झ. पाठः।। 12-63-6 धर्माश्रमे गार्हस्थ्ये वर्णानां धर्माणां उपश्रुतिरन्तर्भावः संख्या प्रकटा। तथा राजधर्मेषु धर्मैः सह लोका अन्तर्भूताः। अनुलोमा राजधर्मो लोके सुचरितैरिहेति थ. द. पाठः।। 12-63-8 आश्रमं आश्रमविहितं तुलयित्वा किं दण्डनीतिजो धर्मो महान् उत आश्रमधर्म इति संदिह्य दृष्टान्तवचने सिद्धान्तं श्रोतुम्।। 12-63-13 वासयं ऐन्द्रं रूपम्।। 12-63-20 न सन्ति सैनिका येषां ते असैनिकाः अराजानः युक्तं अभिनिवेशशून्यं यथा स्यात्तथा हेलयैव न नयन्ते इत्यर्थः। शेषभूताः अङ्गभूताः।। 12-63-26 आत्मत्यागो युद्धे मरणम् 12-63-29 अक्षरपर्यन्तं मोक्षावसानम्।।
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