महाभारतम्-12-शांतिपर्व-067
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वसुमनसे बृहस्पत्युक्तराजगुणानुवर्णनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-67-1x |
किमाहुर्दैवतं विप्रा राजानं भरतर्षभ। मनुष्याणामधिपतिं तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-67-1a 12-67-1b |
भीष्म उवाच। | 12-67-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। बृहस्पतिं वसुमना यथा पप्रच्छ भारत।। | 12-67-2a 12-67-2b |
राजा वसुमना नाम कौसल्यो धीमतां वरः। महर्षि किल पप्रच्छ कृतप्रज्ञं बृहस्पतिम्।। | 12-67-3a 12-67-3b |
सर्वं वैनयिकं कृत्वा विनयज्ञो बृहस्पतिम्। दक्षिणानन्तरो भूत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम्।। | 12-67-4a 12-67-4b |
विधिं पप्रच्छ राजस्य सर्वलोकहिते रतः। प्रजानां सुखमन्विच्छन्धर्मशीलं बृहस्पतिम्।। | 12-67-5a 12-67-5b |
केन भूतानि वर्धन्ते क्षयं गच्छन्ति केन वा। कमर्चन्तो महाप्राज्ञ सुखमव्ययमाप्नुयुः।। `एतन्मे शंस देवर्षे धर्मकामार्थसंशयम्'।। | 12-67-6a 12-67-6b 12-67-6c |
एवं पृष्टो महाप्राज्ञः कौसल्येनामितौजसा। राजसत्कारमव्यग्रो राज्यस्य च विवर्धनम्। दण्डनीतिं समाश्रित्य शशंसास्मै बृहस्पतिः।। | 12-67-7a 12-67-7b 12-67-7c |
राजमूलो महाप्राज्ञ धर्मो लोकस्य लक्ष्यते। प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्।। | 12-67-8a 12-67-8b |
राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्। प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते।। | 12-67-9a 12-67-9b |
यथा ह्यनुदये राजन्भूतानि शशिसूर्ययोः। अन्धे तमसि मज्जेयुरपश्यन्तः परस्परम्।। | 12-67-10a 12-67-10b |
यथा ह्यनुदके मत्स्या निराक्रन्दे विहङ्गमाः। विहरेयुर्यथाकामं विहिंसन्तः पुनः पुनः।। | 12-67-11a 12-67-11b |
विमथ्यातिक्रमेरंश्च विषह्यापि परस्परम्। अभावमचिरेणैव गच्छेयुर्नात्र संशयः।। | 12-67-12a 12-67-12b |
एवमेव विना राज्ञा विनश्येयुरिमाः प्रजाः। अन्धे तमसि मज्जेयुरगोपाः पशवो यथा।। | 12-67-13a 12-67-13b |
हरेयुर्बलवन्तोऽपि दुर्बलानां परिग्रहान्। हन्युर्व्यायच्छमानांश्च यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-14a 12-67-14b |
ममेदमिति लोकेऽस्मिन्न भवेत्स्वपरिग्रहः। न दारा न च पुत्रः स्यान्न धनं न परिग्रहः। विष्वग्लोपः प्रवर्तेत यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-15a 12-67-15b 12-67-15c |
यानं वस्त्रमलङ्कारान्रत्नानि विविधानि च। हरेयुः सहसा पापा यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-16a 12-67-16b |
पतेद्बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु। अधर्मः प्रगृहीतः स्याद्यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-17a 12-67-17b |
मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम्। क्लिश्नीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-18a 12-67-18b |
`अन्यांश्च क्रोशतो हिंस्युर्लोकोऽयं दस्युवद्भवेत्।' वधबन्धपरिक्लेशो नित्यमर्थवतां भवेत्। ममत्वं च न विन्देयुर्यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-19a 12-67-19b 12-67-19c |
अन्ताश्चाकाल एव स्युर्लोकोऽयं दस्युसाद्भवेत्। पतेद्बहुविधं राज्यं यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-20a 12-67-20b |
न योनिदोषो वर्तेत न कृषिर्न वणिक्पथः। मज्जेद्धर्मस्त्रयी न स्याद्यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-21a 12-67-21b |
न यज्ञाः संप्रवर्तेयुर्विधिवत्स्वाप्तदक्षिणाः। न विवाहाः समाजो वा यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-22a 12-67-22b |
न वृषाः संप्रवर्तेरन्न मथ्येरंश्च गर्गराः। घोषाः प्रणाशं गच्छेयुर्यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-23a 12-67-23b |
त्रस्तमुद्विग्नहृदयं हाहाभूतमचेतनम्। क्षणेन विनशेत्सर्वं यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-24a 12-67-24b |
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः। विधिवद्दक्षिणावन्ति यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-25a 12-67-25b |
ब्राह्मणाश्चतुरो वेदान्नाधीयीरंस्तपस्विनः। विद्यास्नाता व्रतस्नाता यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-26a 12-67-26b |
न भवेद्धर्मसंसेवी मोहविप्रहतो जनः। हर्ता स्वच्छेन्द्रियो गच्छेद्यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-27a 12-67-27b |
हस्ताद्धस्तं परिमुषेद्भिद्येरन्सर्वसेतवः। भयार्तं विद्रवेत्सर्वं यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-28a 12-67-28b |
अनयाः संप्रवपर्तेरन्भवेद्वै वर्णसङ्करः। दुर्भिक्षमाविशेद्राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत्।। | 12-67-29a 12-67-29b |
विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते। मनुष्या रक्षिता राज्ञा समन्तादकुतोभयाः।। | 12-67-30a 12-67-30b |
नाक्रुष्टं सहते कश्चित्कुतो वा हस्तलाघवम्। यदि राजा न सम्यग्गां रक्षयत्यपि धार्मिकः।। | 12-67-31a 12-67-31b |
स्त्रियश्चापुरुषा मार्गं सर्वालङ्कारभूषिताः। निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदि रक्षति भूमिपः।। | 12-67-32a 12-67-32b |
धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम्। अनुगृह्णन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः।। | 12-67-33a 12-67-33b |
यजन्ते च महायज्ञैस्त्रयो वर्णाः पृथग्विधैः। युक्ताश्चाधीयते विद्यां यदा रक्षति भूमिपः।। | 12-67-34a 12-67-34b |
वार्तामूलो ह्ययं लोकस्तया वै धार्यते सदा। तत्सर्वं वर्तते सम्यग्यदा रक्षति भूमिपः।। | 12-67-35a 12-67-35b |
यदा राजा धुरं श्रेष्ठामादाय वहति प्रजाः। महता बलयोगेन तदा लोकः प्रसीदयि।। | 12-67-36a 12-67-36b |
यस्याभावेन भूतानामभावः स्यात्समन्ततः। भावे च भावो नित्यं स्यात्कस्तं न प्रतिपूजयेत्।। | 12-67-37a 12-67-37b |
तस्य यो वहते भारं सर्वलोकसुखावहम्। तिष्ठन्प्रियहिते राज्ञ उभौ लोकाविमौ जयेत्।। | 12-67-38a 12-67-38b |
यस्तस्य पुरुषः पापं मनसाऽप्यनुचिन्तयेत्। असंशयमिह क्लिष्टः प्रेत्यापि नरकं व्रजेत्।। | 12-67-39a 12-67-39b |
न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति।। | 12-67-40a 12-67-40b |
कुरुते पञ्चरूपाणि कालयुक्तानि यः सदा। भवत्यग्निस्तथाऽऽदित्यो मृत्युर्वैश्रवणो यमः।। | 12-67-41a 12-67-41b |
यदा ह्यासीदतः पापान्दहत्युग्रेण तेजसा। मिथ्योपचरितो राजा तदा भवति पावकः।। | 12-67-42a 12-67-42b |
यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः। क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः।। | 12-67-43a 12-67-43b |
अशुचींश्च यदा क्रुद्धः क्षिणोति शतशो नरान्। सपुत्रपौत्रान्सामात्यांस्तदा भवति सोन्तकः।। | 12-67-44a 12-67-44b |
यदा त्वधार्मिकान्सर्वांस्तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति। धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा।। | 12-67-45a 12-67-45b |
यदा तु धनधाराभिस्तर्पयत्युपकारिणः। आच्छिनत्ति च रत्नानि विविधान्यपकारिणां।। | 12-67-46a 12-67-46b |
श्रियं ददाति कस्मैचित्कस्माच्चिदपकर्षति। तदा वैश्रवणो राजा लोके भवति भूमिपः।। | 12-67-47a 12-67-47b |
नास्यापवादे स्थातव्यं दक्षेणाक्लिष्टकर्मणा। धर्ममाकाङ्क्षता लोके ईश्वरस्यानसूयता।। | 12-67-48a 12-67-48b |
न हि राज्ञः प्रतीपानि कुर्वन्सुखमवाप्नुयात्। पुत्रो भ्राता वयस्यो वा यद्यप्यात्मसमो भवेत्।। | 12-67-49a 12-67-49b |
कुर्यात्कृष्णगतिः शेषं ज्वलितोऽनिलसारथिः। न तु राज्ञाऽभिपन्नस्य शेषं क्वचन विद्यते।। | 12-67-50a 12-67-50b |
तस्य सर्वाणि रक्ष्याणि दूरतः परिवर्जयेत्। मृत्योरिव जुगुप्सेत राजस्वहरणान्नरः।। | 12-67-51a 12-67-51b |
वध्येतभिमृशन्सद्यो मृगः कूटमिव स्पृशन्। आत्मस्वमिव संरक्षेद्राजस्वमिह बुद्धिमान्।। | 12-67-52a 12-67-52b |
महान्तं नरकं घोरमप्रतिष्ठमचेतसः। पतन्ति चिररात्राय राजवित्तापहारिणः।। | 12-67-53a 12-67-53b |
राजा भोजो विराट् सम्राट् क्षत्रियो भूपतिर्नृपः। य एभिः स्तूयते शब्दैः कस्तं नार्चितुमर्हति।। | 12-67-54a 12-67-54b |
तस्माद्बुभूषुर्नियतो जितात्मा संयतेन्द्रियः। मेधावी धृतिमान्दक्षः संश्रयेत् महीपतिम्।। | 12-67-55a 12-67-55b |
कृतज्ञं प्राज्ञमक्षुद्रं दृढभक्तिं जितेन्द्रियम्। धर्मनित्यं स्थितं स्थाने मन्त्रिणं पूजयेन्नृपः।। | 12-67-56a 12-67-56b |
दृढभक्तिं कृतप्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम्। शूरमक्षुद्रकर्माणं प्रसिद्धं जनमाश्रयेत्।। | 12-67-57a 12-67-57b |
राजा प्रगल्भं पुरुषं करोति राजा भृशं बृंहयते मनुष्यम्। राजाभिपन्नस्य कुतः सुखानि राजाऽभ्युपेतं सुखिनं करोति।। | 12-67-58a 12-67-58b 12-67-58c 12-67-58d |
`राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम्। राज्ञा विहीना न भवन्ति देशा देशैर्विहीना न नृपा भवन्ति।।' | 12-67-59a 12-67-59b 12-67-59c 12-67-59d |
राजा प्रजानां हृदयं गरीयो गतिः प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च। समाश्रिता लोकमिमं परं च जयन्ति सम्यक्पुरुषा नरेन्द्र।। | 12-67-60a 12-67-60b 12-67-60c 12-67-60d |
नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनीं दमेन सत्येन च सौहृदेन। महद्भिरिष्ट्वा क्रतुभिर्महायशा स्त्रिविष्टपे स्थानमुपैति शाश्वतम्।। | 12-67-61a 12-67-61b 12-67-61c 12-67-61d |
भीष्म उवाच। | 12-67-62x |
स एवमुक्तोऽङ्गिरसा कौसल्यो राजसत्तमः। प्रयत्नात्कृतवान्वीरः प्रजापालनमुत्तमम्।। | 12-67-62a 12-67-62b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। 67।। |
12-67-4 वैनयिकं अभ्युत्थानाभिवादनादिकम्। दक्षिणा दक्षिणातोऽनन्तरः। समीपे भूत्वाप्रदक्षिणीकृत्येत्यर्थः।। 12-67-11 अनुदके अल्पोदके। निराक्रन्दे हिंस्रभयरहिते।। 12-67-14 व्यायच्छमानान्स्वंस्वमर्थं अदातॄन्।। 12-67-15 विष्वक्सर्वतः लोपः अर्थानां लुम्पनम्।। 12-67-18 अन्धाश्च क्रोशत इति द.पाठः।। 12-67-21 योनिदोषः व्यभिचारे विगानम्।। 12-67-23 न संप्रवर्तेरन् न रेतः सिञ्चेरन्। गर्गराः दधिमन्थनपात्राणि।। 12-67-28 हस्ताद्धस्तं हस्तस्थमपि चोरा हरेयुः।। 12-67-30 विवृत्य उद्धाट्य।। 12-67-31 हस्तलाघवं तत्साध्यं ताडनम्। अक्रुष्टं गालनं वा कुतो न सहते। अपितु अनायकत्वात्सहत एव। गां पृथ्वीम्।। 12-67-32 अपुरुषाः अरक्षिता अपि।। 12-67-35 त्रय्या वै इति झ. पाठः। तत्र वार्ता जीविका तन्मूलः। त्रय्या च वृष्ट्या दिहेतुतया त्रायते रक्षते सर्वं त्रयी वार्तादिरित्यर्थः।। 12-67-42 आसीदतः समीपस्थान्। मिथ्योपचरितो वञ्चितः।। 12-67-48 तस्योपदेशे स्थातव्यमिति ट.ड.थ. पाठः।। 12-67-50 अभिपन्नस्य तिरस्कृतस्य।। 12-67-52 कूटं मारणयन्त्रम्।। 12-67-54 भोजः सुखानां भोजयिता।। 12-67-55 बुभूषुर्भवितुमिच्छुः।। 12-67-58 निषिद्धजनमाश्रयेदिति झ. पाठः। तत्र निषिद्धा जना येन तम्। अहमेकं एवेदं कार्यं करिष्यामि किमेतैरिति वादिनमित्यर्थः।। 12-67-60 समाश्रिता राजानमिति शेषः।।
शांतिपर्व-066 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-068 |