महाभारतम्-12-शांतिपर्व-168
दिखावट
← शांतिपर्व-167 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-168 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-169 → |
कदाचन धनार्जनाय प्रस्थितवता गौतमेन समुद्रंप्रति गच्छता वणिक्सार्थेन सह गमनम्।। 1।। वनगजोपद्रुतवणिक्सार्थपरिभ्रष्टेन गौतमेन किंचिक्यग्रोधमूले विश्रान्त्यै प्रस्वापः।। 2।। तत्र सायमागतेन राजधर्मनाम्ना वकराजेन तस्य सत्कारः।। 3।।
भीष्म उवाच। | 12-168-1x |
तस्यां निशायां व्युष्टायां गते तस्मिन्द्विजोत्तमे। निष्क्रम्य गौतमोऽगच्छद्धनार्थी विचचार ह।। | 12-168-1a 12-168-1b |
सामुद्रिकान्सवणिजस्ततोऽपश्यत्स्थितान्पथि। स तेन सह सार्थेन प्रययौ सागरं प्रति।। | 12-168-2a 12-168-2b |
स तु सार्थो महाराज कस्मिंश्चिद्गिरिगह्वरे। मत्तेन द्विरदेनाथ निहतः प्रायशोऽभवत्।। | 12-168-3a 12-168-3b |
स कथंचिद्भयात्तस्माद्विमुक्तो प्रायशोऽभवत्। कांदिग्भूतो जीवितार्थी प्रदुद्रावोत्तरां दिशम्।। | 12-168-4a 12-168-4b |
ततस्तु स परिभ्रष्टः सार्थाद्देशात्तथाऽर्थतः। एकाकी व्यभ्रमत्तत्र वने कापुरुषो यथा।। | 12-168-5a 12-168-5b |
स पन्थानमथासाद्य समुद्राभिसरं तदा। आससाद वनं रम्यं महत्पुष्पितपादपम्।। | 12-168-6a 12-168-6b |
सर्वर्तुकैराम्रवणैः पुष्पितैरुपशोभितम्। नन्दनोद्देशसदृशं यक्षकिन्नरसेवितम्।। | 12-168-7a 12-168-7b |
सालतालघवाश्वत्थप्लक्षागुरुवनैस्तथा। चन्दनस्य च मुख्यस्य पादपैरुपशोभितम्। गिरिप्रस्थेषु रम्येषु सुखेषु सुखगन्धिषु।। | 12-168-8a 12-168-8b 12-168-8c |
समन्ततो द्विजश्रेष्ठा वल्गु कूजन्ति तत्र वै। मनुष्यवदनाश्चान्ये भारुण्डा इति विश्रुताः।। | 12-168-9a 12-168-9b |
स तान्यतिमनोज्ञानि विहगानां रुतानि वै। शृण्वन्सुरमणीयानि विप्रोऽगच्छत गौतमः।। | 12-168-10a 12-168-10b |
ततोऽपश्यत्सुरम्येषु सुवर्णसिकताचिते। देशभागे समे चित्रे स्वर्गोद्देशसमप्रभे। श्रिया जुष्टं ददर्शाथ न्यग्रोधं च सुमण्डलम्।। | 12-168-11a 12-168-11b 12-168-11c |
शाखाभिरनुरूपाभिः संवृतं छत्रसन्निभम्। तस्य मूलं च संसिक्तं वरचन्दनवारिणा।। | 12-168-12a 12-168-12b |
दिव्यपुष्पान्वितं श्रीमत्पितामहसदोपमम्। तं दृष्ट्वा गौतमः प्रीतो मनःकान्तमनुत्तमम्।। | 12-168-13a 12-168-13b |
मेध्यं सुरगृहप्रख्यं पुष्पितैः पादपैर्वृतम्। तमासाद्य मुदा युक्तस्तस्याधस्तादुपाविशत्।। | 12-168-14a 12-168-14b |
तत्रासीनस्य कौन्तेय गौतमस्य नराधिप। पुष्पाणि समुपस्पृश्य प्रववावनिलः शुभः। ह्लादयंस्तस्य गात्राणि गौतमस्य तदा नृप।। | 12-168-15a 12-168-15b 12-168-15c |
स तु विप्रः परिश्रान्तिः स्पृष्टः पुण्येन वायुना। सुखमासाद्य सुष्वाप भास्करश्चास्तमभ्ययात्।। | 12-168-16a 12-168-16b |
ततोऽस्तं भास्करे याते सन्ध्याकाल उपस्थिते। आजगाम स्वभवनं ब्रह्मलोकात्खगोत्तमः।। | 12-168-17a 12-168-17b |
नाडीजङ्घ इति ख्यातो दयितो ब्रह्मणः सखा। बकराजो महाप्राज्ञः काश्यपस्यात्मसंभवः।। | 12-168-18a 12-168-18b |
राजधर्मेति विख्यातो बभूवाप्रतिभो भुवि। देवकन्यासुतः श्रीमान्विद्वान्देवसमप्रभः।। | 12-168-19a 12-168-19b |
मृष्टहाटकसंछन्नो भूषणैरर्कसन्निभैः। भूषितः सर्वगात्रेषु देवगर्भः श्रिया ज्वलन्।। | 12-168-20a 12-168-20b |
तमागतं खगं दृष्ट्वा गौतमो विस्मितोऽभवत्। क्षुत्पिपासापरीतात्मा हिंसार्थं चैनमैक्षत।। | 12-168-21a 12-168-21b |
राजधर्मोवाच। | 12-168-22x |
स्वागतं भवतो विप्र दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मे गृहान्। अस्तं च सविता यातः संध्येयं समुपस्थिता।। | 12-168-22a 12-168-22b |
मम त्वं निलयं प्राप्तः प्रियातिथिरनिन्दितः। पूजितो यास्यसि प्रातर्विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 12-168-23a 12-168-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 168।। |
12-168-2 सामुद्रिकान् समुद्रोपान्ते गतान्।। 12-168-4 कां दिशं प्रयामीत्याकुलः कांदिग्भूतः।। 12-168-11 रम्येषु प्रदेशेषु मध्ये एकत्र।। 12-168-13 सभोपममिति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-167 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-169 |