महाभारतम्-12-शांतिपर्व-144
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महावृक्षनिवासिना कपोतेनाहारार्थं गतायां निजपत्न्यां रात्रावनागतायां तद्गुणानुवर्णनपूर्वकं तांप्रति शोचनम्।। 1।। भर्तृविलापं श्रुतवत्या व्याधपञ्जरस्थया कपोत्या धर्मोपन्यासपूर्वकं पतिंप्रति व्याधसत्कारचोदना।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-144-1x |
अथ वृक्षस्य शाखायां विहंगः ससुहृज्जनः। दीर्घकालोषितो राजंस्तत्र चित्रतनूरुहः।। | 12-144-1a 12-144-1b |
तस्य कल्यगता भार्या चरितुं नाभ्यवर्तत। प्राप्तां च रजनीं दृष्ट्वा स पक्षी पर्यतप्यत।। | 12-144-2a 12-144-2b |
वातवर्षं महच्चासीन्न चागच्छति मे प्रिया। किंनु तत्कारणं येन साऽद्यापि न निवर्तते।। | 12-144-3a 12-144-3b |
अपि स्वस्ति भवेत्तस्याः प्रियाया मम कानने।। तया विरहितं हीदं शून्यमद्य गृहं मम। | 12-144-4a 12-144-4b |
पुत्रपौत्रवधूभृत्यैराकीर्णमपि सर्वतः। भार्याहीनं गृहस्थस्य शून्यमेव गृहं भवेत्।। | 12-144-5a 12-144-5b |
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते। गृहं तु गृहिणीहीनमरण्यसदृशं मतम्।। | 12-144-6a 12-144-6b |
यदि सा रक्तेत्रान्ता चित्राङ्गी मधुरस्वरा। अद्य नाभ्येति मे कान्ता न कार्यं जीवितेन मे।। | 12-144-7a 12-144-7b |
न भुङ्क्ते मय्यभुक्ते या नास्नाते स्नाति सुव्रता। नातिष्ठत्युपतिष्ठेन शेते च शयिते मयि।। | 12-144-8a 12-144-8b |
हृष्टे भवति सा हृष्टा दुःखिते मयि दुःखिता। प्रोपिते दीनवदना क्रुद्धे च प्रियवादिनी।। | 12-144-9a 12-144-9b |
पतिधर्मव्रता साध्वी प्राणेभ्योऽपि गरीयसी। यस्य स्यात्तादृशी भार्या धन्यः स पुरुषो भुवि।। | 12-144-10a 12-144-10b |
सा हि श्रान्तं क्षुधार्तं च जानीते मां तपस्विनी। अनुरक्ता स्थिरा चैव भक्ता स्निग्धा यशस्विनी।। | 12-144-11a 12-144-11b |
वृक्षमूलेऽपि दयिता यस्य तिष्ठति तद्गृहम्। प्रासादोपि तया हीनः कान्तार इति निश्चितम्।। | 12-144-12a 12-144-12b |
धर्मार्थकामकालेषु भार्या पुंसः सहायिनी। विदेशगमने चास्य सैव विश्वासकारिका।। | 12-144-13a 12-144-13b |
भार्या हि परमो ह्यर्थः पुरुषस्येह पट्यते। असहायस्य लोकेऽस्मिँल्लोकयात्रासहायिनी।। | 12-144-14a 12-144-14b |
तथा रोगाभिभूतस्य नित्यं कृच्छ्रगतस्य च। नास्ति भार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजम्।। | 12-144-15a 12-144-15b |
नास्ति भार्यासमो बन्धुर्नास्ति भार्यासमा गतिः। नास्ति भार्यासमो लोके सहायो धर्मसंग्रहे।। | 12-144-16a 12-144-16b |
यस्य भार्या गृहे नास्ति साध्वी च प्रियवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथाऽरण्यं तथा गृहम्।। | 12-144-17a 12-144-17b |
भीष्म उवाच। | 12-144-18x |
एवं विलपतस्तस्य द्विजस्यार्तस्य वै तदा। गृहीता शकुनिघ्नेन भार्या शुश्राव भारतीम्।। | 12-144-18a 12-144-18b |
कपोत्युवाच। | 12-144-19x |
अहोऽतीव सुभाग्याऽहं यस्या मे दयितः पतिः। असतो वा सतो वाऽपि गुणानेवं प्रभाषते।। | 12-144-19a 12-144-19b |
सा हि स्त्रीत्यवगन्तव्या यस्य भर्ता तु तुष्यति। तुष्टे भर्तरि नारीणां तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः। अग्निसाक्षिकमप्येतद्भर्ता हि शरणं परम्।। | 12-144-20a 12-144-20b 12-144-20c |
दावाग्निनेव निर्दग्धा सपुष्पस्तबका लता। भस्मीभवति सा नारी यस्या भर्ता न तुष्यति।। | 12-144-21a 12-144-21b |
इति संचिन्त्य दुःखार्ता भर्तारं दुःखितं तदा। कपोती लुब्धकेनापि गृहीता वाक्यमब्रवीत्।। | 12-144-22a 12-144-22b |
हन्त वक्ष्यामि ते श्रेयः श्रुत्वा तु कुरु तत्तथा। शरणागतसंत्राता भव कान्त विशेषतः।। | 12-144-23a 12-144-23b |
एष शाकुनिकः शेते तव वासं समाश्रितः। शीतार्तश्च क्षुधार्तश्च पूजामस्मै समाचर।। | 12-144-24a 12-144-24b |
यो हि कश्चिद्द्विजं हन्याद्गां वा लोकस्य मातरम्। शरणागतं च यो हन्यात्तुल्यं तेषां च पातकम्।। | 12-144-25a 12-144-25b |
अस्माकं विहिता वृत्तिः कापोती जातिधर्मतः। सा न्याय्याऽऽत्मवता नित्यं त्वद्विधेनानुवर्तितुं।। | 12-144-26a 12-144-26b |
यस्तु धर्मं यथाशक्ति गृहस्थो ह्यनुवर्तते। स प्रेत्य लभते लोकानक्षयानिति शुश्रुम्।। | 12-144-27a 12-144-27b |
स त्वं संतानवानद्य पुत्रवानपि च द्विज। त्वं स्वदेहे दयां त्यक्त्वा धर्मार्थौ परिगृह्य य। पूजामस्मै प्रयुङ्क्ष्व त्वं प्रीयेतास्य मनो यथा।। | 12-144-28a 12-144-28b 12-144-28c |
शरीरे मा च संतापं कुर्वीथास्त्वं विहगंम। शरीरयात्रावृत्त्यर्थमन्यान्दारानुपैष्यसि।। | 12-144-29a 12-144-29b |
इति सा शकुनी वाक्यं पञ्जरस्था तपस्विनी। अतिदुःखान्विता प्रोक्त्वा भर्तारं समुदैक्षत।। | 12-144-30a 12-144-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशदधिशततमोऽध्यायः।। 144।। |
12-144-10 पतिव्रता पतिगतिः पतिप्रियहिते रता हि झ. पाठः।। 12-144-14 भार्या हि परमो नाथ इति ड. थ. पाठः।। 12-144-21 न सा स्त्रीत्यवगन्तव्या यस्यां भर्ता न तुष्यतीति झ. पाठः।।
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