महाभारतम्-12-शांतिपर्व-140
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शत्रुंतपाय भारद्वाजोक्तापद्धर्मानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-140-1x |
युगक्षयात्परिक्षीणे धर्मे लोके च भारत। दस्युभिः पीड्यमाने च कथं स्थेयं पितामह।। | 12-140-1a 12-140-1b |
भीष्म उवाच। | 12-140-2x |
हन्त ते वर्तयिष्यामि नीतिमापत्सु भारत। उत्सृज्यापि घृणां काले यथा वर्तेत भूमिपः।। | 12-140-2a 12-140-2b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। भारद्वाजस्य संवादं राज्ञः शत्रुंतपस्य च।। | 12-140-3a 12-140-3b |
राजात्शत्रुंतपो नाम सौवीरेषु महारथः। भारद्वाजमुपागम्य पप्रच्छार्थविनिश्चयम्।। | 12-140-4a 12-140-4b |
अलब्धस्य कथं लिप्सा लब्धं केन विवर्धते। वधितं पाल्यते केन पालितं प्रणयेत्कथम्।। | 12-140-5a 12-140-5b |
तस्मै विनिश्चितार्थाय परिपृष्टोऽर्थिश्चयम्। उवाच मतिमान्वाक्यमिदं हेतुमदुत्तमम्।। | 12-140-6a 12-140-6b |
नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः। अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी च परेषां विवरानुगः।। | 12-140-7a 12-140-7b |
नित्यमुद्यतदण्डस्य भृशमुद्विजते नरः। तस्मात्सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत्।। | 12-140-8a 12-140-8b |
एवमेव प्रशंसन्ति बुधा ये तत्त्वदर्शिनः। तस्माच्चतुष्टये तस्मिन्प्रधानो दण्ड उच्यते।। | 12-140-9a 12-140-9b |
छिन्नमूले त्वधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हताः। कथं हि शाखास्तिष्ठेयुश्छिन्नमूले वनस्पतौ।। | 12-140-10a 12-140-10b |
मूलमेवादितश्छिन्द्यादरिपक्षस्य पण्डितः। ततः सहायान्पक्षं च सर्वमेवानुशातयेत्।। | 12-140-11a 12-140-11b |
सुमन्त्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्। आपदागमकाले तु कुर्वीत न विचारयेत्।। | 12-140-12a 12-140-12b |
वाङ्भात्रेण विनीतः स्याद्धृदयेन यथा क्षुरः। श्लक्ष्णपूर्वाभिभाषी च कामक्रोधौ विवर्जयेत्।। | 12-140-13a 12-140-13b |
सपत्नसहितो राज्ये कृत्वा सन्धिं न विश्वसेत्। उपक्रामेत्ततः शीघ्रं कृतकार्यो विचक्षणः।। | 12-140-14a 12-140-14b |
शत्रुं च मित्रं पूर्वेण सान्त्वेनैवानुसान्त्वयेत्। नित्यशश्चोद्विजेत्तस्मात्सर्पाद्वेश्मगतादिव।। | 12-140-15a 12-140-15b |
यस्य बुद्धिं परिभवेत्तमतीतेन सान्त्वयेत्। अनागतेन दुष्प्रज्ञं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम्।। | 12-140-16a 12-140-16b |
अञ्जलिं शपथं सान्त्वं शिरसा पादवन्दनम्। अश्रुप्रपातनं चैव कर्तव्यं भूतिमिच्छता।। | 12-140-17a 12-140-17b |
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावदर्थस्य लम्भनम्। अथैनमागते काले भिन्द्याद्धटमिवाश्मनि।। | 12-140-18a 12-140-18b |
मुहूर्तमपि राजेन्द्र तिन्दुकालातवज्ज्वलेत्। मा तुषाग्निरिवानर्चिर्धूमायेत चिरं नरः।। | 12-140-19a 12-140-19b |
नानार्थिकोऽर्थसंबन्धं कृतघ्ने न समाचरेत्। अर्थी तु शक्यते भोक्तुं कृतकार्योऽवमन्यते। तस्मात्सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्।। | 12-140-20a 12-140-20b 12-140-20c |
कोकिलस्य वराहस्य मेरोः शून्यस्य वेस्मनः। व्यालस्य भक्तचित्तस्य यच्छ्रेयस्तत्समाचरेत्।। | 12-140-21a 12-140-21b |
उत्थायोत्थाय गच्छेच्च नित्ययुक्तो रिपोर्गृहम्। कुशलं चास्य पृच्छेत यद्यप्यकुशलं भवेत्।। | 12-140-22a 12-140-22b |
नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान्न क्लीबा नातिमानिनः। न च लोकरवाद्भीता न वै शश्वत्प्रतीक्षिणः।। | 12-140-23a 12-140-23b |
नास्य च्छिद्रं परो विद्याद्विद्याच्छिद्रं परस्य तु। गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः।। | 12-140-24a 12-140-24b |
बकवच्चिन्तयेदर्थान्सिंहवच्च पराक्रमेत्। वृकवच्चावलुम्पेत शरवच्च विनिष्पतेत्।। | 12-140-25a 12-140-25b |
पानमक्षास्तथा नार्यो मृगया गीतवादितम्। एतानि युक्त्या सेवेत प्रसङ्गो ह्यत्र दोषवान्।। | 12-140-26a 12-140-26b |
कुर्यात्तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्। अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि संश्रयेत्।। | 12-140-27a 12-140-27b |
देशकालं समासाद्य विक्रमेत विचक्षणः। देशकालव्यतीतो हि विक्रमो निष्फलो भवेत्।। | 12-140-28a 12-140-28b |
कालाकालौ संप्रधार्य बलाबलमथात्मनः। परस्य च बलं ज्ञात्वा तथाऽऽत्मानं नियोजयेत्।। | 12-140-29a 12-140-29b |
दण्डेनोपनतं शत्रुं यो राजा न नियच्छति। स मृत्युमुपगूहेत् गर्भमश्वतरी यथा।। | 12-140-30a 12-140-30b |
सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान्स्याद्दुरारुहः। आमः स्यात्पक्वसंकाशो न च शीर्येत कस्यचित्।। | 12-140-31a 12-140-31b |
आशां कालवतीं कुर्यात्तां च विघ्नेन योजयेत्। विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं चापि हेतुमत्।। | 12-140-32a 12-140-32b |
भीतवत्संविधातव्यं यावद्भयमनागतम्। आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत्।। | 12-140-33a 12-140-33b |
न साहसमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति। संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति।। | 12-140-34a 12-140-34b |
अनागतं विजानीयात्त्यजेद्भयमुपस्थितम्। पुनर्बुद्धिक्षयात्किंचिदनिवृत्तिं निशामयेत्।। | 12-140-35a 12-140-35b |
प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम्। अनागतसुखाशा च नैव बुद्धिमतां नयः।। | 12-140-36a 12-140-36b |
योऽरिणा सह संधाय विश्वस्तः स्वपते सुखम्। स वृक्षाग्रे प्रसुप्तो वा पतितः प्रतिबुध्यते।। | 12-140-37a 12-140-37b |
कर्मणा येन केनेह मृदुना दारुणेन वा। उद्धरेद्दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत्।। | 12-140-38a 12-140-38b |
ये सपत्नाः सपत्नानां सर्वांस्ताननुवर्तयेत्। आत्मनश्चापि बोद्धव्याश्चाराः सुमहिताः परैः।। | 12-140-39a 12-140-39b |
चारः सुविहितः कार्य आत्मनोऽथ परस्य च। पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रे प्रवेशयेत्।। | 12-140-40a 12-140-40b |
उद्यानेषु विहारेषु प्रपास्वावसथेषु च। पानागारे प्रवेशेषु तीर्थेषु च सभासु च।। | 12-140-41a 12-140-41b |
धर्माभिचारिणः पापाश्चौरा लोकस्य कण्टकाः। समागच्छन्ति तान्बुद्ध्वा नियच्छेच्छमयीत च।। | 12-140-42a 12-140-42b |
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्। विश्वासाद्भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्।। | 12-140-43a 12-140-43b |
विश्वासयित्वा तु परं तत्त्वभूतेन हेतुना। अथास्य प्रहरेत्काले किंचिद्विचलिते पदे।। | 12-140-44a 12-140-44b |
अशङ्क्यमपि शङ्केत नित्यं शङ्केत शङ्कितान। भयं ह्यशङ्किताज्जातं समूलमपि कृन्तति।। | 12-140-45a 12-140-45b |
अवधानेन मौनेन काषायेण जटाजिनैः। विश्वासयित्वा द्वेष्टारमवलुम्पेद्यथा वृकः।। | 12-140-46a 12-140-46b |
पुत्रो वा यदि वा भ्राता पिता वा यदि वा सुहृद। अर्थस्य विघ्नं कुर्वाणा हन्तव्या भूतिमिच्छता।। | 12-140-47a 12-140-47b |
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथं प्रतिपन्नस्य कार्यं भवति शासनम्।। | 12-140-48a 12-140-48b |
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां संप्रदानेन केनचित्। प्रपूजयन्निघाती स्यात्तीक्ष्णतुण्ड इव द्विजः। | 12-140-49a 12-140-49b |
नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्। नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति परमां श्रियम्।। | 12-140-50a 12-140-50b |
नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं वाऽपि न विद्यते। सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।। | 12-140-51a 12-140-51b |
न प्रमुञ्चेत दायादं वदन्तं करुणं बहु। दुःखं तत्र न कर्तव्यं हन्यात्पूर्वापकारिणम्।। | 12-140-52a 12-140-52b |
संग्रहानुग्रहे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता। निग्रहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो हितमिच्छता।। | 12-140-53a 12-140-53b |
प्रहरिष्यन्प्रियं ब्रूयात्प्रहृत्यापि प्रियोत्तरम्। असिनाऽपि शिरश्छित्त्वा शोचेत च रुदेत च।। | 12-140-54a 12-140-54b |
निमन्त्रयीत सान्त्वेन संमानेन तितिक्षया। आशाकरणमित्येतत्कर्तव्यं भूतिमिच्छता।। | 12-140-55a 12-140-55b |
न शुष्कवैरं कुर्वीत बाहुभ्यां न नदीं तरेत्। अनर्थकमनायुष्यं गोविषाणस्य भक्षणम्। दन्ताश्च परिमृद्यन्ते रसश्चापि न लभ्यते।। | 12-140-56a 12-140-56b 12-140-56c |
त्रिवर्गे त्रिविधा पीडा अनुबन्धस्तथैव च। अनुबन्धं तथा ज्ञात्वा पीडां च परिवर्जयेत्।। | 12-140-57a 12-140-57b |
ऋणशेषं चाग्निशेषं शत्रुशेषं तथैव च। पुनः पुनः प्रवर्धन्ते तस्माच्छेषं न कारयेत्।। | 12-140-58a 12-140-58b |
ऋणशेषां विवर्धन्ते परिभूताश्च शत्रवः। आवहन्त्यनयं तीव्रं व्याधयश्चाप्युपेक्षिताः।। | 12-140-59a 12-140-59b |
नाम---क्कृत्यकारी स्यादप्रमत्तः सदा भवेत्। कष्यकोपि हि दुश्छिन्नो विकारं कुरुते चिरम्।। | 12-140-60a 12-140-60b |
वधेम च मनुष्याणां मार्गाणां दूषणेन च। आकाराणां विनाशैश्च परराष्ट्रं विनाशयेत्।। | 12-140-61a 12-140-61b |
गृध्रदृष्टिर्बकालीनः श्वचेष्टः सिंहविक्रमः। अनुद्विग्रः काकशङ्की भुजङ्गचरितं चरेत्।। | 12-140-62a 12-140-62b |
शूरमञ्जलिपातेन भीरुं भेदेन भेदयेत्। लुब्धमर्थप्रदानेन समं तुल्येन विग्रहः।। | 12-140-63a 12-140-63b |
श्रेणीमुख्योपजापेषु वल्लभानुनयेषु च। अमात्यान्परिरक्षेत भेदसंघातयोरपि।। | 12-140-64a 12-140-64b |
मृदुरित्यवजानन्ति तीक्ष्ण इत्युद्विजन्ति च। तीक्ष्णकाले भवेत्तीक्ष्णो मृदुकाले मृदुर्भवेत्।। | 12-140-65a 12-140-65b |
मृदुनैव मृदुं हन्ति मृदुना हन्ति दारुणम्। नासाध्यं मृदुना किंचित्तस्मात्तीक्ष्णतरो मृदुः।। | 12-140-66a 12-140-66b |
काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुणः। स साधयति कृत्यानि शत्रुं चाप्यधितिष्ठति।। | 12-140-67a 12-140-67b |
पण्डितेन विरुद्धस्तु दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्। दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः।। | 12-140-68a 12-140-68b |
न तत्तरेद्यस्य न पारमुत्तरे न्न तद्धरेद्यत्पुनराहरेत्परः। न तत्खनेद्यस्य न मूलमुद्धरे न्न तं हन्याद्यस्य शिरो न पातयेत्।। | 12-140-69a 12-140-69b 12-140-69c 12-140-69d |
इतीदमुक्तं वृजिनाभिसंहितं न चैतदेवं पुरुषः समाचरेत्। परप्रयुक्तस्तु कथं विभावये दतो मयोक्तं भवतो हितार्थिना।। | 12-140-70a 12-140-70b 12-140-70c 12-140-70d |
भीष्म उवाच। | 12-140-71x |
यथावदुक्तं वचनं हितार्थिना निशम्य विप्रेण सुवीरराष्ट्रपः। तथाऽकरोद्वाक्यमदीनचेतनः श्रियं च दीप्तां बुभुजे सबान्धवः।। | 12-140-71a 12-140-71b 12-140-71c 12-140-71d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 140।। |
12-140-2 घृणां दयाम्। तथा वर्तेत भूमिपः इति ट. ड. थ. द. पाठः।। 12-140-3 शत्रुंजयस्य च इति झ. पाठः।। 12-140-20 नानार्थिकः बहुप्रयोजनवान्। कृतघ्ने पुरुषे अर्थसंबन्धं न समाचरेत्।। 12-140-21 वराहस्य श्रेयोमूलोत्खननम्। तच्च राजा शूत्रूणां कुर्यात्। मेरोरचञ्चलत्वमनुल्लङ्घनीयत्वं च शून्यस्य वेश्मनः संपदागम इष्टस्तमिच्छेत्। व्यालस्य सर्पवदन्ध्यकोपत्वमिष्टं तमङ्गीकुर्यात्। नटस्य भक्तिमित्रस्य इति झ. पाठः। तत्र नटस्य जानारूपत्वमिष्टम्। एवं राजा स्त्रिग्धप्रसन्नादीन् गुणान् बिभृयात्। भक्तिमित्रस्य स्वाराध्योदय इष्ट एवं स्वप्रतिपाल्यानां प्रजानामुदयो राज्ञा नित्यमेष्टव्य इत्यर्थः।। 12-140-25 बकातीनामेकाग्रत्वं निर्भयत्वं शीघ्रकारित्वमपरावृत्तित्वं च गुणास्तान् परार्थादाने राजाश्रयेदित्यर्थः।। 12-140-30 अश्वतरी गर्दभजाऽश्व उदरभेदेनैव प्रसूत इति प्रसिद्धम्।। 12-140-34 न संशयमनारुह्य इति झ. पाठः।। 12-140-40 पाषण्डाद्यैरविज्ञातैर्विदित्वारिंवशं नयेत्। इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-140-47 कर्तव्या भृतिमिच्छता इति ट. पाठः। त्यक्तव्या भूतिमिच्छता इति ध. पाठः।। 12-140-56 शुष्क्रं लाभशून्यम्।। 12-140-57 त्रिवर्गः धर्मार्थकामाः तत्र त्रिविधा पीडा। धर्मेणार्थस्य पीडा अर्थेन धर्मस्य कामेन तयोरिति। अनुबन्धाः फलानि। धर्मस्यार्थः अर्थस्य कामः कामस्येन्द्रियप्रीतिरिति क्षुद्राः। धर्मस्य चित्तशुद्धिरर्थस्य यज्ञः कामस्य जीवनमात्रमिति प्राज्ञाः। तत्र बलाबलं ज्ञात्वाऽनुबन्धाँल्लिप्सेत पीडां तु पारवर्जयेदेवेत्यर्थः। पीडां विद्वान्वशं नयेदिति ड. थ. पाठः।। 12-140-62 गृध्रदृष्टिगृध्रवत् दूरदर्शी। बकवदालीनो निश्चलः। श्वचेष्टः शुनकवज्जागरूकश्चोरसूचकश्च। काकवत् शङ्की परेङ्गितज्ञः। भुजङ्गचरितं अकस्मात्परकृते दुर्गादौ प्रवेशनम्।। 12-140-64 श्रेणीमुख्यः नानाजातियाः सन्त एककार्ये निविष्टाः श्रेणयस्तासां मुख्यस्य उपजापो भेदः वल्लभानां मित्राणामनुनयेषु अन्यैः कियमाणेषु अमात्यान्परिरक्षेत। भेदात्संघातात्संभूयकार्यकारित्वाच्च। संहता ह्यामात्याः सद्यो राजानमराजानं कुर्युर्विपरीतं वा कुर्युरित्यर्थ-।। 12-140-70 वृजिनाभिसंहितं आपत्कालाभिप्रायेणैवैतदुक्तं नत्वेतदेवं पुरुषः समाचरेत्। परेणाभियोगे कृते सति। इदं मदुक्तं कथं न भावयेत् अपितु भावयेदेव। आपदि एतदनुष्ठानादधर्मो नास्तीति भावः।।
शांतिपर्व-139 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-141 |