महाभारतम्-12-शांतिपर्व-022
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युधिष्ठिरंप्रत्यर्जुनवचनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-22-1x |
अस्मिन्नेवान्तरे वाक्यं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्। निर्विण्णमनसं ज्येष्ठमिदं भ्रातरमच्युतम्।। | 12-22-1a 12-22-1b |
क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ प्राप्य राज्यं सुदुर्लभम्। जित्वा चारीन्नरश्रेष्ठ तप्यते किं भृशं भवान्।। | 12-22-2a 12-22-2b |
क्षत्रियाणां महाराज संग्रामे निधनं मतम्। विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर।। | 12-22-3a 12-22-3b |
ब्राह्मणानां तपस्त्यागः प्रेत्य धर्मविधिः स्मृतः। क्षत्रियाणां च निधनं संग्रामे विहितं प्रभो।। | 12-22-4a 12-22-4b |
क्षात्रधर्मो महारौद्रः शस्त्रनित्य इति स्मृतः। वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे।। | 12-22-5a 12-22-5b |
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन्क्षत्रधर्मेण वर्ततः। प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसंभवम्।। | 12-22-6a 12-22-6b |
न त्यागो न पुनर्यज्ञो न तपो मनुजेश्वर। क्षत्रियस्य विधीयन्ते न परस्वोपजीवनम्।। | 12-22-7a 12-22-7b |
स भवान्सर्वधर्मज्ञो धर्मात्मा भरतर्षभ। राजा मनीषी निपुणो लोके दृष्टपरावरः।। | 12-22-8a 12-22-8b |
त्यक्त्वा संतापजं शोकं दंशितो भव कर्मणि। क्षत्रियस्य विशेषेण हृदयं वज्रसन्निभम्।। | 12-22-9a 12-22-9b |
जित्वाऽरीन्क्षत्रधर्मेण प्राप्य राज्यमकण्टकम्। विजितात्मा मनुष्येन्द्र यज्ञदानपरो भव।। | 12-22-10a 12-22-10b |
इन्द्रो वै ब्रह्मणः पुत्रः क्षत्रियः कर्मणाऽभवत्। ज्ञातीनां पापवृत्तीनां जघान नवतीर्नव।। | 12-22-11a 12-22-11b |
तच्चास्य कर्म पूज्यं च प्रशस्यं च विशांपते। तेनेन्द्रत्वं समापेदे देवानामिति नः श्रुतम्।। | 12-22-12a 12-22-12b |
स त्वं यज्ञैर्महाराज यजस्व बहुदक्षिणैः। यथैवेन्द्रो मनुष्येन्द्र चिराय विगतज्वरः।। | 12-22-13a 12-22-13b |
मा त्वमेवं गते किंचिच्छोचेथाः क्षत्रियर्षभ। गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूताः परां गतिम्।। | 12-22-14a 12-22-14b |
भवितव्यं तथा तच्च यद्वृत्तं भरतर्षभ। दिष्टं हि राजशार्दूल न शक्यमतिवर्तितुम्।। | 12-22-15a 12-22-15b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः।। 22।। |
12-22-1 अच्युतं धर्मात्।। 12-22-4 त्यागः संन्यासः।। 12-22-7 यज्ञ आत्ययज्ञः। समाधिरिति याव्नत्।। 12-22-9 दंशितः सन्नद्धः।। 12-22-11 ब्रह्मणः कश्यपस्य। नवतीर्नव दशाधिक शताष्टकम्।। 12-22-12 इन्द्रत्वमैश्वर्यम्।।
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