महाभारतम्-12-शांतिपर्व-084
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति इन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-84-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। बृहस्पतेश्च संवादं शक्रस्य च युधिष्ठिर।। | 12-84-1a 12-84-1b |
शक्र उवाच। | 12-84-2x |
किंस्विदेकपढं ब्रह्मन्पुरुषः सम्यगाचरन्। प्रमाणं सर्वभूतानां यशश्चैवाप्नुयान्महत्।। | 12-84-2a 12-84-2b |
बृहस्पति उवाच। | 12-84-3x |
सान्त्वमेकपदं शक्र पुरुषः सम्यगाचरन्। प्रमाणं सर्वभूतानां यशश्चैवाप्नुयान्महत्।। | 12-84-3a 12-84-3b |
एतदेकपदं शक्र सर्वलोकसुखावहम्। आचरन्सर्वभूतेषु प्रियो भवति सर्वदा।। | 12-84-4a 12-84-4b |
यो हि नाभाषते किंचित्सर्वदा भुकुटीमुखः। द्वेष्यो भवति भूतानां स सान्त्वमिह नाचरन्।। | 12-84-5a 12-84-5b |
यस्तु सर्वमभिप्रेक्ष्य पूर्वमेवाभिभाषते। स्मितपूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति।। | 12-84-6a 12-84-6b |
दानमेव हि सर्वत्र सान्त्वेनानभिजल्पितम्। न प्रीणयति भूतानि निर्व्यञ्जनमिवाशनम्।। | 12-84-7a 12-84-7b |
आददन्नपि भूतानां मधुरामीरयन्गिरम्। सर्वलोकमिमं शक्र सान्त्वेव कुरुते वशे।। | 12-84-8a 12-84-8b |
तस्मात्सान्त्वं प्रयोक्तव्यं दण्डमाधित्सताऽपि हि। प्रीतिं च जनयत्येवं न चास्योद्विजते जनः।। | 12-84-9a 12-84-9b |
सुकृतस्य हि सान्त्वस्य श्लक्ष्णस्य मधुरस्य च। सम्यगासेव्यमानस्य तुल्यं जातु न विद्यते।। | 12-84-10a 12-84-10b |
भीष्म उवाच। | 12-84-11x |
इत्युक्तः कृतवान्सर्वं यथा शक्रः पुरोधसा। तथा त्वमपि कौन्तेय सम्यगेतत्समाचर।। | 12-84-11a 12-84-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः।। 84।। |
12-84-1 अत्र मन्त्रमूलभूते प्रजासंग्रहणे विषये।। 12-84-2 एकपदं यत्र सर्वे गुणाः अन्तर्भवन्ति तदेव कर्तव्यं वस्तु। प्रमाणं संमतम्।। 12-84-3 सान्त्वं निष्कपटं प्रियवचनम्।। 12-84-5 नाभाषते तूष्णीमास्ते। नाचरन् अनाचरन्।।
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