महाभारतम्-12-शांतिपर्व-103
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शत्रुजयोपायादिप्रतिपादकेन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-103-1x |
कथं मृदौ कथं तीक्ष्णे महापक्षे च भारत। अरौ वर्तेत नृपतिस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-103-1a 12-103-1b |
भीष्म उवाच। | 12-103-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। बृहस्पतेश्च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर।। | 12-103-2a 12-103-2b |
बृहस्पतिं देवपतिरभिवाद्य कृताञ्जलिः। उपसंगम्य पप्रच्छ वासवः परवीरहा।। | 12-103-3a 12-103-3b |
अहितेषु कथं ब्रह्मन्प्रवर्तेयमतन्द्रितः। असमुछिद्य चैवैतान्नियच्छेयमुपायतः।। | 12-103-4a 12-103-4b |
सेनयोर्थ्यतिषङ्गे च जयः साधारणो भवेत्। किं कुर्वाणं न मां जह्याज्ज्वलिता श्रीः प्रतापिनी।। | 12-103-5a 12-103-5b |
ततो र्मार्थकामानां कुशलः प्रतिभानवान्। राजधर्मविधानज्ञः प्रत्युवाच पुरंदरम्।। | 12-103-6a 12-103-6b |
न जा कलहेनेच्छेन्नियन्तुमपकारिणः। बालैर सवितं ह्येतद्यदमर्षो यदक्षमा।। | 12-103-7a 12-103-7b |
न शत्रुर्विवृतः कार्यो वधमस्याभिकाङ्क्षता।। | 12-103-8a |
क्रोधं भयं च हर्षं च नियम्य स्वयमात्मनि। अमित्र पसेवेत विश्वस्तवदविश्वसन्।। | 12-103-9a 12-103-9b |
प्रियमेव वदेन्नित्यं नाप्रियं किंचिदाचरेत्। विरमेच्छुष्कवैरेभ्यः कर्णजापं च वर्जयेत्।। | 12-103-10a 12-103-10b |
यथा वैतंसिको युक्तो द्विजानां सदृशस्वरः। तान्द्विजान्कुरुते वश्यांस्तथायुक्तो महीपतिः। वशं चोपनयेच्छत्रून्निहन्याच्च पुंरदर।। | 12-103-11a 12-103-11b 12-103-11c |
न नित्यं परिभूयारीन्सुखं स्वपिति वासव। जागर्त्येव हि दुष्टात्मा संकरेऽग्निरिवोत्थितः।। | 12-103-12a 12-103-12b |
न सन्निपातः कर्तव्यः सामान्ये विजये सति। विश्वास्यैवोपसंनम्यो वशे कृत्वा रिपुः प्रभो।। | 12-103-13a 12-103-13b |
संप्रधार्य सहामात्यैर्मन्त्रविद्भिर्महात्मभिः। उपेक्ष्यमाणो विज्ञातो हृदयेनापराजितः। अथास्य प्रहरेत्काले विधेर्वित्तलितो यदा।। | 12-103-14a 12-103-14b 12-103-14c |
दण्डं च दूषयेदस्य पुरुषैराप्तकारिभिः।। | 12-103-15a |
आदिमध्यावसानज्ञान्प्रच्छन्नं च विचारयेत्। बलानि दूषयेदस्य जानन्नेव प्रमाणतः।। | 12-103-16a 12-103-16b |
भेदेनोपप्रदानेन संसृजेदौषधैस्तथा। न त्वेव खलु संसर्गं रोचयेदरिभिः सह।। | 12-103-17a 12-103-17b |
दीर्घकालमपीक्षेत्त निग्राह्या एव शत्रवः। कालकाङ्गी च युक्तः सन्नुपासीत शचीपते।। | 12-103-18a 12-103-18b |
तथा प्रियं च वक्तव्यं यथा विस्रम्भमाप्नुयात्। न सद्योऽरीन्विहन्याच्च द्रष्टव्यो विजयो ध्रुवः। भूयः शल्यं घटयति नवं च कुरुते व्रणम्।। | 12-103-19a 12-103-19b 12-103-19c |
प्राप्ते च प्रहरेत्काले न च संवर्तते पुनः। हन्तुकामस्य देवेन्द्र पुरुषस्य रिपून्प्रति।। | 12-103-20a 12-103-20b |
यं हि कालो व्यतिक्रामेत्पुरुषं कालकाङ्क्षिणम्। दुर्लभः स पुनस्तेन कालः कर्म चिकीर्षता।। | 12-103-21a 12-103-21b |
औजस्यं जनयेदेव संगृह्णन्साधुसंमतम्। कालेन साधयेत्कृत्यमप्राप्तो न हि पीडयेत्।। | 12-103-22a 12-103-22b |
विहाय कामं क्रोधं च तथाऽहंकारमेव च। युक्तो विवरमन्विच्छेदहितानां सदा नृपः।। | 12-103-23a 12-103-23b |
मार्दवं दण्ड आलस्यं प्रमादश्च सुरोत्तम। मायाः सुविहिताः शक्र शातयन्त्यविचक्षणम्।। | 12-103-24a 12-103-24b |
निहत्यैतानि चत्वारि मायां प्रतिविधाय च। ततः शक्नोति शत्रूणां प्रहर्तुमविचारयन्।। | 12-103-25a 12-103-25b |
यदेवैतेन शक्येत गुह्यं कर्तुं तदाऽऽचरेत्। यच्छन्ति सतिवा गुह्यं मिथो विश्रावयन्त्यपि।। | 12-103-26a 12-103-26b |
अशक्यमिति कृत्वा वा ततोऽन्यैः संविदं चरेत्। ब्रह्मदण्डमदृष्टेषु दृष्टेषु चतुरङ्गिणीम्।। | 12-103-27a 12-103-27b |
भेदं च प्रथमं विद्यात्तूष्णीं दण्डं तथैव च। काले प्रयोजयेद्राजा तस्मिंस्तस्मिंस्तदातदा।। | 12-103-28a 12-103-28b |
प्रणिपातं च गच्छेत काले शत्रोर्बलीयसः। युक्तोऽस्य वधमन्विच्छेदप्रमत्तः प्रमाद्यतः।। | 12-103-29a 12-103-29b |
प्रणिपातेन दानेन वाचा मधुरया ब्रुवन्। अमित्रमुपसेवेत न च जातु विशङ्कयेत्।। | 12-103-30a 12-103-30b |
स्थानानि शङ्कितानां च नित्यमेव विवर्जयेत्। न च तेष्वाश्वसेद्राजा जाग्रतीह निराकृताः।। | 12-103-31a 12-103-31b |
न ह्यतो दुष्करं कर्म किंचिदस्ति सुरोत्तम। यथा विविधवृत्तानामैश्वर्यममराधिप।। | 12-103-32a 12-103-32b |
तथा विविधशीलानामपि संभव उच्यते। प्रयतेद्योगमास्थाय मित्रामित्रानधारयन्।। | 12-103-33a 12-103-33b |
मृदुमप्यवमन्यन्ते तीक्ष्णादुद्विजते जनः। मातीक्ष्णो मा मृदुर्भूस्त्वं तीक्ष्णो भव मृदुर्भव।। | 12-103-34a 12-103-34b |
यथा वप्रे वेगवति सर्वतः संप्लतोदके। नित्यं विचरणाद्वाधस्तथा राज्यं प्रमाद्यतः।। | 12-103-35a 12-103-35b |
न बहूनुपरुध्येत यौगपद्येन शात्रवान्। साम्ना दानेन भेदेन दण्डेन च पुरंदर।। | 12-103-36a 12-103-36b |
एकैकमेषां निष्पिष्य शिष्टेषु निपुणं चरेत्। न तु शक्तोऽपि मेधावी सर्वानेवाचरेद्बुधः।। | 12-103-37a 12-103-37b |
यदा स्यान्महती सेना हयनागरथाकुला। पदातियन्त्रबहुला अनुरक्ता षडङ्गिनी।। | 12-103-38a 12-103-38b |
यदा बहुविधां वृद्धिं मन्येत प्रतियोगतः। तदा विवृत्य प्रहरेद्दस्यूनामविचारयन्।। | 12-103-39a 12-103-39b |
न साम दण्डोपनिषत्प्रशस्यते न मार्दवं शत्रुषु यात्रिकं सदा। न सस्यघातो न च संकरक्रिया न चापि भूयः प्रकृतेर्विचारणा।। | 12-103-40a 12-103-40b 12-103-40c 12-103-40d |
मायाविभेदानुपसर्जनानि वाचं तथैव प्रथमं प्रयोगात्। आप्तैर्मनुष्यैरुपचारयेत पुरेषु राष्ट्रेषु च संप्रयुक्तान्।। | 12-103-41a 12-103-41b 12-103-41c 12-103-41d |
पुराऽपि चैताननुसृत्य भूमिपाः पुरेषु भोगानखिलाञ्जयन्ति पुरेषु नीतिं विहितां यथाविधि प्रयोजयन्तो बलवृत्रसूदन।। | 12-103-42a 12-103-42b 12-103-42c 12-103-42d |
प्रदाय गूढानि वसूनि नाम प्रच्छिद्य भोगानपहाय च स्वान्। दुष्टाः स्वदोषैरिति कीर्तयित्वा पुरेषु राष्ट्रेषु च योजयन्ति।। | 12-103-43a 12-103-43b 12-103-43c 12-103-43d |
तथैव चान्यैरपि शास्त्रवेदिभिः स्वलंकृतैः शास्त्रविधानलिङ्गितैः। सुशिक्षितैर्भाष्यकथाविशारदैः परेषु कृत्यामुपधारयेच्च।। | 12-103-44a 12-103-44b 12-103-44c 12-103-44d |
इन्द्र उवाच। | 12-103-45x |
कानि लिङ्गानि दुष्टस्य भवन्ति द्विजसत्तम। कथं दुष्टं विजानीयादेतत्पुष्टो ब्रवीहि मे।। | 12-103-45a 12-103-45b |
बृहस्पतिरुवाच। | 12-103-46x |
परोक्षमगुणानाह सद्रुणानभ्यसूयति। परैर्वा कीर्त्यमानेषु तूष्णीमास्ते पराङ्भुखः।। | 12-103-46a 12-103-46b |
तूष्णींभावेऽपि विज्ञेयं न चेद्भवति कारणम्। विश्वासं चोष्ठसंदंशं शिरसश्च प्रकम्पनम्।। | 12-103-47a 12-103-47b |
करोत्यभीक्ष्णं संसृष्टमसंसृष्टश्च भाषते। अदृष्टवद्विकुरुते दृष्ट्वा वा नाभिभाषते।। | 12-103-48a 12-103-48b |
पृथगेत्य समश्नाति नेदमद्य यथाविधि। आसने शयने याने भावा लक्ष्या विशेषतः।। | 12-103-49a 12-103-49b |
आर्तिरार्ते प्रिये प्रीतिरेतावन्मित्रलक्षणम्। विपरीतं तु बोद्धव्यमरिलक्षणमेव तत्।। | 12-103-50a 12-103-50b |
एतान्येव यथोक्तानि बुध्येथास्त्रिदशाधिप। पुरुषाणां प्रदुष्टानां स्वभावो बलवत्तरः।। | 12-103-51a 12-103-51b |
इति दुष्टस्य विज्ञानमुक्तं ते सुतसत्तम। निशाम्य शास्त्रतत्त्वार्थं यथावदमरेश्वरः।। | 12-103-52a 12-103-52b |
भीष्म उवाच | 12-103-53x |
स तद्वचः शत्रुनिबर्हणे रत स्तथा चकारावितथं बृहस्पतेः। चचार काले विजयाय चारिहा वशं च शत्रूननयत्पुरंदरः।। | 12-103-53a 12-103-53b 12-103-53c 12-103-53d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।। 103।। |
12-103-5 व्यतिषङ्गे मिश्रणे युद्धे इत्यर्थः। साधारणोऽनियतः।। 12-103-6 प्रत्युवाच गुरुः।। 12-103-7 विवृतः सावधानः।। 12-103-11 वितसः पक्षिबन्धनोपायस्तदुपजीवी वैतंसिकः।। 12-103-12 स्वपिति महीपतिरित्यनुकर्षः।। 12-103-13 सामान्ये अनिश्चिते।। 12-103-14 प्रहरेत्काले किंचिद्विचलिते पदे इति झ. पाठः।। 12-103-15 किंचास्य दण्डं सेनां च भेदेन दूषयेत्सः।। 12-103-17 औषधैर्विषादिभिः।। 12-103-20 रिपून्प्रति हन्तुकामस्य।। 12-103-25 चत्वारि मार्दवादीनि।। 12-103-26 यच्छन्ति निगृह्णन्ति।। 12-103-27 अदृष्टेषु दूरस्थेषु ब्रह्मदण्डं पुरोहितद्वारमभिचारं प्रयुञ्जयात्। दृष्टे प्रत्यक्षशत्रौ चतुरङ्गिणीमपि प्रयुञ्ज्यात्।। 12-103-32 विविधवृत्तानां अस्थिराणाम्।। 12-103-35 वेगवति पूरे सति वप्रे तटे विचरणाद्विदारणाद्वाध इति योजना।। 12-103-38 षडङ्गिनी रथतुरगमातङ्गपदातिकोशवणिक्पथवती।। 12-103-39 विवृत्य प्रकटीभूय। दस्यूनां दस्यून्।। 12-103-40 बलवति शत्रौ साम न प्रशस्यते किं तर्हि दण्डोपनिषत् रहस्यदण्डः। अत एव शत्रुषु मार्दवं पार्यन्तिकं न कार्यम्। नापि यात्रिकं सदा कार्यम्। जयस्यानि यतत्वात्। यात्रायां हि सस्यानां घातः। संकरक्रिया विषादिना जलादीनां नाशनम्। भूयः पुनः पुनः प्रकृते सप्तविधायाः विचारणा तस्मात्कपटपूर्वको दण्डएव श्रेयानित्यर्थः।। 12-103-41 मायाविभेदान्नानाविधा मायाः प्रयुञ्जीत। तत उपसर्जनानि परस्परमितरेषां शत्रूणामुत्थापनादीनि।। 12-103-42 एतान् शत्रून्पुरेषु तत्तत्स्थानेषु अनुसृत्य भोगांस्तदीयान् जयन्ति। नीतिं पुरेषु स्वीयतेषु।। 12-103-43 अनुसरणभेवाह प्रदायेति। एते न ममामात्याः दुष्टाः मां त्यक्त्वा राजान्तारं प्रतिगता इति लोकमुखात्कीर्तयित्वा परेषां पुरेषु राष्ट्रेषु च तान्यो जयन्ति।। 12-103-44 कृत्यामिव कृत्यां मृत्युकारिणीं देवताम।। 12-103-47 तच्चेद्भवति कारणमिति थ.द. पाठः।। 12-103-48 संसृष्टं संसर्गम्। असंसृष्टश्च परइव भाषते।।
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