महाभारतम्-12-शांतिपर्व-292
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्ञानस्य दुःखादिनिवर्तकत्वप्रतिपादकनारदसमङ्गसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-292-1x |
शोकाद्दुःखाच्च मृत्योश्च त्रसन्ते प्राणिनः सदा। उभयं नो यथा न स्यात्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-292-1a 12-292-1b |
भीष्म उवाच। | 12-292-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। नारदस्य च संवादं समङ्गस्य च भारत।। | 12-292-2a 12-292-2b |
नारद उवाच। | 12-292-3x |
उरसेव प्रणमसे बाहुभ्यां तरसीव च। संप्रहृष्टमना नित्यं विशोक इव लक्ष्यसे।। | 12-292-3a 12-292-3b |
उद्वेगं न हि ते किंचित्सुसूक्ष्ममपि लक्षये। नित्यतृप्त इव स्वस्थो बालवच्च विचेष्टसे।। | 12-292-4a 12-292-4b |
समङ्ग उवाच। | 12-292-5x |
भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वभूतेषु नारद। तेषां तत्त्वानि जानामि ततो न विमना ह्यहम्।। | 12-292-5a 12-292-5b |
उपक्रमानहं वेद पुनरेव फलोदयान्। लोके फलानि चित्राणि ततो न विमना ह्यहम्।। | 12-292-6a 12-292-6b |
अनाथाश्चाप्रतिष्ठाश्च गतिमन्तश्च नारद। अन्धा जडाश्च जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः।। | 12-292-7a 12-292-7b |
विहितेनैव जीवन्ति अरोगाङ्गा दिवौकसः। बलवन्तोऽबलाश्चैव तद्वदस्मान्सभाजय।। | 12-292-8a 12-292-8b |
सहस्रिणोऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनस्तथा। शाकेन चान्ये जीवन्ति पश्यास्मानपि जीवतः।। | 12-292-9a 12-292-9b |
यदा न शोचेमहि किं नु नः स्या द्धर्मेण वा नारद कर्मणा वा। कृतान्तवश्यानि यदा सुखानि दुःखानि वा यन्न विधर्षयन्ति।। | 12-292-10a 12-292-10b 12-292-10c 12-292-10d |
यस्मै प्राज्ञाः कथयन्ते मनुष्याः प्रज्ञामूलं हीन्द्रियाणां प्रसादः। मुह्यन्ति शोचन्ति तथेन्द्रियाणि प्रज्ञालाभो नास्ति मूढेन्द्रियस्य।। | 12-292-11a 12-292-11b 12-292-11c 12-292-11d |
मूढस्य दर्पः स पुनर्मोह एव मूढस्य नायं न परोऽस्ति लोकः। न ह्येव दुःखानि सदा भवन्ति सुखस्य वा नित्यशो लाभ एव।। | 12-292-12a 12-292-12b 12-292-12c 12-292-12d |
भावात्मकं संपरिवर्तमानं न मादृशः संज्वरं जातु कुर्यात्। इष्टान्भोगान्नानुरुध्येत्सुखं वा न चिन्तयेद्दुःखमभ्यागतं वा।। | 12-292-13a 12-292-13b 12-292-13c 12-292-13d |
समाहितो न स्पृहयेत्परेषां नानागतं चाभिनन्देच्च लाभम्। न चापि हृष्येद्विपुलेऽर्थलाभे तथाऽर्थनाशे च न वै विषीदेत्।। | 12-292-14a 12-292-14b 12-292-14c 12-292-14d |
न बान्धवा न च वित्तं न कौल्यं न च श्रुतं न च मन्त्रा न वीर्यम्। दुःखान्त्रातुं सर्व एवोत्सहन्ते परत्र शीलेन तु यान्ति शान्तिम्।। | 12-292-15a 12-292-15b 12-292-15c 12-292-15d |
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य नायोगाद्विन्दते सुखम्। धृतिश्च दुःखत्यागश्चेत्युभयं तु सुखं नृप।। | 12-292-16a 12-292-16b |
प्रियं हि हर्षजननं हर्ष उत्सेकवर्धनः। उत्सेको नरकायैव तस्मात्तान्संत्यजाम्यहम्।। | 12-292-17a 12-292-17b |
एताञ्शोकभयोत्सेकान्मोहनान्सुखदुःखयोः। पश्यामि साक्षिवल्लोके देहस्यास्य विचेष्टनात्।। | 12-292-18a 12-292-18b |
अर्थकामौ परित्यज्य विशोको विगतज्वरः। तृष्णामोहौ तु संत्यज्य चरामि पृथिवीमिमाम्।। | 12-292-19a 12-292-19b |
न च मृत्योर्न चाधर्मान्न लोभान्न कुतश्चन। पीतामृतस्येवात्यन्तमिह वामुत्र वा भयम्।। | 12-292-20a 12-292-20b |
एतद्ब्रह्मन्विजानामि महत्कृत्वा तपोऽव्ययम्। तेन नारद संप्राप्तो न मां शोकः प्रबाधते।। | 12-292-21a 12-292-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 292।। |
12-292-8 पशवोऽपि हि जीवन्तीति तद्वदस्मान्विभावयेति च. ध. पाठः।। 12-292-10 दुःखानि चार्थं न विवर्धयन्तीति ध. पाठः।। 12-292-11 यत्प्रज्ञानं कथयन्ते इति थ. पाठः।। 12-292-16 नायोगे विन्दते सुखमिति। मतिः सुखं च योगः स्यादुभयं न सुखोदयमिति च झ. पाठः।।
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