महाभारतम्-12-शांतिपर्व-068
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युधिष्ठिरंप्रति भीष्मेण राजनीतिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-68-1x |
पार्थिवेन विशेषेण किं कार्यमवशिष्यते। कथं रक्ष्यो जनपदः कथं वध्याश्च शत्रवः।। | 12-68-1a 12-68-1b |
कथं चारान्प्रयुञ्जीत वर्णान्विश्वासयेत्कथम्। कथं भृत्यान्कथं दारान्कथं पुत्रांश्च भारत।। | 12-68-2a 12-68-2b |
भीष्म उवाच। | 12-68-2x |
राजवृत्तं महाराज शृणुष्वावहितोऽखिलम्। यत्कार्यं पार्थिवेनादौ पार्थिवप्रकृतेन वा।। | 12-68-3a 12-68-3b |
आत्मा जेयः सदा राज्ञा ततो जेयाश्च शत्रवः। अजितात्मा नरपतिर्विजयेत कथं रिपून्।। | 12-68-4a 12-68-4b |
एतावानात्मविजयः पञ्चवर्गविनिग्रहः। जितेन्द्रियो नरपतिर्बाधितुं शक्नुयाद्रिपुन्।। | 12-68-5a 12-68-5b |
न्यसेत गुल्मान्दुर्गेषु सन्धौ च कुरुनन्दन। नगरोपवने चैव पुरोद्याने तथैव च।। | 12-68-6a 12-68-6b |
संस्थानेषु च सर्वेषु पुटेषु नगरस्य च। मध्ये च नरशार्दूल तथा राजनिवेशने।। | 12-68-7a 12-68-7b |
प्रणिर्धीश्च ततः कुर्याज्जडान्धबधिराकृतीन्। पुंसः परीक्षितान्प्राज्ञान्क्षुत्पिपासाश्रमक्षमान्।। | 12-68-8a 12-68-8b |
अमात्येषु च सर्वेषु मित्रेषु त्रिविधेषु च। पुत्रेषु च महाराज प्रणिदध्यात्समाहितः।। | 12-68-9a 12-68-9b |
पुरे जनपदे चैव तथा सामन्तराजसु। यथा न विद्युरन्योन्यं प्रणिधेयास्तथा हि ते।। | 12-68-10a 12-68-10b |
चारांश्च विद्यात्प्रहितान्परेण भरतर्षभ। आपणेषु विहारेषु समवायेषु वीथिषु।। | 12-68-11a 12-68-11b |
आरामेषु तथोद्याने पण्डितानां समागमे। वेशेषु चत्वरे चैव सभास्वावसथेषु च।। | 12-68-12a 12-68-12b |
एवं विहन्याच्चारेण परचारं विचक्षणः। चारे च विहते सर्वं हतं भवति भारत।। | 12-68-13a 12-68-13b |
यदा तु हीनं नृपतिर्विद्यादात्मानमात्मना। अमात्यैः सह संमन्त्र्य कुर्यात्सन्धिं बलीयसा।। | 12-68-14a 12-68-14b |
`विद्वांसः क्षत्रिया वैश्या ब्राह्मणाश्च बहुश्रुताः। दण्डनीतौ तु निष्पन्ना मन्त्रिणः पृथिवीपते।। | 12-68-15a 12-68-15b |
प्रष्टव्यो ब्राह्मणः पूर्वं नीतिशास्त्रस्य तत्ववित्। पश्चात्पृच्छेत भूपालः क्षत्रियं नीतिकोविदम्। वैश्यशूद्रौ तथा भूयः शास्त्रज्ञौ हितकारिणौ।। ' | 12-68-16a 12-68-16b 12-68-16c |
अज्ञायमाने हीनत्वे सन्धिं कुर्यात्परेण वै। लिप्सुर्वा कंचिदेवार्थं त्वरमाणो विचक्षणः।। | 12-68-17a 12-68-17b |
गुणवन्तो महोत्साहा धर्मज्ञाः साधवश्च ये। सन्दधीत नृपस्तैश्च राष्ट्रं धर्मेण पालयन्।। | 12-68-18a 12-68-18b |
उच्छिद्यमानमात्मानं ज्ञात्वा राजा महामतिः। पूर्वापकारिणो हन्याल्लोकद्विष्टांश्च सर्वशः।। | 12-68-19a 12-68-19b |
यो नोपकर्तुं शक्नोति नापकर्तुं महीपतिः। न शक्यरूपश्चोद्धर्तुमुपेक्ष्यस्तादृशो भवेत्।। | 12-68-20a 12-68-20b |
यात्रां यायादविज्ञातमनाक्रन्दमनन्तरम्। व्यासक्तं च प्रमत्तं च दुर्बलं च विचक्षणः।। | 12-68-21a 12-68-21b |
यात्रामाज्ञापयेद्वीरः कल्यः पुष्टबलः सुखी। पूर्वं कृत्वा विधानं च यात्रायां नगरे तथा।। | 12-68-22a 12-68-22b |
न च पश्यो भवेदस्य नृपो यश्चातिवीर्यवान्। हीनश्च बलवीर्याभ्यां कर्षयंस्तत्परो वसेत्।। | 12-68-23a 12-68-23b |
राष्ट्रं च पीडयेत्तस्य शस्त्राग्निविषमूर्च्छनैः। अमात्यवल्लभानां च विवादांस्तस्य कारयेत्।। | 12-68-24a 12-68-24b |
वर्जनीयं सदा युद्धं राज्यकामेन धीमता। उपायैस्त्रिभिरादानमर्थस्याह बृहस्पतिः।। | 12-68-25a 12-68-25b |
सान्त्वेन तु प्रदानेन भेदेन च नराधिप। यमर्थं शक्नुयात्प्राप्तुं तेन तुष्येत पण्डितः।। | 12-68-26a 12-68-26b |
आददीत बलिं चापि प्रजाभ्यः कुरुनन्दन। षङ्भागममितप्रज्ञस्तासामेवाभिगुप्तये।। | 12-68-27a 12-68-27b |
दशाधर्मगतेभ्यो यद्वसु बह्वल्पमेव वा। तन्नाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वै।। | 12-68-28a 12-68-28b |
यथा पुत्रास्तथा पौरा द्रष्टव्यास्ते न संशयः। भक्तिश्चैषु न कर्तव्या व्यवहारप्रदर्शने।। | 12-68-29a 12-68-29b |
श्रोतुं चैव न्यसेद्राजा प्राज्ञान्सर्वार्थदर्शिनः। व्यवहारेषु सततं तत्र राज्यं प्रतिष्ठितम्।। | 12-68-30a 12-68-30b |
आकरे लवणे शुल्के तरे नागबले तथा। न्यसेदमात्यान्नृपतिः स्वाप्तान्वा पुरुषान्हितान्।। | 12-68-31a 12-68-31b |
सम्यग्दण्डधरो नित्यं राजा धर्ममवाप्नुयात्। नृपस्य सततं दण्डः सम्यग्धर्मः प्रशस्यते।। | 12-68-32a 12-68-32b |
वेदवेदाङ्गवित्प्राज्ञः सुतपस्वी नृपो भवेत्। दानशीलश्च सततं यज्ञशीलश्च भारत।। | 12-68-33a 12-68-33b |
एते गुणाः समस्ताः स्युर्नृपस्य सततं स्थिराः। व्यवहारस्य लोपेन कुतः स्वर्गः कुतो यशः।। | 12-68-34a 12-68-34b |
यदा तु पीडितो राजा भवेद्राज्ञा बलीयसा। [तदाभिसंश्रयेद्दुर्गं बुद्धिमान्पृथिवीपतिः।। | 12-68-35a 12-68-35b |
विधावाक्रम्य मित्राणि विधानमुपकल्पयेत्। सामभेदान्विरोधार्थं विधानमुपकल्पयेत्।।] | 12-68-36a 12-68-36b |
`त्रिधा तु कृत्वा मित्राणि विधानमुपकल्पयेत्।' घोषान्न्यसेत मार्गेषु ग्रामानुत्थापयेदपि। प्रवेशयेच्च तान्सर्वाञ्शाखानगरकेष्वपि।। | 12-68-37a 12-68-37b 12-68-37c |
ये गुप्ताश्चैव दुर्गाश्च देशास्तेषु प्रवेशयेत्। धनिनो बलमुख्यांश्च सान्त्वयित्वा पुनः पुनः।। | 12-68-38a 12-68-38b |
सस्याभिहारं कुर्वीत स्वयमेव नराधिपः। असंभवे प्रवेशस्य दाहयेदग्निना भृशम्।। | 12-68-39a 12-68-39b |
क्षेत्रस्थेषु च सस्येषु शत्रोरुपजपेन्नरान्। विनाशयेद्वा तत्सर्वं बलेनाथ स्वकेन वै।। | 12-68-40a 12-68-40b |
नदीमार्गेषु च तथा संक्रमानवसादयेत्। जलं विस्रावयेत्सर्वमविस्राव्यं च दूषयेत्।। | 12-68-41a 12-68-41b |
तदात्वेनायतीभिश्च निवसेद्भूम्यनन्तरम्। प्रतिघातं परस्याजौ युद्धकालेऽप्युपस्थिते।। | 12-68-42a 12-68-42b |
दुर्गाणां चाभितो राजा मूलच्छेदं प्रकारयेत्। सर्वेषां क्षुद्रवृक्षाणां चैत्यवृक्षान्विवर्जयेत्।। | 12-68-43a 12-68-43b |
प्रवृद्धानां च वृक्षाणां शाखां प्रच्छेदयेत्तथा। चैत्यानां सर्वथा त्याज्यमपि पत्रस्य पातनम्।। | 12-68-44a 12-68-44b |
`देवानामाश्रयाश्चैत्या यक्षराक्षसभोगिनाम्। पिशाचपन्नगानां च गन्धर्वाप्सरसामपि। रौद्राणां चैव भूतानां तस्मात्तान्परिवर्जयेत्।। | 12-68-45a 12-68-45b 12-68-45c |
श्रूयते हि निकुम्भेन सौदासस्य बलं हतम्। महेश्वरगणेशेन वाराणस्यां नराधिप।। ' | 12-68-46a 12-68-46b |
प्रगण्डीः कारयेत्सम्यगाकाशजननीस्तदा। आपूरयेच्च परिखां स्थाणुनक्रझषाकुलाम्।। | 12-68-47a 12-68-47b |
सङ्कटद्वारकाणि स्युरुच्छ्वासार्थं पुरस्य च। तेषां च द्वारवद्गुप्तिः कार्या सर्वात्मना भवेत्।। | 12-68-48a 12-68-48b |
द्वारेषु च गुरूण्येव यन्त्राणि स्थापयेत्सदा। आरापयेच्छतघ्नीश्च स्वाधीनानि च कारयेत्।। | 12-68-49a 12-68-49b |
काष्ठानि चाभिहार्याणि तथा कूपांश्च खानयेत्। संशोधयेत्तथा कूपान्कृतान्पूर्वपयोर्थिभिः।। | 12-68-50a 12-68-50b |
तृणच्छन्नानि वेश्मानि पङ्केनाथ प्रलेपयेत्। निर्हरेच्च तृणं मासि चैत्रे वह्निभयात्पुरा।। | 12-68-51a 12-68-51b |
नक्तमेव च भक्तानि पाचयेत नराधिपः। न दिवा ज्वालयेदग्निं वर्जयित्वाऽऽग्निहोत्रिकम्।। | 12-68-52a 12-68-52b |
`यथासंभवशैलानि चैष्टकानि च कारयेत्। मृण्मयानि च कुर्वीत ज्ञात्वा देशं बलाबलम्।। ' | 12-68-53a 12-68-53b |
कर्मारारिष्टशालासु ज्वलेदग्निः सुरक्षितः। गृहाणि च प्रवेश्यान्तर्विधेयः स्याद्धुताशनः।। | 12-68-54a 12-68-54b |
महादण्डश्च तस्य स्याद्यस्याग्निर्वै दिवा भवेत्। प्रघोषयेदथैवं च रक्षणार्थं पुरस्य च।। | 12-68-55a 12-68-55b |
भिक्षुकांश्चाक्रिकांश्चैव क्लीबोन्मत्तान्कुशीलवान्। बाह्यान्कुर्यान्नरश्रेष्ठ दोषाय स्युर्हि ते शठाः।। | 12-68-56a 12-68-56b |
चत्वरेष्वथ तीर्थेषु सभास्वावसथेषु च। यथार्थवर्णं प्रणिधिं कुर्यात्सर्वत्र पार्थिवः।। | 12-68-57a 12-68-57b |
विशालान्राजमार्गांश्च कारयेत नराधिपः। प्रपाश्च विपणीश्चैव यथोद्देशं समादिशेत्।। | 12-68-58a 12-68-58b |
भाण्डागारायुधागारान्धान्यागारांश्च सर्वशः। अश्वागारान्गजागारान्बलाधिकरणानि च।। | 12-68-59a 12-68-59b |
परिखाश्चैव कौरव्य प्रतोलीसङ्कटानि च। न जातु कश्चित्पश्येत गुह्यमेतद्युधिष्ठिर।। | 12-68-60a 12-68-60b |
अर्थसंनिचयं कुर्याद्राजा परबलार्दितः। तैलं मधु घृतं सस्यमौषधानि च सर्वशः।। | 12-68-61a 12-68-61b |
अङ्गारकुशमुञ्जानां पलाशशरवर्णिनाम्। यवसेन्धनदिग्धानां कारयेत च संचयान्।। | 12-68-62a 12-68-62b |
आयुधानां च सर्वेषां शक्त्यृष्टिप्रासचर्मणाम्। संचयानेवमादीनां कारयेत नराधिपः।। | 12-68-63a 12-68-63b |
औषधानि च सर्वाणि मूलानि च फलानि च। चतुर्विधांश्च वैद्यान्वै संगृह्णीयाद्विशेषठः।। | 12-68-64a 12-68-64b |
नटांश्च नर्तकांश्चैव मल्लान्मायाविनस्तथा। शोभयेयुः पुरवरं मोदयेयुश्च सर्वशः।। | 12-68-65a 12-68-65b |
यतः शङ्का भवेच्चापि भृत्यतोऽथापि मन्त्रितः। पौरेभ्यो नृपतेर्वापि स्वाधीनान्कारयेत तान्।। | 12-68-66a 12-68-66b |
कृते कर्माणि राजा तान्पूजयेद्धनसंचयैः। माननेन यथार्हेण सान्त्वेन विविधेन च।। | 12-68-67a 12-68-67b |
निर्वेदयित्वा तु परं हत्वा वा कुरुनन्दन। गतानृण्यो भवेद्राजा यथा शास्त्रे निदर्शितम्।। | 12-68-68a 12-68-68b |
राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे। आत्माऽमात्याश्च कोशाश्च दण्डो मित्राणि चैव हि।। | 12-68-69a 12-68-69b |
तथा जनपदाश्चैव पुरं च कुरुनन्दन। एतत्सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः।। | 12-68-70a 12-68-70b |
षाङ्गुण्यं च त्रिवर्गं च त्रिवर्गपरमं तथा। यो वेत्ति पुरुषव्याघ्र स भुङ्क्ते पृथिवीमिमाम्।। | 12-68-71a 12-68-71b |
षाङ्गुण्यमिति यत्प्रोक्तं तन्निबोध युधिष्ठिर। सन्धायासनमित्येव यात्रासन्धानमेव च।। | 12-68-72a 12-68-72b |
विगृह्यासनमित्येव यात्रां संपरिगृह्य च। द्वैधीभावस्तथाऽन्येषां संश्रयोऽथ परस्य च।। | 12-68-73a 12-68-73b |
त्रिवर्गश्चापि यः प्रोक्तस्तमिहैकमनाः शृणु। क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च त्रिवर्गः परमस्तथा।। | 12-68-74a 12-68-74b |
`धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रिवर्गो वै सनातनः। मन्त्रश्चैव प्रभावश्च उत्साहश्चैव तान्त्रिकः। शक्तित्रयं समाख्यातं त्रिवर्गस्य च तत्परम्।। | 12-68-75a 12-68-75b 12-68-75c |
कार्यं च कारणं चैव कर्ता च परिकीर्तितः। एतत्परतरं विद्यान्त्रिवर्गादपि भारत। सर्वेपां च क्षये राजन्यस्त्रिवर्गः सनातनः।। | 12-68-76a 12-68-76b 12-68-76c |
सत्वं रजस्तमश्चैव त्रिवर्गकरणं स्मृतम्। तेनात्यन्तविमुक्तश्च मुक्तः पुरुष उच्यते।। | 12-68-77a 12-68-77b |
कार्यस्य सर्वथा नाशो मोक्ष इत्यभिधीयते। तेन मोक्षपरश्चैव देवदेवः पितामहः। तुष्ट्यर्थस्य त्रिवर्गस्य रक्षामाह पितामहः।। | 12-68-78a 12-68-78b 12-69-78c |
जगतो लौकिकी यात्रा यत्र नित्यं प्रतिष्ठिता।' धर्मोऽर्थश्चैव कामश्च सेवितव्याः स्वकालतः।। | 12-68-79a 12-68-79b |
`सेवा धर्मस्य कर्तव्या सततं भूरिवत्सरैः। पुरुषैर्नरशार्दूल तन्मूलाः सर्वथा क्रियाः।।' | 12-68-80a 12-68-80b |
धर्मेण च महीपालश्चिरं रक्षति मेदिनीम्। `यः कश्चिद्धार्मिको राजा स विपन्नोऽपि भूपतिः। अर्थकामविहीनोऽपि चिरं पालयते महीम्।।' | 12-68-81a 12-68-81b 12-68-81c |
अस्मिन्नर्थे हि द्वौ श्लोकौ गीतावङ्गिरसा स्वयम्। यादवीपुत्र भद्रं ते श्रोतुमर्हसि तावपि।। | 12-68-82a 12-68-82b |
कृत्वा कार्याणि धर्मेण सम्यक्संपाल्य मेदिनीम्। पालयित्वा तथा पौरान्परत्र सुखमेधते।। | 12-68-83a 12-68-83b |
किं तस्य तपसा राज्ञः किंच तस्याध्वरैः कृतैः। सुपालिताः प्रजा यस्य सर्वधर्मकृदेव सः।। | 12-68-84a 12-68-84b |
श्लोकाश्चोशनसा गीतास्तान्निबोध युधिष्ठिर। दण्डनीतेश्च यन्मूलं त्रिवर्गस्य च भूपते।। | 12-68-85a 12-68-85b |
भार्गवाङ्गिरसं कर्म षोडशाङ्गं च यद्बलम्। विषं माया च दैवं च पौरुषं चात्मसिद्धये।। | 12-68-86a 12-68-86b |
प्रागुदक्प्रवणं दुर्गं समासाद्य महीपतिः। त्रिवर्गत्रयसंपूर्णमुपादाय तमुद्वहेत्।। | 12-68-87a 12-68-87b |
षट्पञ्च च विनिर्जित्य दश चाष्टौ च भूपतिः। त्रिवर्गैर्दशभिर्युक्तः सुरैरपि न जीर्यते।। | 12-68-88a 12-68-88b |
न बुद्धिं परिगृह्णीत स्त्रीणां मूर्खजनस्य च। दैवोपहतबुद्धीनां ये च वेदैर्विवर्जिताः। न तेषां शृणुयाद्राजा बुद्धिस्तेषां पराङ्भुखी।। | 12-68-89a 12-68-89b 12-68-89c |
स्त्रीप्रधानानि राज्यानि विद्वद्भिर्वर्जितानि च। मूर्खामात्याग्नितप्तानि शुष्यन्ते जलबिन्दुवत्।। | 12-68-90a 12-68-90b |
विद्वांसः प्रथिता ये च ये चाप्ताः सर्वकर्मसु। बुद्धेषु दृष्टकर्माणि तेषां च शृणुयान्नृपः।। | 12-68-91a 12-68-91b |
दैवं पुरुषकारं च त्रिवर्गं च समाश्रितः। दैवतानि च विप्रांश्च प्रणम्य विजयी भवेत्।।' | 12-68-92a 12-68-92b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टषष्टिमोऽध्यायः।। 68।। |
12-68-3 पार्थिवेन पृथुवंश्येन राज्ञा। पार्थिवप्रकृतेन वा विजातीयेनापि तत्कार्यकारिणा।। 12-68-4 आत्मा चित्तम्।। 12-68-5 पञ्चवर्गः श्रोत्रादिः।। 12-68-6 गुल्मान् रक्षिणः पत्तीन्। संधौ सीमान्ते।। 12-68-7 संस्थानेषु कोष्ठपालाद्युपवेशनस्थानेषु। मध्येऽन्तः पुरे।। 12-68-8 प्रणिधीन् चारान्।। 12-68-11 विहारेषु यूनां मल्लक्रीडास्थानेषु।। 12-68-12 सभासु राजसंसत्सु। आवसथेषु तत्र तत्र महतां गृहेषु।। 12-68-13 एवं विचिनुयाद्राजा परचारं विचक्षणः। चारे हि विदिते पूर्वं हितं भवति पाण्डव। इति झ. पाठः। तत्र विचिनुयात् अन्विष्यात् इत्यर्थः।। 12-68-18 तैर्द्वारभूतैः तान्द्वारीकृत्यबलवद्भिर्नृपैः सह संधिं कुर्यात्।। 12-68-19 पूर्वापकारिणः पूर्वं दुष्टा इति अपकृताः पश्चाद्दययानुगृहीताः।। 12-68-21 अविज्ञातं क्रियाविशेषणमिदम्। अनाकन्दं मित्रहीनम्। अनन्तरं बन्धुजनहीनम्। व्यासक्तं अन्येन युद्धं कुर्वाणम्। प्रमत्तं अनवहितम्। यात्रायां यदि विज्ञातमिति झ. पाठः। तत्र यात्रायां यदि इच्छास्यात्तर्हि दुर्बलत्वादिना विज्ञातं शत्रुं प्रति यात्रामाज्ञापयेदित्युत्तरेण संबन्धः।। 12-68-22 विधानं रक्षणादिसामग्रीसंपादनम् ।। 12-68-23 कर्षयन् वीर्यवन्तं। तत्परः कर्षणपरः।। 12-68-28 दशधर्मगतेभ्य इति। तदाददीत सहसेति च झ. पाठः। तत्र दशधर्मगताः मत्तोन्मत्तादय इत्यर्थः।। 12-68-29 भक्तिः स्वीयत्वेन स्नेहः।। 12-68-30 सूतं च विन्यसेद्राजा प्राज्ञं सर्वार्थदर्शिनम्। इति ट.ड.थ.द. पाठः।। 12-68-31 आकरे स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थाने। लवणे तदुत्पत्तिस्थाने। शुल्के धान्यादिविक्रयस्थाने। तरे नदीसंतरणे। नागबले हस्तियूथे।। 12-68-37 घोषान् वनस्थान्मार्गेषु राजपथेषु न्यसेत्।। 12-68-40 उपजपेत् भेदयित्वा तद्द्वारा दाहयेत्।। 12-68-41 संक्रमान् अवतरणार्थान्सेतन्। जलं तटाकादिस्थं विस्रावयेत्। तदयोग्यं वापीकूपादिस्थं दूषयेत् विषादिना नाशयेत्।। 12-68-42 तदात्वेन वर्तमानकाले आयतीभिः उत्तरकालेषु च। अपवर्गे तृतीया। सर्वदा आजौ परस्य शत्रोः प्रतिघातं हन्तारं भूम्यनन्तरं निकटदेशवासिनं तच्छत्रुमाश्रित्यनिवसेत्।। 12-68-47 प्रगण्डीर्दुर्गप्राकारभित्तौ शूराणामुपवेशनस्थानानि। आकाशजननीस्तत्रैवैकपक्षायां भित्तौ तत्रत्यानां रक्षणभूतायां बाह्यार्थदर्शनार्थानि क्षुद्रच्छिद्राणि यद्द्वारा आग्नेयास्त्रगुलिकाः प्रक्षिप्यन्ते। स्थाणवः सशूलाः। प्रकुण्ठीः कारयेत् इति ड.थ. पाठः।। 12-68-48 संकटद्वारकाणि सूक्ष्मद्वाराणि। तेषां च द्वारवत् गुप्तिः कार्या। कुलिकद्वारकाणि स्युः इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-68-54 कर्मारो लोहकारादिः। अन्तर्विधेयः आच्छादितः कर्तव्यः।। 12-68-55 महादण्डो वधः।। 12-68-56 चाक्रिकान् शाकटिकान्। कुशीलवान् फाललेखान्।। 12-68-62 वर्णिनां लेखकानाम्। यवसं धासः। दिग्धानां विषाक्तवाणानाम्।। 12-68-64 चतुर्विधान् विषशल्यरोगकृत्याहरान्।। 12-68-72 सन्धायासनं सन्धिं कृत्वाऽवस्थितिः। यात्रासन्धानं यानम्।। 12-68-73 यात्रां संपरिगृह्याऽऽसनं शत्रोर्भयप्रदर्शनार्थं यानं प्रदर्श्य स्वस्थानेऽवस्थानम्। द्वैधीभाव उभयत्र संधिकरणम्।।
शांतिपर्व-067 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-069 |