महाभारतम्-12-शांतिपर्व-153
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति बलवति रिपौ मोहाद्वैरमुत्पादितवता कर्तव्यविषये निदर्शनतया शाल्मलिचरितकथनोपक्रमः।। 1।। हिमवति पर्वते महाशाल्मलिं दृष्टवता नारदेन तद्वर्णनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-153-1x |
बलिनः प्रत्यमित्रस्य नित्यमासन्नवर्तिनः। उण्कारापकाराभ्यां समर्थस्योद्यतस्य च।। | 12-153-1a 12-153-1b |
मोहाद्विकत्थनामात्रैरसारोऽल्पबलो लघुः। वाग्भिरप्रतिरूपाभिरभिद्रुह्य पितामह।। | 12-153-2a 12-153-2b |
आत्मनो बलमास्थाय कथं वर्तेत मानवः। आगच्छतोऽतिक्रुद्धस्य तस्योद्धरणकाम्यया।। | 12-153-3a 12-153-3b |
भीष्म उवाच। | 12-153-4x |
अत्राप्युदाहन्तीममितिहासं पुरातनम्। संवादं भरतश्रेष्ठ शाल्मलेः पवनस्य च।। | 12-153-4a 12-153-4b |
हिमवन्तं समासाद्य महानासीद्वनस्पतिः। वर्षपूगाभिसंवृद्धः शाखामूलपलाशवान्।। | 12-153-5a 12-153-5b |
तत्र स्म मत्तमातङ्गा घर्मार्ताः श्रमकर्शिताः। विश्राम्यन्ति महाबाहो तथाऽन्या मृगजातयः।। | 12-153-6a 12-153-6b |
नल्वमांत्रपरीणाहो घनच्छायो वनस्पतिः। शुकशारिकसंघुष्टः पुष्पवान्फलवानपि।। | 12-153-7a 12-153-7b |
सार्थका वणिजश्चापि तापसाश्च वनौकसः। वसन्ति तत्र मार्गस्थाः सुरम्ये नगसत्तमे।। | 12-153-8a 12-153-8b |
तस्य ता विपुलाः शाखा दृष्ट्वा स्कन्धं च सर्वशः। अभिगम्याब्रवीदेनं नारदो भरतर्षभ।। | 12-153-9a 12-153-9b |
अहो नु रमणीयस्त्वमहो चासि मनोहरः। प्रीयामहे त्वया नित्यं तरुप्रवर शाल्मके।। | 12-153-10a 12-153-10b |
सदैव शकुनास्तात मृगाश्चाथ तथा गजाः। वसन्ति तव संहृष्टा मनोहरतरास्तथा।। | 12-153-11a 12-153-11b |
तव शाखा महाशाख स्कन्धांश्च विपुलांस्तथा। न वै प्रभग्नान्पश्यामि मारुतेन कथंचन।। | 12-153-12a 12-153-12b |
किंनु ते पवनस्तात प्रीतिमानथवा सुहृत्। त्वां रक्षति सदा येन वनेऽत्र पवनो ध्रुवम्।। | 12-153-13a 12-153-13b |
भगवान्पवनः स्थानाद्वृक्षानुच्चावचानपि। पर्वतानां च शिखराण्याचालयति वेगवान्।। | 12-153-14a 12-153-14b |
शोषयत्येव पातालं वहन्गन्धवहः शुचिः। सरांसि सरितश्चैव सागरांश्च तथैव च।। | 12-153-15a 12-153-15b |
संरक्षति त्वां पवनः सखित्वेन न संशयः। तस्मात्त्वं बहुशाखोऽपि पर्णवान्पुष्पवानपि।। | 12-153-16a 12-153-16b |
इदं च रमणीयं ते प्रतिभाति वनस्पते। य इमे विहगास्तात रमन्ते मुदितास्त्वयि।। | 12-153-17a 12-153-17b |
एषां पृथक्समस्तानां श्रूयते मधुरस्वरः। पुष्पसंमोदने काले वाशन्ते हरियूथपाः।। | 12-153-18a 12-153-18b |
तथेमे गर्जिता नागाः स्वयूथगणशोभिताः। घर्मार्तास्त्वां समासाद्य सुखं विन्दति शाल्मके। | 12-153-19a 12-153-19b |
तथैव मृगजातीभिरन्याभिरभिशोभसे। तथा सार्थाधिवासैश्च शोभसे मेरुवद्द्रुम्।। | 12-153-20a 12-153-20b |
ब्राह्मणैश्च तपः सिद्धैस्तापसैः श्रमणैस्तथा। त्रिविष्टपसमं मन्ये तवायतनमेव हि।। | 12-153-21a 12-153-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 153।। |
12-153-7 शुककोकिलसंधुष्ट इति ध. पाठः। नल्वः हस्तानां शतचतुष्टयम्। परीणाहः स्थूलत्वं वैपुल्यमितियावत्।। 12-153-14 प्रवाति च वनस्थानां वृक्षाणां च वनान्यपि। पर्वतानां च शिखराण्याका लयति वेगवान्। इति ट. ड. पाठः।।
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