महाभारतम्-12-शांतिपर्व-239
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शुकाय श्रीव्यासोदितप्रलयप्रकाराद्यनुवादः।। 1।।
व्यास उवाच।
प्रत्याहारं तु वक्ष्यामि शर्वर्यादौ गतेऽहनि।
यथेदं कुरुतेऽध्यात्मं सुसूक्ष्मं विश्वमीश्वरः।। 12-239-1a
दिवि सूर्यस्तथा सप्त दहन्ति शिखिनोऽर्चिषः।
सर्वमेतत्तदाऽर्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते जगत्।। 12-239-2a
पृथिव्यां यानि भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च।
तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च।। 12-239-3a
ततः प्रलीने सर्वास्मिन्स्थावरे जङ्गमे तथा।
अकाष्ठा निस्तृणा भूमिर्दृश्यते कूर्मपृष्ठवत्।। 12-239-4a
भूमेरपि गुणं गन्धमाप आददते यदा।
आत्तगन्धा तदा भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते।। 12-239-5a
आपस्तत्र प्रतिष्ठन्ते ऊर्मिमत्यो महास्वनाः।
सर्वमेवेदमापूर्य तिष्ठन्ति च चरन्ति च।। 12-239-6a
अपामपि गुणांस्तात ज्योतिराददते यदा।
आपस्तदा त्वात्तगुणा ज्योतिः षूपरमन्ति वै।। 12-239-7a
यदाऽऽदित्यं स्थितं मध्ये गूहन्ति शिखिनोऽर्चिषः।
सर्वमेवेदमर्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते नमः।। 12-239-8a
ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुराददते यदा।
प्रशाम्यति ततो ज्योतिर्वायुर्दोधूयते महान्।। 12-239-9a
ततस्तु मूलमासाद्य वायुः संभवमात्मनः।
अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्च दोधवीति दिशो दश।। 12-239-10a
वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते यदा।
प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्ठति नानदन्।। 12-239-11a
अरूपमरसस्पर्शमगन्धं न च मूर्तिमत्।
सर्वलोकप्रणुदितं स्वं तु तिष्ठति नानदत्।। 12-239-12a
आकाशस्य गुणं शब्दमभिव्यक्तात्मकं मनः।
`ग्रसते च यदा सोऽपि शाम्यति प्रतिसंचरे।'
मनसो व्यक्तमव्यक्तं ब्राह्मः संप्रतिसंचरः।। 12-239-13a
तदाऽऽत्मगुणमाविश्य मनो ग्रसति चन्द्रमाः।
मनस्युपरते चात्मा चन्द्रमस्युपतिष्ठते।। 12-239-14a
तं तु कालेन महता संकल्पं कुरुते वशे।
चित्तं ग्रसति संकल्पस्तच्च ज्ञानमनुत्तमम्।। 12-239-15a
कालो गिरति विज्ञानं कालं बलमिति श्रुतिः।
बलं कालो ग्रसति तु तं विद्वान्कुरुते वशे।। 12-239-16a
[आकाशस्य तदा घोषं तं विद्वान्कुरुतेऽऽत्मनि।]
तदव्यक्तं परं ब्रह्म तच्छाश्वतमनुत्तमम्।
एवं सर्वाणि भूतानि ब्रह्मैव प्रतिसंहरेत्।। 12-239-17a
यथावत्कीर्तितं सत्यमेवमेतदसंशयम्।
बोध्यं विद्यामयं दृष्ट्वा योगिभिः परमात्मभिः।। 12-239-18a
एवं विस्तारसंक्षेपौ ब्रह्माव्यक्ते पुनःपुनः।
युगसाहस्रयोरादावहोरात्र्यास्तथैव च।। 12-239-19a
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 239।।
व्यास उवाच। | 12-239-1x |
प्रत्याहारं तु वक्ष्यामि शर्वर्यादौ गतेऽहनि। यथेदं कुरुतेऽध्यात्मं सुसूक्ष्मं विश्वमीश्वरः।। | 12-239-1a 12-239-1b |
दिवि सूर्यस्तथा सप्त दहन्ति शिखिनोऽर्चिषः। सर्वमेतत्तदाऽर्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते जगत्।। | 12-239-2a 12-239-2b |
पृथिव्यां यानि भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च। तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च।। | 12-239-3a 12-239-3b |
ततः प्रलीने सर्वास्मिन्स्थावरे जङ्गमे तथा। अकाष्ठा निस्तृणा भूमिर्दृश्यते कूर्मपृष्ठवत्।। | 12-239-4a 12-239-4b |
भूमेरपि गुणं गन्धमाप आददते यदा। आत्तगन्धा तदा भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते।। | 12-239-5a 12-239-5b |
आपस्तत्र प्रतिष्ठन्ते ऊर्मिमत्यो महास्वनाः। सर्वमेवेदमापूर्य तिष्ठन्ति च चरन्ति च।। | 12-239-6a 12-239-6b |
अपामपि गुणांस्तात ज्योतिराददते यदा। आपस्तदा त्वात्तगुणा ज्योतिः षूपरमन्ति वै।। | 12-239-7a 12-239-7b |
यदाऽऽदित्यं स्थितं मध्ये गूहन्ति शिखिनोऽर्चिषः। सर्वमेवेदमर्चिर्भिः पूर्णं जाज्वल्यते नमः।। | 12-239-8a 12-239-8b |
ज्योतिषोऽपि गुणं रूपं वायुराददते यदा। प्रशाम्यति ततो ज्योतिर्वायुर्दोधूयते महान्।। | 12-239-9a 12-239-9b |
ततस्तु मूलमासाद्य वायुः संभवमात्मनः। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्च दोधवीति दिशो दश।। | 12-239-10a 12-239-10b |
वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशं ग्रसते यदा। प्रशाम्यति तदा वायुः खं तु तिष्ठति नानदन्।। | 12-239-11a 12-239-11b |
अरूपमरसस्पर्शमगन्धं न च मूर्तिमत्। सर्वलोकप्रणुदितं स्वं तु तिष्ठति नानदत्।। | 12-239-12a 12-239-12b |
आकाशस्य गुणं शब्दमभिव्यक्तात्मकं मनः। `ग्रसते च यदा सोऽपि शाम्यति प्रतिसंचरे।' मनसो व्यक्तमव्यक्तं ब्राह्मः संप्रतिसंचरः।। | 12-239-13a 12-239-13b 12-239-13c |
तदाऽऽत्मगुणमाविश्य मनो ग्रसति चन्द्रमाः। मनस्युपरते चात्मा चन्द्रमस्युपतिष्ठते।। | 12-239-14a 12-239-14b |
तं तु कालेन महता संकल्पं कुरुते वशे। चित्तं ग्रसति संकल्पस्तच्च ज्ञानमनुत्तमम्।। | 12-239-15a 12-239-15b |
कालो गिरति विज्ञानं कालं बलमिति श्रुतिः। बलं कालो ग्रसति तु तं विद्वान्कुरुते वशे।। | 12-239-16a 12-239-16b |
[आकाशस्य तदा घोषं तं विद्वान्कुरुतेऽऽत्मनि।] तदव्यक्तं परं ब्रह्म तच्छाश्वतमनुत्तमम्। एवं सर्वाणि भूतानि ब्रह्मैव प्रतिसंहरेत्।। | 12-239-17a 12-239-17b 12-239-17c |
यथावत्कीर्तितं सत्यमेवमेतदसंशयम्। बोध्यं विद्यामयं दृष्ट्वा योगिभिः परमात्मभिः।। | 12-239-18a 12-239-18b |
एवं विस्तारसंक्षेपौ ब्रह्माव्यक्ते पुनःपुनः। युगसाहस्रयोरादावहोरात्र्यास्तथैव च।। | 12-239-19a 12-239-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 239।। |
12-239-1 क्रमप्राप्तं प्रलयमाह प्रत्याहारमिति। प्रतीपमुत्पत्तिक्रमविपरीतमाहरणं प्रत्याहारः।। 12-239-2 संकर्षणमुखोद्भूतस्य शिखिनोऽग्नेरर्चिषः सप्तेति संबन्धः। अर्चिर्मिः सौरीभिराग्नेयीभिश्च ज्वालाभिः।। 12-239-3 ध्रुवाणि स्थावराणि।। 12-239-4 निर्वृक्षा निस्तृणेति झ. पाठः।। 12-239-5 गन्धं काठिन्यहेतुम्। धृतवद्भूमिः काठिन्यं त्यक्त्वा जलमात्रं भवतीत्यर्थः। प्रलयत्वाय कारणभावाय।। 12-239-7 आपोप्यात्तगुणा अग्निना शोषितपसा अग्निमात्रं भवन्ति।। 12-239-8 यथा रसगुमांस्तासां ग्रसन्ति शिखिनोऽर्चिष इति ट. थ. पाठः।। 12-239-9 रूपं वायुराददते। आङ्पूर्वस्य दद दाने इत्यस्य रूपम्।। 12-239-10 ततस्तु स्वनमासाद्येति झ. पाठः। तत्र स्वनं शब्दतन्मात्रमित्यर्थः।। 12-239-13 ब्राह्मोऽयं प्रतिसंचर इति ध. पाठः।। 12-239-16 कालो हरति विज्ञानमिति थ. पाठः।। 12-239-18 बोध्यं बोधयितुं योग्यमन्वर्थनामानं शिष्यम्। विद्यामयं अत्यौत्कण्डेन विद्यार्थित्वात्।। 12-239-19 विस्तार संक्षेपौ सृष्टिप्रलयावुक्ताविति शेषः।।
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