महाभारतम्-12-शांतिपर्व-173
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विप्रसेनजित्संवादानुवादः।। 1।। विप्रेण सेनजितंप्रति पिङ्गलोपाख्यानकथनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-173-1x |
धर्माः पितामहेनोक्ता राजधर्माश्रिताः शुभाः। धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हसि सत्तम।। | 12-173-1a 12-173-1b |
भीष्म उवाच। | 12-173-2x |
सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्ग्यः सत्यफलोदयः। बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।। | 12-173-2a 12-173-2b |
यस्मिन्यस्मिंस्तु विषये योयो याति विनिश्चयम्। स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम्।। | 12-173-3a 12-173-3b |
यथायथा च पर्येति लोकतन्त्रमसारवत्। तथातथा विरागोऽत्र जायते नात्र संशयः।। | 12-173-4a 12-173-4b |
एवं व्यवसिते लोके बहुदोषे युधिष्ठिर। आत्ममोक्षनिमित्तं वै यतेत मतिमान्नरः।। | 12-173-5a 12-173-5b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-173-6x |
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते। यया बुद्ध्या नुदेच्छोक तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-173-6a 12-173-6b |
भीष्म उवाच। | 12-173-7x |
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते। अहोदुःखमिति ध्यायञ्शोकस्यापचितिं चरेत्।। | 12-173-7a 12-173-7b |
अत्राप्युदाहरन्तीममिहासं पुरातनम्। यथा सेनजितं विप्रः कश्चिदेत्याब्रवीत्सुहृत्।। | 12-173-8a 12-173-8b |
पुत्रशोकाभिसंतप्तं राजानं शोकविह्वलम्। विषण्णमनसं दृष्ट्वा विप्रो वचनमब्रवीत्।। | 12-173-9a 12-173-9b |
किंनु मुह्यसि मूढस्त्वं शोच्यः किमनु शोचसि। यदा त्वामपि शोचंतः शोच्या यास्यन्ति तां गातिम्।। | 12-173-10a 12-173-10b |
त्वं चैवाहं च ये चान्ये त्वां राजन्पर्युपासते। सर्वे तत्र गमिष्यामो यत एवागता वयम्।। | 12-173-11a 12-173-11b |
सेनजिदुवाच। | 12-173-12x |
का बुद्धिः किं तपो विप्र कः समाधिस्तपोधन। किं ज्ञानं किं श्रुतं वा ते यत्प्राप्य न विषीदसि।। | 12-173-12a 12-173-12b |
ब्राह्मण उवाच। | 12-173-13x |
हृष्यन्तमवसीदन्तं सुखदुःखविपर्यये। आत्मानमनुशोचामि यो ममैष हृदि स्थितः।। | 12-173-13a 12-173-13b |
पश्य भूतानि दुःखेन व्यतिषिक्तानि सर्वशः। उत्तमाधममध्यानि तेषु तेष्विह कर्मसु।। | 12-173-14a 12-173-14b |
आत्माऽपि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम। यथा मम तथाऽन्येषामिति मत्वा न मे व्यथा। एतां बुद्धिमहं प्राप्य न प्रहृष्ये न च व्यथे।। | 12-173-15a 12-173-15b 12-173-15c |
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ। समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः।। | 12-173-16a 12-173-16b |
एवं पुत्राश्च पौत्राश्च ज्ञातयो बान्धवास्तथा। तेषु स्नेहो न कर्तव्यो विप्रयोगो ध्रुवो हि तैः।। | 12-173-17a 12-173-17b |
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः। न त्वाऽसौ वेद न त्वंतं कस्मात्त्वमनुशोचसि।। | 12-173-18a 12-173-18b |
सुखान्तप्रभवं दुःखं दुःखान्तप्रभवं सुखम्। सुखात्संजायते दुःखं दुःखात्संजायते सुखम्।। | 12-173-19a 12-173-19b |
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्। सुखदुःखे मनुष्याणां चक्रवत्परिवर्ततः।। | 12-173-20a 12-173-20b |
सुखात्त्वं दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम्। न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्।। | 12-173-21a 12-173-21b |
[शरीरमेवायतनं सुखस्य दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम्। यद्यच्छरीरेण करोति कर्म तेनैव देही समुपाश्नुते तत्।। | 12-173-22a 12-173-22b 12-173-22c 12-173-22d |
जीवितं च शरीरेण तेनैव सह जायते। उभे सह विवर्तेते उभे सह विनश्यतः।। | 12-173-23a 12-173-23b |
स्नेहपाशैर्बहुविधैराविष्टविषया जनाः। अकृतार्थाश्च सीदन्ते जलैः सैकतसेतवः।। | 12-173-24a 12-173-24b |
स्नेहेन तैलवत्सर्वं सर्गचक्रे निपीड्यते। तिलपीडैरिवाक्रम्य क्लेशैरज्ञानसंभवैः।। | 12-173-25a 12-173-25b |
संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः। एकः क्लेशानवाप्नोति परत्रेह च मानवः।। | 12-173-26a 12-173-26b |
पुत्रदारकुटुम्बेषु प्रसक्ताः सर्वमानवाः। शोकपङ्कार्णवे मग्ना जीर्णा वनगजा इव।। | 12-173-27a 12-173-27b |
पुत्रनाशे वित्तनाशे ज्ञातिसंबन्धिनामपि। प्राप्यते सुमहद्दुःखं दावाग्निप्रतिमं विभो। दैवायत्तमिदं सर्वं सुखदुःखे भवाभवौ।। | 12-173-28a 12-173-28b 12-173-28c |
असुहृत्ससुहृच्चापि सशत्रुर्मित्रवानपि। सप्रज्ञः प्रज्ञया हीनो दैवेन लभते सुखम्।।] | 12-173-29a 12-173-29b |
नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय दुर्हृदः। न च प्रज्ञाऽलमर्थानां न सुखानामलं धनम्।। | 12-173-30a 12-173-30b |
न बुद्धिर्धनलाभाय न मौढ्यमसमृद्ध्ये। लोकपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः।। | 12-173-31a 12-173-31b |
बुद्धिमन्तं च शूरं च मूढं भीरुं जडं कविम्। दुर्बलं बलवन्तं च भागिनं भजते सुखम्।। | 12-173-32a 12-173-32b |
धेनुर्वत्सस्य गोपस्य स्वामिनस्तस्करस्य च। पयः पिबति यस्तस्या धेनुस्तस्येति निश्चयः।। | 12-173-33a 12-173-33b |
ये च मूढतमा लोके ये च बुद्धेः परं गताः। ते नराः सुखमेधन्ते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः।। | 12-173-34a 12-173-34b |
अन्तेषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे। अन्तप्राप्तिं सुखं प्राहुर्दुःखमन्तरमन्तयोः।। | 12-173-35a 12-173-35b |
सुखं स्वपिति दुर्मेधाः स्वानि कर्माण्यचिन्तयन्। अविज्ञानेन महता कम्बलेनेव संवृतः।। | 12-173-36a 12-173-36b |
ये च बुद्धिं परां प्राप्ता द्वन्द्वातीता विमत्सराः। तान्नैवार्था न चानर्था व्यथयन्ति कदाचन।। | 12-173-37a 12-173-37b |
अथ ये बुद्धिमप्राप्ता व्यतिक्रान्ताश्च मूढताम्। तेऽतिवेलं प्रहृष्यन्ति संतापमुपयान्ति च।। | 12-173-38a 12-173-38b |
नित्यं प्रमुदिता मूढा दिवि देवगणा इव। अवलेपेन महता परितृप्ता विचेतसः।। | 12-173-39a 12-173-39b |
सुखं दुःखान्तमालस्यं दुःखं दाक्ष्यं सुखोदयम्। भूतिश्चैव श्रिया सार्धं दक्षे वसति नालसे।। | 12-173-40a 12-173-40b |
सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाऽप्रियम्। प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः।। | 12-173-41a 12-173-41b |
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसेदिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।। | 12-173-42a 12-173-42b |
बुद्धिमन्तं कृतप्रज्ञं शुश्रूषुमनहंकृतम्। शान्तं जितेन्द्रियं चापि शोको न स्पृशते नरम्।। | 12-173-43a 12-173-43b |
एतां बुद्धिं समास्थाय शुद्धचित्तश्चरेद्बुधः। `शुक्लकृष्णगतिज्ञं तं देवासुरविनिर्गमम्।' उदयास्तमयज्ञं हि न शोकः स्प्रष्टुमर्हति।। | 12-173-44a 12-173-44b 12-173-44c |
यन्निमत्तो भवेच्छोकस्रासो वा क्रोध एव वा। आयासो वा यतो मूलं तदेकाङ्गमपि त्यजेत्।। | 12-173-45a 12-173-45b |
यद्यत्त्यजति कामनां तत्सुखस्याभिपूर्यते। कामानुसारी पुरुषः कामाननुविनश्यति।। | 12-173-46a 12-173-46b |
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्।। | 12-173-47a 12-173-47b |
पूर्वदेहकृतं कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभम्। प्राज्ञं मूढं तथा शूरं भजते तादृशं नरम्।। | 12-173-48a 12-173-48b |
एवमव किलैतानि प्रियाण्येवाप्रियाणि च। जीवेषु परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च।। | 12-173-49a 12-173-49b |
एतां बुद्धिं समास्थाय नावसीदेद्गुणान्वितः। सर्वान्कामाञ्जुगुप्सेन कोपं कुर्वीत पृष्ठतः।। | 12-173-50a 12-173-50b |
वृत्त एव हृदि प्रौढो मृत्युरेप मनोभवः। क्रोधो नाम शरीरस्थो देहिनां प्रोच्यते बुधैः।। | 12-173-51a 12-173-51b |
यदा संहरते कामान्कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। तदात्मज्योतिरात्मश्रीरात्मन्येव प्रसीदति।। | 12-173-52a 12-173-52b |
किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम्। तदेव परितापाय नाशे संपद्यते तदा।। | 12-173-53a 12-173-53b |
न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न विभ्यति। यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-173-54a 12-173-54b |
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ भयाभये। प्रियाप्रिये परित्यज्य प्रशान्तात्मा भविष्यति।। | 12-173-55a 12-173-55b |
यदा न कुरुते धीरः सर्वभूतेषु पापकम्। कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म संपद्यते तदा।। | 12-173-56a 12-173-56b |
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः। योसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखं।। | 12-173-57a 12-173-57b |
अत्र पिङ्गलया गीता गाथा शृणु नराधिप। यथा सा कृच्छ्रकालेऽपि लेभे शर्म सनातनम्।। | 12-173-58a 12-173-58b |
संकेते पिङ्गला वेश्या कान्तेनासीद्विनाकृता। अथ कृच्छ्रगता शान्तां बुद्धिमास्थापयत्तदा।। | 12-173-59a 12-173-59b |
पिङ्गलोवाच। | 12-173-60x |
उन्मत्ताऽहमनुन्मत्तं कान्तमन्ववसं चिरम्। अन्तिके रमणं सन्तं नैनमध्यगमं पुरा।। | 12-173-60a 12-173-60b |
एकस्थूणं नवद्वारमपिधास्याम्यगारकम्। का ह्यकान्तमिहायान्तं कान्त इत्यभिमंस्यते।। | 12-173-61a 12-173-61b |
अकामाः कामरूपेण धूर्ताश्च नररूपिणः। न पुनर्वञ्चयिष्यन्ति प्रतिबुद्धाऽस्मि जागृमि।। | 12-173-62a 12-173-62b |
अनर्थोऽपि भवत्यर्थो दैवात्पूर्वकृतेन वा। संबुद्धाऽहं निराकारा नाहमद्याजितेन्द्रिया।। | 12-173-63a 12-173-63b |
सुखं निराशः स्वपिति नैराश्यं परमं सुखम्। आशामनाशां कृत्वा हि सुखं स्वपिति पिङ्गला।। | 12-173-64a 12-173-64b |
भीष्म उवाच। | 12-173-65x |
एतैश्चान्यैश्च विप्रस्य हेतुमद्भिः प्रभाषितैः। पर्यवस्थापितो राजा सेनजिन्मुमुदे सुखम्।। | 12-173-65a 12-173-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 173।। |
12-173-1 राजनियोगाद्धर्मप्रवृत्तेः राजधर्माश्रिताः। श्रेष्ठः प्रशस्यतमोमोक्षधर्मस्ताम्। आश्रमिणामित्युक्तेर्गृहस्थादीनां सर्वेषामप्यत्राधिकारो दर्शितः।। 12-173-2 मोक्षधर्मस्योत्तमत्वं वक्तुमितरधर्मस्य निकृष्टत्वमाह। सर्वत्रेति। सर्वत्राश्रमेषु धर्मो विहितो वेदेनाऽग्निहोत्रं जुहुयास्त्वर्गकाम इत्यादिना। स्वर्ग्यः स्वर्गफलसाधनम्। सत्यफलोदयः अवश्यंभाविफलोदयः। बहुद्वारस्य यज्ञदानाद्यनेकोपायस्य। क्रिया अनुष्ठानम्।। 12-173-3 यस्मिन्विषये स्वर्गादिफले विनिश्चयं याति इदं फलं सद्यः प्राप्यमित्यभिसंधत्ते स तत्साधनमुपादत्ते न फलान्तरसाधनमित्यर्थः।। 12-173-4 पर्येति जानाति लोकतन्त्रं अनोपकरणं धनदारादिकम्। अत्र लोके असारं तृणादि तद्वत्तच्छम्।। 12-173-5 व्यवसिते निश्चिते। लोके स्थावरादिसत्यलोकपर्यन्ते। बहुदोषे ऐश्वर्यतारतम्यक्षयिष्णुत्वादिदोषबहुले। दोषदर्शननिश्चये वैराग्ये सतीत्यर्थः।। 12-173-6 तन्मे तां मे।। 12-173-7 अपचितिं प्रतीकारम्।। 12-173-9 संतापोऽन्तर्बहिर्दाहः। विह्वलत्वं बाह्येन्द्रियचलनशून्यत्वम्। विषण्णं मूढं मनो यस्य। विवर्णवदनं दृष्ट्वेति ट. पाठः।। 12-173-10 मूढाः सर्वेऽपि शोच्याः शोकाक्रान्ताश्चेत्यतो निःशोकं पदमन्वेष्टव्यमित्यर्थः।।? 12-173-12 बुद्धिरुपपत्तिः। तपस्तदालोचनम्। समाधिर्बुद्धेरेकत्र पर्यवसानम्। ज्ञानं साक्षात्कारः। श्रुतमेवेष्वर्थेषु प्रमाणम्।। 12-173-14 तत्र बुद्धिमाहं सार्धद्वयेन पश्येति। व्यतिषिक्तानि व्याप्तान्युत्तमाधममध्यानि देवतिर्थङ्भनुष्यादीनि। कर्मसु निमित्तभूतेषु।। 12-173-15 एवं कर्मजं दुःखं देवादीनामप्यस्तीति दृश्यमानभूतदृष्टान्तेनोपपाद्य तन्निवृत्तावप्युपपत्तिमाह आत्मेति।। 12-173-16 तप आह यथेत्यादिना। भूतैः समागमः आत्मनो देहयोग इत्यर्थः।। 12-173-17 तपःफलमाह एवमिति।। 12-173-18 कः सन् किमनुशोचसि इति झ. पाठः।। 12-173-25 स्नेहेन निमित्तेन तिलपीडैस्तैलिकैः।। 12-173-26 अशुभं चौर्यादि। कलत्रापेक्षया भार्यादिपोषणार्थं धनसुखभागिनः सर्वे पापफलभागी त्वेक एवायमित्यर्थः।। 12-173-28 भवाभवौ ऐश्वर्यानैश्वर्ये।। 12-173-29 सुहृत्प्रत्युपकारमनपेक्ष्योपकारकर्ता। मित्रं प्रत्युपकारमपेक्ष्यो पकारकर्तृ।। 12-173-30 सुखाय सुखं दातुं नालं न पर्याप्ताः।। 12-173-31 असमृद्धये धनादिनाशाय। लोको भोग्यप्रपञ्चस्तस्य पर्यायो निर्माणं तत्र विषये वृत्तान्तं सिद्धान्तम्। प्राज्ञस्तत्त्ववित्।। 12-173-32 मूढं निर्बुद्धिम्। जडमलसम्। कविं दीर्घदर्शिनम्। भागिनं सदैवम्। भजते स्वयमेवोपनमते। नतु तदर्थं यत्नोऽपेक्ष्य इत्यर्थः।। 12-173-33 पयःपातुरेव धेनुरितरेषां तु तत्र ममता व्यर्था। तस्मादावश्यकादधिके स्पृहा न कार्येत्यर्थः।। 12-173-35 धीराः पण्डिताः अन्तेषु अन्तयोः धर्ममोक्षयोः। व्यत्ययो बहुलमिति च व्यत्ययः। मध्येषु मध्ययोः अर्थकामयोः। अन्तप्राप्तिं धर्ममोक्षप्राप्तिं मोक्षस्य सुखरूपत्वाद्धर्मस्य सुखहेतुत्वात् सुखं प्राहुः। अन्तयोर्धर्ममोक्षयोरन्तरं मध्यं अर्थकामं दुःखं प्राहुरित्यर्थः।। 12-173-37 द्वन्द्वातीताः सुखदुःखाद्यतीताः। मत्सरः परोत्कर्षासहिष्णुत्वं तद्वर्जिताः। अर्थाः ख्यादयः। अनर्थास्तद्वियोगाः।। 12-173-38 अतिवेलमत्यन्तम्।। 12-173-39 परिवृद्धा विचेतस इति ध. पाठः।। 12-173-40 आलस्यं ज्ञानसाधनेष्वप्रवृत्तिः। दुःखं दुःखकरम्। भूतिरणिमाद्यैश्वर्यम्। श्रिया विद्यया। सुखं दुःखान्तमालक्ष्येति झ. पाठः।। 12-173-41 सुखदुःखसाधने प्रियाप्रिये। हृदयेन हर्षशोकमयेनाऽपराजितोऽवशीकृतः।। 12-173-42 शोकमूलानीष्टवियोगादीनि। भयमूलान्यनिष्टसंयोगादीनि। आविशन्ति स्वकार्योत्पादनेन व्याप्नुवन्ति।। 12-173-43 बुद्धिर्ग्रन्थधारणसामर्थ्यं तद्वन्तम्। कृता स्वतःसिद्धा प्रज्ञा ऊहापोहकौशलं यस्य तम्। शुश्रूषुं शास्त्राम्यासपरम्। शुश्रूषमनसूयकमिति झ. पाठः। तत्र अनसूयकं शास्त्रीयेऽर्थे दोषदृष्टिरसूया तद्रहितमित्यर्थः।। 12-173-44 शुक्लं सत्वं कृष्णं तमस्ताभ्यां प्राप्ये गती प्रकाशावरणकार्ये मुक्तिसंसाराख्ये तज्ज्ञम्। देवा दानदयादिरूपाः सात्विक्यश्चेतोवृत्तयः। असुरा राजस्यस्तामस्यो लोभमोहाद्यास्ता एव तासामुभयीनामपि विशेषेण निर्गमो बहिर्भावो यस्यात्तं उदया स्तमयज्ञं देहिनां जन्मविनाशज्ञम्।। 12-173-45 यत आयासस्तन्मूलं कारणमायासादेरेकाङ्गं शरीरैकदेशभूतमपि त्यजेत् किमुत धनदारादि।। 12-173-46 कामानां विषयाणां मध्ये।। 12-173-47 लोके मानुषे। दिव्यं स्वर्गभवम्। तृष्णाक्षयो वैराग्यम्।। 12-173-48 कर्तारमजितं कर्म शुभं वा यदि वाऽशुभमिति ड. पुस्तकपाठ।। 12-173-56 पापकं हिंसनम्।। 12-173-58 कृच्छ्रकाले दुःखकाले। लेभे धर्मं सनातनमिति घ. पाठः। ब्रह्म सनातनमिति ड. पाठः।। 12-173-59 आस्थापयत् व्यवस्थापितवती।। 12-173-60 अन्तिके हृदयकोशे रमणमानन्दप्रदम्।। 12-173-61 एकस्थूणं एकात्माधारं अगारं शरीराख्यम्।। 12-173-62 जागृमि जागर्मि।। 12-173-65 पर्ववस्थापित आत्मतत्त्वे निष्ठां प्रापितः।।
शांतिपर्व-172 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-174 |