महाभारतम्-12-शांतिपर्व-162
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति नृशंसलक्षणादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-162-1x |
आनृशंस्यं विजानामि दर्शनेन सतां सदा। नृशंसान्न विजानामि तेषां कर्म च भारत।। | 12-162-1a 12-162-1b |
कण्टकान्कूपमग्निं च वर्जयन्ति यथा नराः। तथा नृशंसकर्माणं वर्जयन्ति नरा नरम्।। | 12-162-2a 12-162-2b |
नृशंसो दह्यते व्यक्तं प्रेत्य चेह च भारत। तस्मात्त्वं ब्रूहि कौरव्य तस्य धर्मविनिश्चयम्।। | 12-162-3a 12-162-3b |
भीष्म उवाच। | 12-162-4x |
स्पृहाऽस्यान्तर्गता चैव विदितार्था च कर्मणाम् आक्रोष्टा क्रुश्यते चैव बन्धिता बध्यते स च।। | 12-162-4a 12-162-4b |
दत्तानुकीर्तिर्विषमः क्षुद्रो नैकृतिकः शठः। असंभोगी च मानी च तथा सङ्गी विकत्थनः।। | 12-162-5a 12-162-5b |
सर्वातिशङ्की पुरुषो बलीशः कृपणोऽथवा। वर्गप्रशंसीं सततमाश्रमद्वेपसंकरी।। | 12-162-6a 12-162-6b |
हिंसाविकारी सततमविशेषगुणागुणः। बह्वलीको मनस्वी च लुब्धोऽत्यर्थं नृशंसकृत्।। | 12-162-7a 12-162-7b |
धर्मशीलं गुणोपेतं पाप इत्यवगच्छति। आत्मशीलोपमानेन न विश्वसिति कस्यचित्।। | 12-162-8a 12-162-8b |
परेषां यत्र दोपः स्यात्तद्गुह्यं संप्रकाशयेत्। समानेष्वेव दोपेषु वृत्त्यर्थमुपघातयेत्।। | 12-162-9a 12-162-9b |
तथोपकारिणं चैव मन्यते वञ्चितं परम्। दत्त्वाऽपि च धनं काले संतपत्युपकारिणे।। | 12-162-10a 12-162-10b |
भक्ष्यं पेयमथालेह्यं यच्चान्यत्साधु भोजनम्। प्रेक्षमाणेषु योऽश्नीयान्नृशंसमिति तं वदेत्।। | 12-162-11a 12-162-11b |
ब्राह्मणेभ्यः प्रदायाग्रं यः सुहृद्भिः सहाश्नुते। स प्रेत्य लभते स्वर्गमिह चानन्त्यमश्नुते।। | 12-162-12a 12-162-12b |
एष ते भरतश्रेष्ठ नृशंसः परिकीर्तितः। सदा विवर्जनीयो हि पुरुषेण बुभूषता।। | 12-162-13a 12-162-13b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 162।। |
12-162-5 दत्तमनुकीर्तयतीति दत्तानुकीर्तिः स्वस्य वदान्यत्वप्रकाशकः। विषमः विद्वेषकर्ता। क्षुद्रो नीचकर्मकारी। नैकृतिकः स्नेहं प्रदर्श्य वञ्चकः। शठः सत्यपि सामर्थ्ये दारिद्र्यव्यञ्जकः।। 12-162-6 बलीशः काकइव वञ्चकदृष्टिः। आश्रमद्वेषः संकरश्चास्यास्तीति आश्रमद्वेषसंकरी।। 12-162-8 आत्मशीलानुमानेनेति थ. पाठः।।
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