महाभारतम्-12-शांतिपर्व-347
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति नारदाय श्वेतद्वीपस्थहर्युक्तस्वकृतसृष्टिप्रकारानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-347-1x |
एवं स्तुतः स भगवान् गुह्यैस्तथ्यैश्च नामभिः। `भगवान्विश्वसृक्सिंहः सर्वमूर्तिमयः प्रभुः।' दर्शयामास मुनये रूपं तत्परमं हरिः।। | 12-347-1a 12-347-1b 12-347-1c |
किंचिच्चन्द्राद्विशुद्धात्मा किंचिच्चन्द्राद्विशेषवान्। कृशानुवर्णः किंचिच्च किंचिद्धिष्ण्याकृतिः प्रभुः।। | 12-347-2a 12-347-2b |
शुकपत्रनिभः किंचित्किंचित्स्फटिकसन्निभः। नीलाञ्जनचयप्रख्यो जातरूपप्रभः क्वचित्।। | 12-347-3a 12-347-3b |
प्रबालाङ्कुरवर्णश्च श्वेतवर्णस्तथा क्वचित्। क्वचित्सुवर्णवर्णाभो वैदूर्यसदृशः क्वचित्।। | 12-347-4a 12-347-4b |
नीलवैर्दूर्यसदृश इन्द्रनीलनिभः क्वचित्। मयूरग्रीववर्णाभो मुक्ताहारनिभः क्वचित्।। | 12-347-5a 12-347-5b |
एतान्बहुधान्वर्णान्रूपैर्बिभ्रत्सनातनः। सहस्रनयनः श्रीमाञ्छतशीर्षः सहस्रपात्।। | 12-347-6a 12-347-6b |
सहस्रोदरबाहुश्च अव्यक्त इति च क्वचित्। ओंकारमुद्गिरन्वक्रात्सावित्रीं च तदन्वयाम्।। | 12-347-7a 12-347-7b |
शेषेभ्यश्चैव वक्रेभ्यश्चतुर्वेदान्गिरन्बहून्। आरण्यकं जगौ देवो हरिर्नारायणो वशी।। | 12-347-8a 12-347-8b |
वेदिं कमण्डलुं दर्भान्मणिरूपांस्तथा कुशान्। अजिनं दण्डकाष्ठं च ज्वलितं च हुताशनम्। धारयामास देवेशो हस्तैर्यज्ञपतिस्तदा।। | 12-347-9a 12-347-9b 12-347-9c |
तं प्रसन्नं प्रसन्नात्मा नारदो द्विजसत्तमः। वाग्यतः प्रणतो भूत्वा ववन्दे परमेश्वरम्।। | 12-347-10a 12-347-10b |
तमुवाच नतं मूर्ध्ना देवानामादिरव्ययः।। | 12-347-11a |
श्रीभगवानुवाच। | 12-347-12x |
एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चैव महर्षयः। इमं देशमनुप्राप्ता मम दर्शनलालसाः।। | 12-347-12a 12-347-12b |
न च मां ते ददृशिरे न च द्रक्ष्यति कश्चन। ऋते ह्यैकान्तिकश्रेष्ठात्त्वं चैवैकान्तिकोत्तम।। | 12-347-13a 12-347-13b |
ममैतास्तनवः श्रेष्ठा जाता धर्मगृहे द्विज। तास्त्वं भजस्व सततं साधयस्व यथागतम्।। | 12-347-14a 12-347-14b |
वृणीष्व च वरं प्रिय मत्तस्त्वं यदिहेच्छसि। प्रसन्नोऽहं तवाद्येह विश्वमूर्तिरिहाव्ययः।। | 12-347-15a 12-347-15b |
नारद उवाच। | 12-347-16x |
अद्य मे तपसो देव यमस्य नियमस्य च। सद्यः फलमवाप्तं वै दृष्टो यद्भगवान्मया।। | 12-347-16a 12-347-16b |
वर एष ममात्यन्तं दृष्टस्त्वं यत्सनातनः। भगवन्विश्वदृक् सिंहः सर्वमूर्तिर्महान्प्रभुः।। | 12-347-17a 12-347-17b |
भीष्म उवाच। | 12-347-18x |
एवं संदर्शयित्वा तु नारदं परमेष्ठिजम्। उवाच वचनं भूयो गच्छ नारद माचिरम्।। | 12-347-18a 12-347-18b |
इमे ह्यनिन्द्रियाहारा मद्भक्ताश्चन्द्रवर्चसः। एकाग्राश्चिन्तयेयुर्मां नैषां विघ्नो भवेदिति।। | 12-347-19a 12-347-19b |
सिद्धा ह्येते महाभागाः पुरा ह्येकान्तिनोऽभवन्। तमोरजोभिर्निर्मुक्ता मां प्रवेक्ष्यन्त्यसंशयम्।। | 12-347-20a 12-347-20b |
न दृश्यश्चक्षुषा योऽसौ न स्पृश्यः स्पर्शनेन च। न घ्रेयश्चैव गन्धेन रसेन च विवर्जितः।। | 12-347-21a 12-347-21b |
सत्वं रजस्तमश्चैव न गुणास्तं भजन्ति वै। यश्च सर्वगतः साक्षी लोकस्यात्मेति कथ्यते।। | 12-347-22a 12-347-22b |
भूतग्रामशरीरेषु नश्यत्सु न विनश्यति। अजो नित्यः शाश्वतश्च निर्गुणो निष्कलस्तथा।। | 12-347-23a 12-347-23b |
द्विर्द्वादशेभ्यस्तत्त्वेभ्यः ख्यातो यः पञ्चविंशकः। पुरुषो निष्क्रियश्चैव ज्ञानदृश्यश्च कथ्यते।। | 12-347-24a 12-347-24b |
यं प्रविश्य भवन्तीह मुक्ता वै द्विजसत्तमाः। स वासुदेवो विज्ञेयः परमात्मा सनातनः।। | 12-347-25a 12-347-25b |
पश्य देवस्य माहात्म्यं महिमानं च नारद। शुभाशुभैः कर्मभिर्यो न लिप्यति कदाचन।। | 12-347-26a 12-347-26b |
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणानेतान्प्रचक्षते। एते सर्वशरीरेषु तिष्ठन्ति विचरन्ति च।। | 12-347-27a 12-347-27b |
एतान्गुणांस्तु क्षेत्रज्ञो भुङ्क्ते नैभिः स भुज्यते। निर्गुणो गुणभुक्चैव गुणस्रष्टा गुणातिगः।। | 12-347-28a 12-347-28b |
जगत्प्रतिष्ठा देवर्षे पृथिव्यप्सु प्रलीयते। ज्योतिष्यापः प्रलीयन्ते ज्योतिर्वायौ प्रलीयते।। | 12-347-29a 12-347-29b |
खे वायुः प्रलयं याति मनस्याकाशमेव च। मनो हि परमं भूतं तदव्यक्ते प्रलीयते।। | 12-347-30a 12-347-30b |
अव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन्निष्क्रिये संप्रलीयते। नास्ति तस्मात्परतरः पुरुषाद्वै सनातनात्।। | 12-347-31a 12-347-31b |
नित्यं हि नास्ति जगति भूतं स्थावरजङ्गमम्। ऋते तमेकं पुरुषं वासुदेवं सनातनम्। सर्वभूतात्मभूतो हि वासुदेवो महाबलः।। | 12-347-32a 12-347-32b 12-347-32c |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्। ते समेता महात्मानः शरीरमिति संज्ञितम्।। | 12-347-33a 12-347-33b |
तदाविशति यो ब्रह्मन्न दृश्यो लघुविक्रमः। उत्पन्न एव भवति शरीरं चेष्टयन्प्रभुः।। | 12-347-34a 12-347-34b |
न विना धातुसंघातं शरीरं भवति क्वचित्। न च जीवं विना ब्रह्मन्वायवश्चेष्टयन्त्युत।। | 12-347-35a 12-347-35b |
स जीवः परिसंख्यातः शेषः संकर्षणः प्रभुः। तस्मात्सनत्कुमारत्वं योऽलभत्स्वेन कर्मणा।। | 12-347-36a 12-347-36b |
यस्मिंश्च सर्वभूतानि प्रद्युम्नः परिपठ्यते। तस्मात्प्रसूतो यः कर्ता कारणं कार्यमेव च।। | 12-347-37a 12-347-37b |
तस्मत्सर्वं संभवति जगत्स्थावरजङ्गमम्। सोऽनिरुद्धः स ईशानो व्यक्तिः सा सर्वकर्मसु।। | 12-347-38a 12-347-38b |
यो वासुदेवो भगवान्क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः। ज्ञेयः स एव राजेन्द्र जीवः संकर्षणः प्रभुः।। | 12-347-39a 12-347-39b |
संकर्षणाच्च प्रद्युम्नो मनोभूतः स उच्यते। प्रद्युम्नाद्योऽनिरूद्धस्तु सोहंकारः स ईश्वरः।। | 12-347-40a 12-347-40b |
मत्तः सर्वं संभवति जगत्स्थावरजङ्गमम्। अक्षरं च क्षरं चैव सच्चासच्चैव नारद।। | 12-347-41a 12-347-41b |
मां प्रविश्य भवन्तीह मुक्ता भक्तास्तु ये मम। अहं हि पुरुषो ज्ञेयो निष्क्रियः पञ्चविंशकः।। | 12-347-42a 12-347-42b |
निर्गुणो निष्कलश्चैव निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः। एतत्त्वया न विज्ञेयं रूपवानिति दृश्यते।। | 12-347-43a 12-347-43b |
इच्छन्मुहूर्तान्नश्येयमीशोऽहं जगतो गुरुः। माया ह्येषा मया सृष्टा यन्मां पश्यसि नारद।। | 12-347-44a 12-347-44b |
सर्वभूतगुणैर्युक्तं नैवं त्वं ज्ञातुमर्हसि। मयैतत्कथितं सम्यक्तव मूर्तिचतुष्टयम्।। | 12-347-45a 12-347-45b |
अहं हि जीवसंज्ञो वै मयि जीवः समाहितः। मैवं ते बुद्धिरत्राभूर्द्दृषो जीवो मयेति वै।। | 12-347-46a 12-347-46b |
अहं सर्वत्रगो ब्रह्मन्भूतग्रामान्तरात्मकः। भूतग्रामशरीरेषु नश्यत्सु न नशाम्यहम्।। | 12-347-47a 12-347-47b |
सिद्धा हि ते महाभागा नरा ह्येकान्तिनोऽभवन्। तमोरजोभ्यां निर्मुक्ताः प्रवेक्ष्यन्ति च मां मुने।। | 12-347-48a 12-347-48b |
`अहं कर्ता च कार्यं च कारणं चापि नराद। न दृश्यश्चक्षुषा देवः स्पृश्यो न स्पर्शनेन च। आघ्रेयो नैव गन्धेन रसेन च विसर्जितः।। | 12-347-49a 12-347-49b 12-347-49c |
सत्वं रजस्तमश्चैव न गुणास्ते भवन्ति हि। स हि सर्वगतः साक्षी लोकस्यात्मेति कथ्यते।।' | 12-347-50a 12-347-50b |
हिरण्यगर्भो लोकादिश्चतुर्वक्रोऽनिरुक्तगः। ब्रह्मा सनातनो देवो मम बह्वर्थचिन्तकः।। | 12-347-51a 12-347-51b |
ललाटाच्चैव मे रुद्रो देवः क्रोधाद्विनिःसृतः। पश्यैकादश मे रुद्रान्दक्षिणं पार्श्वमास्थितान्।। | 12-347-52a 12-347-52b |
द्वादशैव तथाऽऽदित्यान्वामपार्श्वे समास्थितान्। अग्रतश्चैव मे पश्य वसूनष्टौ सुरोत्तमान्।। | 12-347-53a 12-347-53b |
नासत्यं चैव दस्रं च भिषजौ पश्य पृष्ठतः। सर्वान्प्रजापतीन्पश्य पश्य सप्तऋर्षीस्तथा।। | 12-347-54a 12-347-54b |
वेदान्यज्ञांश्च शतशः पश्यामृतमथौषधीः। तपांसि नियमांश्चैव यमानपि पृथग्विधान्।। | 12-347-55a 12-347-55b |
तथाऽष्टगुणमैश्वर्यमेकस्थं पश्य मूर्तिमत्। श्रियं लक्ष्मीं च कीर्तिं च पृथिवीं च ककुद्मिनी।। | 12-347-56a 12-347-56b |
वेदानां मातरं पश्य मत्स्थां देवीं सरस्वतीम्। ध्रुवं च ज्योतिषां श्रेष्ठं पश्य नारद खेचरम्।। | 12-347-57a 12-347-57b |
अम्भोधरान्समुद्रांश्च सरांसि सरितस्तथा। मूर्तिमन्तः पितृगणांश्चतुरः पश्य सत्तम।। | 12-347-58a 12-347-58b |
त्रींश्चैवेमान्गुणान्पश्य मत्स्थान्मूर्तिविवर्जितान्। देवकार्यादपि मुने पितृकार्यं विशिष्यते।। | 12-347-59a 12-347-59b |
देवानां च पितृणां च पिता ह्येकोऽहमादितः। अहं हयशिरा भूत्वा समुद्रे पश्चिमोत्तरे।। | 12-347-60a 12-347-60b |
पिबामि सुहुतं हव्यं कव्यं च श्रद्धयाऽन्वितम्। मया सृष्टः पुरा ब्रह्मा मां यज्ञमयजत्स्वयम्।। | 12-347-61a 12-347-61b |
ततस्तस्मै वरान्प्रीतो दत्तवानस्म्यनुत्तमान्। मत्पुत्रत्वं च कल्पादौ लोकाध्यक्षत्वमेव च।। | 12-347-62a 12-347-62b |
अहंकारकृतं चैव नामपर्यायवाचकम्। त्वया कृतां च मर्यादां नातिक्रंस्यति कश्चन।। | 12-347-63a 12-347-63b |
त्वं चैव वरदो ब्रह्मन्वरेप्सूनां भविष्यसि। सुरासुरगणानां च ऋषीणां च तपोधन।। | 12-347-64a 12-347-64b |
पितृणां च महाभाग सततं संशितव्रत। विविधानां च भूतानां त्वमुपास्यो भविष्यसि।। | 12-347-65a 12-347-65b |
प्रादुर्भावगतश्चाहं सुरकार्येषु नित्यदा। अनुशास्यस्त्वया ब्रह्मन्नियोज्यश्च सुतो यथा।। | 12-347-66a 12-347-66b |
एतांश्चान्यांश्च रुचिरान्ब्रह्मणेऽमिततेजसे। `एवं रुद्राय मनवे इन्द्रायामिततेजसे।' अहं दत्त्वा वरान्प्रीतो निवृत्तिपरमोऽभवम्।। | 12-347-67a 12-347-67b 12-347-67c |
निर्वाणं सर्वधर्माणां निवृत्तिः परमा स्मृता। तस्मान्निवृत्तिमापन्नश्चरेत्सर्वाङ्गनिर्वृतः।। | 12-347-68a 12-347-68b |
विद्यासहायवन्तं मामादित्यस्थं सनातनम्। कपिलं प्राहुराचार्याः साङ्ख्यनिश्चितनिश्चयाः।। | 12-347-69a 12-347-69b |
हिरण्यगर्भो भगवानेष च्छन्दसि संस्तुतः। सोहं योगगतिर्ब्रह्मन्योगशास्त्रेषु शब्दितः।। | 12-347-70a 12-347-70b |
एषोऽहं व्यक्तिमाश्रित्य तिष्ठामि दिवि शाश्वतः। ततो युगसहस्रान्ते संहरिष्ये जगत्पुनः।। | 12-347-71a 12-347-71b |
कृत्वाऽऽत्मस्थानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। एकाकी विद्यया सार्धं विहरिष्ये जगत्पुनः।। | 12-347-72a 12-347-72b |
ततो भूयो जगत्सर्वं करिष्यामीह विद्यया। अस्मिन्मूर्तिश्चतुर्थी या साऽसृजच्छेषमव्ययम्।। | 12-347-73a 12-347-73b |
स हि संकर्षणः प्रोक्तः प्रद्युम्नः सोप्यजीजनत्। प्रद्युम्नादनिरुद्धोऽहं सर्गो मम पुनः पुनः।। | 12-347-74a 12-347-74b |
अनिरुद्धात्तथा ब्रह्मा तन्नाभिकमलोद्भवः। ब्रह्मणः सर्वभूतानि चराणि स्थावराणि च।। | 12-347-75a 12-347-75b |
एतां सृष्टिं विजानीहि कल्पादिषु पुनः पुनः। यथा सूर्यस्य गगनादुदयास्तमने इह। नष्टे पुनर्वलात्काल आनयत्यमितद्युते।। | 12-347-76a 12-347-76b 12-347-76c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 347।। |
12-347-1 स्तब्यैश्च नामभिरिति थ. पाठः। तं मुनिं दर्शयामासनारदं विश्वरूपधृदिति झ. ध. पाठः।। 12-347-7 गायत्रीं च तदन्वयामिति ध. पाठः।। 12-347-9 वेदिं कमण्डलुं शुभ्रान्मणीनुपानहौ कुशानिति झ. पाठः।। 12-347-13 ददृशिरे ददृशुः।। 12-347-19 मद्भक्ताः सूर्यवर्चस इति ध. पाठः।। 12-347-22 न गुणाः संभवन्ति हीति ध. पाठः।। 12-347-35 शरीरं चेन्द्रियाणि चेति ध. पाठः।। 12-347-37 मानसः सर्वभूतानामिति ध. पाठः।। 12-347-38 व्यक्तः सर्वेषु कर्मस्विति ट. पाठः।। 12-347-42 मां प्रविश्य भजन्तीहेति ध. पाठः।। 12-347-53 वसूनष्टौ समाश्रितानिति थ. पाठः।। 12-347-55 वेदान्यज्ञान्पशूंश्चैव स्रुक्च दर्भमहौषधीरिति थ. पाठः।। 12-347-57 ब्रह्मण्यं ज्योतिषां श्रेष्ठमिति ध. पाठः।। 12-347-61 ब्रह्मा मद्यज्ञमयजत्स्वजिति ट. ध. पाठः।। 12-347-68 तस्मिन्निवृत्तिमापन्ने चरेत्सर्वत्र विष्ठित इति ध. पाठः। चरेत्सर्वत्र निस्स्पृह इति ट. पाठः।। 12-347-70 हिरण्यगर्भो भगवान्विश्वयोनिः सनातन इति ट. पाठः।। 12-347-71 तिष्ठाममि भुवि शाश्वत इति थ. पाठः।। 12-347-75 तत्रादिकमलोद्भवः इति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-346 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-348 |