महाभारतम्-12-शांतिपर्व-271
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति हिंसात्यागपूर्वकं शरीराविरोधेन धर्माचरणचोदना।। 1।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 12-271-1x |
शरीरमापदश्चैव न विदन्त्यविहिंसकाः। कथं यात्रा शरीरस्य निरारम्भस्य सेत्स्यते।। | 12-271-1a 12-271-1b |
भीष्म उवाच। | 12-271-2x |
यथा शरीरं न म्लायेन्नैव मृत्युवशं भवेत्। तथा कर्मसु वर्तेत समर्थो धर्ममाचरेत्।।' | 12-271-2a 12-271-2b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। प्रजानामनुकम्पार्थं गीतं राज्ञा विचख्युना।। | 12-271-3a 12-271-3b |
छिन्नस्थूणं वृपं दृष्ट्वा विरावं च गवां भृशम्। गोगृहे यज्ञवाटे च प्रेक्षमाणः स पार्थिवः।। | 12-271-4a 12-271-4b |
स्वस्ति गोभ्योऽस्तु लोकेषु ततो निर्वचनं कृतम्। हिंसायां हि प्रवृत्तायामाशीरेषा तु कल्पिता।। | 12-271-5a 12-271-5b |
अव्यवस्थितमर्यादैर्विमूढैर्नास्तिकैर्नरैः। संशयात्मभिरव्यक्तैर्हिंसा समनुदर्शिता।। | 12-271-6a 12-271-6b |
सर्वकर्मग्वहिंसां हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत्। कामकाराद्विहिंसन्ति बहिर्वेद्यां पशून्नराः।। | 12-271-7a 12-271-7b |
तस्मात्प्रमाणतः कार्यो धर्मः सूक्ष्मो विजानता। अहिंसा ह्येव सर्वेभ्यो धर्मेभ्यो ज्यायसी मता।। | 12-271-8a 12-271-8b |
उपोष्य संशितो भूत्वा हित्वा वेदकृतां शुचिः। आचार इत्यनाचारः कृपणाः फलहेतवः।। | 12-271-9a 12-271-9b |
यदि च्छिन्दन्ति वृक्षांश्च यूपांश्चोद्दिश्य मानवाः। वृथा मांसानि खादन्ति नैप धर्मः प्रशस्यते।। | 12-271-10a 12-271-10b |
सुरां मत्स्यान्मधु मांसमासवं कृसरौदनम्। धूर्तैः प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद्वेदेषु कल्पितम्। कामान्मोहाच्च लोभाच्च लौल्यमेतत्प्रवर्तितम्।। | 12-271-11a 12-271-11b 12-271-11c |
विष्णुमेवाभिजानन्ति सर्वयज्ञेषु ब्राह्मणाः। पायसैः सुमनोभिश्च तस्यैव यजनं स्मृतम्।। | 12-271-12a 12-271-12b |
यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः। यच्चापि किंचित्कर्तव्यमन्यच्चोक्षैः सुसंस्कृतम्। महासत्वैः शुद्धभावैः सर्वं देवार्हमेव तत्।। | 12-271-13a 12-271-13b 12-271-13c |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-271-14x |
शरीरमापदश्चापि विवदन्त्यविहंसतः। कथं यात्रा शरीरस्य निरारम्भस्य सेत्स्यते।। | 12-271-14a 12-271-14b |
भीष्म उवाच। | 12-271-15x |
यथा शरीरं न ग्लायेन्नेयान्मृत्युवशं यथा। तथा कर्मसु वर्तेत समर्थो धर्ममाचरेत्।। | 12-271-15a 12-271-15b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 271।। |
12-271-4 छिन्ना विशस्ता स्थूणा प्रतिमा शरीरं यस्य तम्।। 12-271-5 निश्चितं वचनं निर्वचनम्। एषा स्वस्ति गोभ्योऽस्त्विति हिंसा कतौ पश्वालम्भः।। 12-271-9 वेदकृतां वेदोक्तां हिंसाम्। आचार इति बुद्ध्या अनाचारः आचरणहीनः।। 12-271-12 विष्णुमेव यजन्तीहेति ट. थ. पाठः।। 12-271-13 चोक्षैर्विशुद्धैः।। 12-271-14 आपदः शरीरं शोपयन्ति शरीरं चापदां नाशमिच्छत्यतोऽत्यन्तं हिंसाशून्यस्य कथं शरीरनिर्वाह इत्याह शरीरमिति।।
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