महाभारतम्-12-शांतिपर्व-229
← शांतिपर्व-228 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-229 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-230 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्ञानस्य श्रेयःसाधनत्वज्ञानोपायादिप्रतिपादकेन्द्रप्रह्नादसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-229-1x |
यदिदं कर्म लोकेऽस्मिञ्शुभं वा यदि वाऽशुभम्। पुरुषं योजयत्येव फलयोगेन भारत।। | 12-229-1a 12-229-1b |
कर्ता स्वित्तस्य पुरुष उताहो नेति संशयः। एतदिच्छामि तत्त्वेन त्वत्तः श्रोतुं पितामह।। | 12-229-2a 12-229-2b |
भीष्म उवाच। | 12-229-3x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। प्रह्लादस्य च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर।। | 12-229-3a 12-229-3b |
असक्तं धूतपाप्मानं कुले जातं बहुश्रुतम्। अस्तब्धमनहंकारं सत्वस्थं संयतेन्द्रियम्।। | 12-229-4a 12-229-4b |
तुल्यनिन्दास्तुतिं दान्तं शून्यागारसमाकृतिम्। चराचराणां भूतानां विदितप्रभवाप्ययम्।। | 12-229-5a 12-229-5b |
अक्रुध्यन्तमहृष्यन्तमप्रियेषु प्रियेषु च। काञ्चने वाऽथ लोष्ठे वा उभयोः समदर्शनम्।। | 12-229-6a 12-229-6b |
आत्मनि श्रेयसि ज्ञाने धीरं निश्चितनिश्चयम्।। परावरज्ञं भूतानां सर्वज्ञं सर्वदर्शनम्।। | 12-229-7a 12-229-7b |
`अव्यक्तात्मनि गोविन्दे वासुदेवे महात्मनि। हृदयेन समाविष्टं सर्वभावप्रियंकरम्।। | 12-229-8a 12-229-8b |
भक्तं भागवतं नित्यं नारायणपरायणम्। ध्यायन्तं परमात्मानं हिरण्यकशिपोः सुतम्।।' | 12-229-9a 12-229-9b |
शक्रः प्रह्लादमासीनमेकान्ते संयतेन्द्रियम्। बुभुत्समानस्तत्प्रज्ञामभिगम्येदमब्रवीत्।। | 12-229-10a 12-229-10b |
यैः कैश्चित्संमतो लोके गुणैः स्यात्पुरुषो नृषु। भवत्यनपगान्सर्वांस्तान्गुणाँल्लक्षयामहे।। | 12-229-11a 12-229-11b |
अथ ते लक्ष्यते बुद्धिः समा बालजनैरिह। आत्मानं मन्यमानः सञ्श्रेयः किमिह मन्यसे।। | 12-229-12a 12-229-12b |
बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्द्विषतां वशमागतः। श्रिया विहीनः प्रह्लाद शोचितव्ये न शोचसि।। | 12-229-13a 12-229-13b |
प्रज्ञालाभेन दैतेय उताहो धृतिमत्तथा। प्रह्लाद स्वस्थरूपोऽसि पश्यन्व्यसनमात्मनः।। | 12-229-14a 12-229-14b |
भीष्म उवाच। | 12-229-15x |
इति संचोदितस्तेन धीरो निश्चितनिश्चयः। उवाच श्लक्ष्णया वाचा स्वां प्रज्ञामनुवर्णयन्।। | 12-229-15a 12-229-15b |
प्रह्लाद उवाच। | 12-229-16x |
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च भूतानां यो न बुध्यते। तस्य स्तम्भो भवेद्बाल्यान्नास्ति स्तंभोऽनुपश्यतः।। | 12-229-16a 12-229-16b |
`गहनं सर्वभूतानां ध्येयं नित्यं सनातनम्। अनिग्रहमनौपम्यं सर्वाकारं परात्परम्।। | 12-229-17a 12-229-17b |
सर्वावरणसंभूतं तस्मादेतत्प्रवर्तते। तन्मया अपि संपश्य नानालक्षणलक्षिताः।। | 12-229-18a 12-229-18b |
स वै पाति जगत्स्रष्टा विष्णुरित्यभिशब्दितः। पुनर्दर्शति संप्राप्ते------सुरेश्चरः।।' | 12-229-19a 12-229-19b |
स्वभावात्संप्रवर्तन्ते निवर्तन्ते तथैव च। सर्वे भावास्तथा भावाः पुरुषार्थो न विद्यते।। | 12-229-20a 12-229-20b |
पुरुषार्थस्य चाभावे नास्ति कश्चित्स्वकारकः। स्वयं च कुर्वतस्तस्य जातु मानो भवेदिह।। | 12-229-21a 12-229-21b |
यस्तु कर्तारमात्मानं मन्यते साध्वसाधु वा। तस्य दोषवती प्रज्ञा अतत्त्वज्ञेति मे मतिः।। | 12-229-22a 12-229-22b |
यदि स्यात्पुरुषः कर्ता शक्रात्मश्रेयसे ध्रुवम्। आरम्भास्तस्य सिद्ध्येयुर्न तु जातु पराभवेत्।। | 12-229-23a 12-229-23b |
अनिष्टस्य हि निर्वृत्तिरनिवृत्तिः प्रियस्य च। लक्ष्यते यतमानानां पुरुषार्थस्ततः कुतः।। | 12-229-24a 12-229-24b |
अनिष्टस्याभिनिर्वृत्तिमिष्टसंवृतिमेव च। अप्रयत्नेन पश्यामः केषां चित्तत्स्वभावतः।। | 12-229-25a 12-229-25b |
प्रतिरूपतराः केचिद्दृस्यन्ते बुद्धिमत्तराः। विरूपेभ्योऽल्पबुद्धिभ्यो लिप्समाना धनागमं।। | 12-229-26a 12-229-26b |
स्वभावप्रेरिताः सर्वे निविशन्ते गुणा यदा। शुभाशुभास्तदा तत्र तस्य किं मानकारणम्।। | 12-229-27a 12-229-27b |
स्वभावादेव तत्सर्वमिति मे निश्चिता मतिः। आत्मप्रतिष्ठा प्रज्ञा वा मम नास्ति ततोऽन्यथा।। | 12-229-28a 12-229-28b |
कर्मजं त्विह मन्यन्ते पलयोगं शुभाशुभम्। कर्मणां विषयं कृत्स्नमहं वक्ष्यामि तच्छृणु।। | 12-229-29a 12-229-29b |
यथा वेदयते कश्चिदोदनं पायसं ह्यदन्। एवं सर्वाणि कर्माणि स्वभावस्यैव लक्षणम्।। | 12-229-30a 12-229-30b |
विकारानेव यो वेद न वेद प्रकृतिं पराम्। तस्य स्तंभोऽभवेद्बाल्यान्नास्ति स्तंभोऽनुपश्यतः।। | 12-229-31a 12-229-31b |
स्वभावभाविनो भावान्सर्वानेवेह निश्चये। बुद्ध्यमानस्य दर्पो वा मानो वा किं करिष्यति।। | 12-229-32a 12-229-32b |
वेद धर्मविधिं कृत्स्नं भूतानां चाप्यनित्यताम्। तस्माच्छक्र न शोचारि सर्वं ह्येवेदमन्तवत्।। | 12-229-33a 12-229-33b |
निर्ममो निरहंकारो निरीहो मुक्तबन्धनः। स्वस्थो व्यपेतः पश्यामि भूतानां प्रभवाप्ययौ।। | 12-229-34a 12-229-34b |
कृतप्रज्ञस्य दान्तस्य वितृष्णाय निराशिषः। नायासो विद्यते शक्र पश्यतो योगवित्तया।। | 12-229-35a 12-229-35b |
प्रकृतौ च विकारे च न मे प्रीतिर्न च द्विषे। द्वेष्टारं च न पश्यामि यो ममाद्य विरुध्यति।। | 12-229-36a 12-229-36b |
नोर्ध्वं नावाङ्वतिर्यक्च न क्वचिच्छक्र कामये। न हि ज्ञेये न विज्ञाने नाज्ञाने विद्यतेऽन्तरम्।। | 12-229-37a 12-229-37b |
शक्र उवाच। | 12-229-38x |
येनैषा लभ्यते प्रज्ञा येन शान्तिरवाप्यते। प्रब्रूहि तमुपायं मे सम्यक्प्रह्लाद पृच्छते।। | 12-229-38a 12-229-38b |
प्रह्लाद उवाच। | 12-229-39x |
आर्जवेनाप्रमादेन प्रसादेनात्मवत्तया। गुरुशुश्रूषया शक्र पुरुषो लभते महत्।। | 12-229-39a 12-229-39b |
स्वभावाल्लभते प्रज्ञां शान्तिमेति स्वभावतः। स्वभावादेव तत्सर्वं यत्किंचिदनुपश्यति।। | 12-229-40a 12-229-40b |
`नैवान्तरं विजानाति श्रुत्वा गुरुमुखात्ततः। वाक्यं वाक्यार्थविज्ञानमालोक्य मनसा यतिः।। | 12-229-41a 12-229-41b |
विवेकप्रत्ययापन्नमात्मानमनुपश्यति। विरज्यति ततो भीत्या परमेश्वरमृच्छति।। | 12-229-42a 12-229-42b |
त्रातारं सर्वदुःखानां तत्सुखान्वेषणं ततः। करोति सद्भिः संसर्गमलं सन्तः सुखाय वै।। | 12-229-43a 12-229-43b |
सतां सकाशादाज्ञाय मार्गं लक्षणवत्तया। सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः परमात्मानमृच्छति।। | 12-229-44a 12-229-44b |
विषयेच्छाकृतो धर्मं सरजस्को भयावहः। धर्महानिमवाप्नोति क्रमात्तेन नरः पुनः।। | 12-229-45a 12-229-45b |
भक्तिहीनो भवत्येव परमात्मनि चाच्युत। वाचके वाऽपि च स्थानं न हन्त्येव विमोचितः।। | 12-229-46a 12-229-46b |
सार्क्ष्ये चास्य रतिर्नित्यं संसारे च रतिर्भवेत्। तस्य नित्यमविज्ञानादात्माचैव न सिद्ध्यति।। | 12-229-47a 12-229-47b |
उन्मत्तवृत्तिर्भवति क्रमादेवं प्रवर्तते। आशौचं वर्धते नित्यं न शाम्यति कथंचन।। | 12-229-48a 12-229-48b |
विषये चान्वितस्यास्य मोक्षवाञ्छा न जायते। हेत्वाभासेषु संलीनः स्तौति वैषयिकान्गुणान्।। | 12-229-49a 12-229-49b |
न शास्त्राणि शृणोत्येव मानदर्पसमन्वितः। स्वतःसिद्धं न भोगस्तं स्वतः सिद्धं न वेत्ति च। चिद्रूपधारणं चैव परसृष्टिमथाव्ययम्।। | 12-229-50a 12-229-50b 12-229-50c |
नानायोनिगतस्तेन भ्राम्यमाणः स्वकर्मभिः। तीर्णपारं न जानाति महामोहसमन्वितः। आचार्यसंश्रयाद्विद्याद्विनयं समुपागतः।। | 12-229-51a 12-229-51b 12-229-51c |
अनुकूलेषु धर्मेषु चिनोत्येनं ततस्ततः। आचार्य इति च ख्यातस्तेनासौ बलवृत्रहन्।। | 12-229-52a 12-229-52b |
नियतेनैव सद्भावस्तेन जन्मान्तरादिषु। कर्मसञ्चयतूलौघः क्षिप्यते ज्ञानवायुना।। | 12-229-53a 12-229-53b |
एवं युक्तसमाचारः संसारविनिवर्तकः। अनुकूलवृत्तिं सततं छिनत्त्येव भृगुर्यथा।। | 12-229-54a 12-229-54b |
येन चायं समापन्नं वैतृष्ण्यं नाधिगच्छति। अभ्यन्तरः स्मृतः शक्र तत्साम्यं परिवर्जयेत्।। | 12-229-55a 12-229-55b |
प्रथमं तत्कृतेनैव कर्मणा परिमृच्छति। द्वितीयं स्वप्नयोगं च कर्मणा परिगच्छति।। | 12-229-56a 12-229-56b |
एतैरक्षैः समापन्नः प्रत्यक्षोऽसौ समास्थितः। सुपुप्त्याख्यस्तुरीयोसौ न च ह्यावरणान्वितः।। | 12-229-57a 12-229-57b |
लोकवृत्त्या तमीशानं यजञ्जुह्वन्यमी भवेत्। आत्मन्यायासयोगेन निष्क्रियं स परात्परम्।। | 12-229-58a 12-229-58b |
आयामे तां विजानाति मायैषा परमात्मनः। प्रातिभासिकसामान्याद्बुद्धेर्या संविदात्मिका।। | 12-229-59a 12-229-59b |
स्फुलिङ्गसत्त्वसदृशादग्निभावो यथा भवेत्। शिशूनामेवमज्ञानामात्मभावोऽन्यथा स्मृतः।। | 12-229-60a 12-229-60b |
साध्येऽप्यवस्तुभूताख्ये मित्रामित्रादयः कुतः। तदभावे तु शोकाद्या न वर्तन्ते सुरेश्वर।। | 12-229-61a 12-229-61b |
एवं बुध्यस्व भगवन्समबुद्धिं समन्वियात्। उपायमेतदाख्यातं मा वक्रं गच्छ देवप।। | 12-229-62a 12-229-62b |
ज्ञानेन पश्यते कर्म ज्ञानिनां न प्रवर्तकम्। यावदारब्धमस्येह तावन्नैवोपशाम्यति।। | 12-229-63a 12-229-63b |
तदन्ते तं प्रयात्येव न विद्वानिति मे मतिः। यदस्य वाचकं वक्ष्ये संस्मरे तद्भवेत्तदा।। | 12-229-64a 12-229-64b |
तेनतेन च भावेन अपायं तत्र पश्यति। स्थानभेदेषु वागेषा तालुसंस्था यथा तथा।। | 12-229-65a 12-229-65b |
तद्वदुद्धिगता ह्यर्था बुद्धिमात्मगतः सदा।। | 12-229-66a |
समस्तसंकल्पविशेषमुक्तं परं पराणां परमं महात्मा। त्रय्यन्तविद्भिः परिगीयतेऽसौ विष्णुर्विभुर्वास्ति गुणो न नित्यम्।। | 12-229-67a 12-229-67b 12-229-67c 12-229-67d |
न चक्षुषा पश्यति कश्चिदेनम्।। | 12-229-68f |
भक्त्या च धृत्या च समाहितात्मा ज्ञानस्वरूपं परिपश्यतीह।। | 12-229-69a 12-229-69b |
वदन्ति तन्मे भगवान्ददौ स स एव शेषं मघवान्महात्मा। एवं ममोपायमवैहि शक्र तस्माल्लोको नास्ति मह्यं सदैव।।' | 12-229-70a 12-229-70b 12-229-70c 12-229-70d |
भीष्म उवाच। | 12-229-71x |
इत्युक्तो दैत्यपतिना शक्रो विस्मयमागमत्। प्रीतिमांश्च तदा राजंस्तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत्।। | 12-229-71a 12-229-71b |
स तदाभ्यर्च्य दैत्येन्द्रं त्रैलोक्यपतिरीश्वरः। असुरेन्द्रमुपामन्त्र्य जगाम स्वं निवेशनम्।। | 12-229-72a 12-229-72b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शन्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 229।। |
12-229-2 श्रोतुं त्वत्तो वदस्व मे इति ट. थ. पाठः।। 12-229-4 असक्तं फलेच्छारहितम्। संयमे रतं इति ट. थ. पाठः। समये रतं इति झ. पाठः।। 12-229-5 शून्यागारनिवासिनं इति झ. पाठः।। 12-229-7 आत्मनि प्रतीचि। श्रेयस्यानन्दरूपे। ज्ञाने चिन्मात्रे। धीरं कुतर्कानभिभूतम्। सर्वज्ञं समदर्शनमिति झ. पाठः।। 12-229-11 भवति त्वयि। अनपगान् स्थिरान्।। 12-229-12 बालजनैः समारागद्वेषादिराहित्यात्। मन्यमानो जानन्नात्मज्ञानार्थं किं श्रेयः प्रशस्ततरं साधनम्।। 12-229-15 तदुक्तमनुवर्णयन् इति ध. पाठः।। 12-229-21 नास्ति काचित्स्वका रतिः इति थ. पाठः।। 12-229-25 अनिष्टस्याप्यनिर्वृत्तिमिष्टनिर्वृत्तिमेव च इति ट. थ. पाठः।। 12-229-30 कश्चिदोदनं वायसो ह्यदन्निति झ. पाठः।। 12-229-32 वुध्यमानस्य वै दर्पं मनो वा इति ध. पाठः।। 12-229-35 पश्यतो लोकविद्यया इति ध. पाठः। लोकमव्ययं इति झ. पाठः।। 12-229-36 यो मामद्य ममायते इति झ. पाठः।। 12-229-37 न ज्ञाने कर्म विद्यते इति झ. पाठः।। 12-229-38 प्रज्ञा ज्ञानम्। शान्तिस्तत्फलम्।। 12-229-39 महत् मोक्षम्।।
शांतिपर्व-228 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-230 |