महाभारतम्-12-शांतिपर्व-143
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शरणागतरक्षणे मुचुकुन्दंप्रति भार्गवोक्तव्याधकपोतोपाख्यानानुवादारम्भः।। 1।। वनमध्ये महावृष्टिनिपीडितेन वेदनचिद्व्याधेन वर्थपीडयाऽधः पतितां काञ्चन कपोर्ती पञ्जरे निरुद्ध्य वृष्ट्युपरमे कस्यचिन्महावृक्षस्याधोदेशे शयनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-143-1x |
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद। शरणागतं पालयतो यो धर्मस्तं ब्रवीहि मे।। | 12-143-1a 12-143-1b |
भीष्म उवाच। | 12-143-2x |
महान्धर्मो महाराज शरणागतपालने। अर्हः प्रष्टुं भवांश्चैनं प्रश्नं भरतसत्तम।। | 12-143-2a 12-143-2b |
शिबिप्रभृतयो राजन्राजानः शरणं गतान्। परिपाल्य महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।। | 12-143-3a 12-143-3b |
श्रूयते च कपोतेन शत्रुः शरणमागतः। पूजितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः।। | 12-143-4a 12-143-4b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-143-5x |
कथं कपोतेन पुरा शत्रुः शरणमागतः। स्वमांसं भोजितः कां च गतिं लेभे स भारत।। | 12-143-5a 12-143-5b |
भीष्म उवाच। | 12-143-6x |
शृणु राजन्कथां दिव्यां सर्वपापप्रणाशिनीम्। नृपतेर्मुचुकुन्दस्य कथितां भार्गवेण वै।। | 12-143-6a 12-143-6b |
इममर्थं पुरा पार्थ मुचुकुन्दो नराधिपः। भार्गवं परिपप्रच्छ प्रणतः पुरुषर्षभ।। | 12-143-7a 12-143-7b |
तस्मै शुश्रूषमाणाय भार्गवोऽकथयत्कथाम्। इमां यथा कपोतेन सिद्धिः प्राप्ता नराधिप।। | 12-143-8a 12-143-8b |
उशनोवाच। | 12-143-9x |
धर्मिश्चयसंयुक्तां कामार्थसहितां कथाम्। शृणुष्वावहितो राजन्गदतो मे महाभुजः।। | 12-143-9a 12-143-9b |
कश्चित्क्षुद्रसमाचारः पृथिव्यां कालसंमितः। चचार पृथिवीपाल घोरः शकुनिलुब्धकः।। | 12-143-10a 12-143-10b |
काकोल इव कृष्णाङ्गो रूक्षः पापसमाहितः। यवमध्यः कृशग्रीवो ह्रस्वपादो महाहनुः।। | 12-143-11a 12-143-11b |
नैव तस्य सुहृत्कश्चिन्न संबन्धी न बान्धवाः। बान्धवैः संपरित्यक्तस्तेन रौद्रेण कर्मणा।। | 12-143-12a 12-143-12b |
नरः पापसमाचारस्त्यक्तव्यो दूरतो बुधैः। आत्मानं यो न संधत्ते सोन्यस्य स्यात्कथं हितः।। | 12-143-13a 12-143-13b |
ये नृशंसा दुरात्मानः प्राणिप्राणहरा नराः। उद्वेजनीया भूतानां व्याला इव भवन्ति ते।। | 12-143-14a 12-143-14b |
स वै क्षारकमादाय वने हत्वा च पक्षिणः। चकार विक्रयं तेषां पतङ्गानां जनाधिपः।। | 12-143-15a 12-143-15b |
एवं तु वर्तमानस्य तस्य वृत्तिं दुरात्मनः। अगमत्सुमहान्कालो न चाधर्ममबुध्यत।। | 12-143-16a 12-143-16b |
तस्य भार्यासहायस्य रममाणस्य शाश्वतम्। दैवयोगविमूढस्य नान्या वृत्तिररोचत।। | 12-143-17a 12-143-17b |
ततः कदाचित्तस्याथ वनस्थस्य समन्ततः। पातयन्निव वृक्षांस्तान्सुमहान्वातसंभ्रमः।। | 12-143-18a 12-143-18b |
मेघसंकुलमाकाशं विद्युन्मण्डलमण्डितम्। संछन्नस्तु मुहूर्तेन नौसार्थैरिव सागरः।। | 12-143-19a 12-143-19b |
वारिधारासमूहेन संप्रहृष्टः शतक्रतुः। क्षणेन पूरयामास सलिलेन वसुंधराम्।। | 12-143-20a 12-143-20b |
ततो धाराकुले लोके संभ्रमन्नष्टचेतनः। शीतार्तस्तद्वनं सर्वमाकुलेनान्तरात्मना।। | 12-143-21a 12-143-21b |
नैव निम्नं स्थलं वाऽपि सोऽविन्दत विहंगहा। पूरितो हि जलौघेनन तस्य मार्गो वनस्य तु।। | 12-143-22a 12-143-22b |
पक्षिणं वर्षवेगेन हता लीनास्तु पादपात्। मृगसिहवराहाश्च ये चान्ये तत्र पक्षिणः।। | 12-143-23a 12-143-23b |
महता वातवर्षेण त्रासितास्ते वनौकसः। भयार्ताश्च क्षुधार्ताश्च बभ्रमुः सहिता वने।। | 12-143-24a 12-143-24b |
स तु शीतहतैर्गात्रैर्जगामैव न तस्थिवान्। ददर्श पतितां भूमौ कपोतीं शीतविह्वलाम्।। | 12-143-25a 12-143-25b |
दृष्टवाऽऽर्तोपि हि पापात्मा स तां पञ्जरकेऽक्षिपत्। स्वयं दुःखाभिभूतोऽपि दुःखमेवाकरोत्परे।। | 12-143-26a 12-143-26b |
पापात्मा पापकारित्वत्पापमेव चकार सः। सोऽपश्यत्तरुषण्डेषु मेघनीलं वनस्पतिम्।। | 12-143-27a 12-143-27b |
सेव्यमानं विहंगौघैश्छायावासफलार्थिभिः। धात्रा परोपकाराय स साधुरिव निर्मितः।। | 12-143-28a 12-143-28b |
अथाभवत्क्षणेनैव वियद्विमलतारकम्। महत्सर इवोत्फुल्लं कुमुदच्छुरितोदकम्। कुसुमाकारताराढ्यमाकाशं निर्मलं बहु।। | 12-143-29a 12-143-29b 12-143-29c |
घनैर्मुक्तं नभो दृष्ट्वा लुब्धकः शीतविह्वलः। दिशो विलोकयामास वेलां च सुदुरात्मवान्।। | 12-143-30a 12-143-30b |
दूरे ग्रामनिवेशश्च तस्मात्स्थानादिति प्रभो। कृतबुद्धिर्द्रुमे तस्मिन्वस्तुं तां रजनीं ततः।। | 12-143-31a 12-143-31b |
साञ्जलिः प्रणतिं कृत्वा वाक्यमाह वनस्पतिम्। शरणं यामि यान्यस्मिन्दैवतानीति भारत।। | 12-143-32a 12-143-32b |
स शिलायां शिरः कृत्वा पर्णान्यास्तीर्य भूतले। दुःखेन महताऽऽविष्टस्ततः सुष्वाप पक्षिहा।। | 12-143-33a 12-143-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 143।। |
12-143-11 काकोलः काकविशेषः।। 12-143-15 क्षारकं जालम्।। 12-143-23 येचान्ये तत्र वर्तिन इति ट. द. पाठः।।
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