महाभारतम्-12-शांतिपर्व-154
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नारदेन शाल्मलिप्रति पर्वतादिभञ्जकेनापि वायुना तदीयशाखाया अप्यभञ्जने कारणप्रश्ने तेन साधिक्षेपमात्मशाखाभञ्जने वायोरशक्तिकथनम्।। 1।।
नारद उवाच। | 12-154-1x |
बन्धुत्वादथवा सख्याच्छाल्मले नात्र संशयः। कस्मात्त्वां रक्षते नित्यं भीमः सर्वत्रगोऽनिलः।। | 12-154-1a 12-154-1b |
तद्भावं परमं वायोः शाल्मके त्वमुपागतः। तवाहमस्मीति सदा येन रक्षति मारुतः।। | 12-154-2a 12-154-2b |
न तं पश्याम्यहं वृक्षं पर्वतं वेश्म चेदृशम्। यं न वायुबलाद्भग्नं पृथिव्यामिति मे मतिः।। | 12-154-3a 12-154-3b |
त्वं पुनः कारणैर्नूनं रक्ष्यसे शाल्मले यथा। वायुना सपरीवारस्तेन तिष्ठस्यसंशयम्।। | 12-154-4a 12-154-4b |
शाल्मलिरुवाच। | 12-154-5x |
न मे वायुः सखा ब्रह्मन्न बन्धुर्मम नारद। चिरं मे प्रीयते नैव येन मां रक्षतेऽनिलः।। | 12-154-5a 12-154-5b |
मम तेजोबलं भीमं वायोरपि हि नारद। कलामष्टादशीं प्राणैर्न मे प्राप्नोति मारुतः।। | 12-154-6a 12-154-6b |
आगच्छन्परुषो वायुर्मया विष्टम्भितो बलात्। भञ्जन्द्रुमान्पर्वतांश्च यच्चान्यत्स्थाणुजङ्गमम्।। | 12-154-7a 12-154-7b |
स मया बहुशो भग्नः प्रभञ्जन्वै प्रभञ्जनः। तस्मान्न विभ्ये देवर्षे क्रुद्धादपि समीरणात्।। | 12-154-8a 12-154-8b |
नारद उवाच। | 12-154-9x |
शाल्मले विपरीतं ते दर्शनं नात्र संशयः। न हि वायोर्बले नास्ति भूतं तुल्यबलं क्वचित्।। | 12-154-9a 12-154-9b |
इन्द्रो यमो वैश्रवणो वरुणश्च जलेश्वरः। नैतेऽपि तुल्या मरुतः किं पुनस्त्वं वनस्पते।। | 12-154-10a 12-154-10b |
यश्च कश्चिदपि प्राणी चेष्टते शाल्मले भुवि। सर्वत्र भगवान्वायुश्चेष्टाप्राणकरः प्रभुः।। | 12-154-11a 12-154-11b |
एष चेष्टयते सम्यक्प्राणिनः सम्यगायतः। असम्यगायतो भूयश्चेष्टते विकृतं नृषु।। | 12-154-12a 12-154-12b |
स त्वमेवंविधं वायुं सर्वसत्वभृतां वरम्। न पूजयसि पूज्यन्तं किमन्यद्वुद्धिलाघवात्।। | 12-154-13a 12-154-13b |
असारश्चापि दुर्मेधाः केवलं बहु भाषसे। क्रोधादिभिरवच्छन्नो मिथ्या वदसि शाल्मले।। | 12-154-14a 12-154-14b |
मम रोषः समुत्पन्नस्त्वय्येवं संप्रभाषति। ब्रवीम्येष स्वयं वायोस्तव दुर्भाषितं बहु।। | 12-154-15a 12-154-15b |
चन्दनैः स्यन्दनैः शालैः सरलैर्देवदारुभिः। वेतसैर्धन्वनैश्चापि ये चान्ये बलवत्तराः। तैश्चापि नैवं दुर्बुद्धे क्षिप्तो वायुः कृतात्मभिः।। | 12-154-16a 12-154-16b 12-154-16c |
तेऽपि जानन्ति वायोश्च बलमात्मन एव च। तस्मात्ते नावमन्यन्ते श्वसनं तरुसत्तमाः।। | 12-154-17a 12-154-17b |
त्वं तु मोहान्न जानीपे वायोर्बलमनन्तकम्। एवं तस्माद्गमिष्यामि सकाशं मातरिश्वनः।। | 12-154-18a 12-154-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 154।। |
12-154-2 न्यग्भावं परमं वायोरिति झ. पाठः।। 12-154-5 परमेष्ठी तथा नैव येन रक्षति वानिल इति झ. पाठः।।
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