महाभारतम्-12-शांतिपर्व-085
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति अमात्यलक्षणादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-85-1x |
कथंस्विदिह राजेन्द्र पालयन्पार्थिवः प्रजाः। प्रैति धर्मं विशेषेण कीर्तिमाप्नोति शाश्वतीम्।। | 12-85-1a 12-85-1b |
भीष्म उवाच। | 12-85-2x |
व्यवहारेण शुद्धेन प्रजापालनतत्परः। प्राप्य धर्मं च कीर्ति च लोकानाप्नोत्यसौ शुचिः।। | 12-85-2a 12-85-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-85-3x |
कीदृशव्यवहारं तु कैश्च व्यवहरेन्नृपः। एतत्पृष्टो महाप्राज्ञ यथावद्वक्तुमर्हसि।। | 12-85-3a 12-85-3b |
ये चैव पूर्वकथिता गुणास्ते पुरुषं प्रति। नैकस्मिन्पुरुषे ह्येते विद्यन्त इति मे मतिः।। | 12-85-4a 12-85-4b |
भीष्म उवाच। | 12-85-5x |
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि बुद्धिमन्। दुर्लभः पुरुषः कश्चिदेभिर्युक्तो गुणैः शुभैः।। | 12-85-5a 12-85-5b |
किंतु संक्षेपतः शीलं प्रयत्नेनेह दुर्लभम्। वक्ष्यामि तु यथाऽमात्यान्यादृशांश्च करिष्यसि।। | 12-85-6a 12-85-6b |
चतुरो ब्राह्मणान्वैद्यान्प्रगल्भान्स्नातकाञ्शुचीन्। क्षत्रियान्दश चाष्टौ च बलिनः शस्त्रपाणिनः।। | 12-85-7a 12-85-7b |
वैश्यान्वित्तेन संपन्नानेकविंशतिसङ्ख्यया। त्रींश्च शूद्रान्विनीतांश्च शुचीन्कर्मणि पूर्वके।। | 12-85-8a 12-85-8b |
अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं तथा। पञ्चाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम्।। | 12-85-9a 12-85-9b |
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शिनम्। कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलोलुपम्।। | 12-85-10a 12-85-10b |
वर्जितं चैव व्यसनैः सुघोरैः सप्तभिर्भृशम्। अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजोपधारयेत्।। | 12-85-11a 12-85-11b |
ततः संप्रेषयेद्राष्ट्रे राष्ट्रीयाय च दर्शयेत्। अनेन व्यवहारेण द्रष्टव्यास्ते प्रजाः सदा।। | 12-85-12a 12-85-12b |
न चापि गूढं द्रव्यं ते ग्राह्यं कार्योपघातकम्। कार्ये खलु विपन्ने त्वां यो धर्मस्तं च पीडयेत्।। | 12-85-13a 12-85-13b |
विद्रवेच्चैव राष्ट्रं ते श्येनात्पक्षिगणा इव। परिस्रवेच्च सततं नौर्विशीर्णेव सागरे।। | 12-85-14a 12-85-14b |
प्रजाः पालयतोऽसम्यगधर्मेणेह भूपतेः। हार्दं भयं संभवति स्वर्गश्चस्य विरुध्यते।। | 12-85-15a 12-85-15b |
अथ यो धर्मतः पाति राजाऽमात्योऽथवाऽऽत्मजः। धर्मासने सन्नियुक्तो धर्ममूले नरर्षभ।। | 12-85-16a 12-85-16b |
`स्वर्गं याति महीपालो नियुक्तैः सचिवैः सह।' कार्येष्वधिकृताः सम्यगकुर्वन्तो नृपानुगाः। आत्मानं पुरतः कृत्वा यान्त्यधः सह पार्थिवाः।। | 12-85-17a 12-85-17b 12-85-17c |
बलात्कृतानां वलिभिः कृपणं बहुजल्पताम्। नाथो वै भूमिपो नित्यमनाथानां नृणां भवेत्।। | 12-85-18a 12-85-18b |
ततः साक्षिबलं साधु द्वैधवादकृतं भवेत्। असाक्षिकमनाथं वा परीक्ष्यं तद्विशेषतः।। | 12-85-19a 12-85-19b |
अपराधानुरूपं च दण्डं पापेषु धारयेत्। वियोजयेद्धनैर्ऋद्धानधनानथ बन्धनैः।। | 12-85-20a 12-85-20b |
विनयेच्चापि दुर्वृत्तान्प्रहारैरपि पार्थिवः। सान्त्वेनोपप्रदानेन शिष्टांश्च परिपालयेत्।। | 12-85-21a 12-85-21b |
राज्ञो वधं चिकीर्षेद्यस्तस्य चित्रो वधो भवेत्। आदीपकस्य स्तेनस्य वर्णसंकरिकस्य च।। | 12-85-22a 12-85-22b |
सम्यक्प्रणयतो दण्डं भूमिपस्य विशांपते। युक्तस्य वा नास्त्यधर्मो धर्म एव हि शाश्वतः।। | 12-85-23a 12-85-23b |
कामकारेण दण्डं तु यः कुर्यादविचक्षणः। स इहाकीर्तिसंयुक्तो मृतो नरकमृच्छति।। | 12-85-24a 12-85-24b |
न परस्य प्रवादेन परेषां दण्डमर्पयेत्। आगमानुगमं कृत्वा बध्नीयान्मोक्षयीत वा।। | 12-85-25a 12-85-25b |
न तु हन्यान्नृपो जातु दूतं कस्यांचिदापदि। दूतस्य हन्ता निरयमाविशेत्सचिवैः सह।। | 12-85-26a 12-85-26b |
यथोक्तवादिनं दूतं क्षत्रधर्मरतो नृपः। यो हन्यात्पितरस्तस्य भ्रूणहत्यामवाप्नुयुः।। | 12-85-27a 12-85-27b |
कुलीनः शीलसंपन्नो वाग्मी दक्षः प्रियंवदः। यथोक्तवादीस्मृतिमान्दूतः स्यात्सप्तभिर्गुणैः।। | 12-85-28a 12-85-28b |
एतैरेव गुणैर्युक्तः प्रतीहारोऽस्य रक्षिता। शिरोरक्षश्च भवति गुणैरेतैः समन्वितः।। | 12-85-29a 12-85-29b |
धर्मशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः सांधिविग्रहिको भवेत्। मतिमान्धृतिमान्ह्रीमान्रहस्यविनिगूहिता।। | 12-85-30a 12-85-30b |
कुलीनः सत्वसंपन्नः शुक्लोऽमात्यः प्रशस्यते। एतैरेव गुणैर्युक्तस्तथा सेनापतिर्भवेत्।। | 12-85-31a 12-85-31b |
व्यूहयन्त्रायुधानां च तत्त्वज्ञो विक्रमान्वितः। वर्षशीतोष्णवातानां सहिष्णुः पररन्ध्रवित्।। | 12-85-32a 12-85-32b |
विश्वासयेत्परांश्चैव विश्वसेच्च न कस्यचित्। पुत्रेष्वपि हि राजेन्द्र विश्वासो न प्रशस्यते।। | 12-85-33a 12-85-33b |
एतच्छास्त्रार्थतत्त्वं तु मयाऽऽख्यातं तवानघ। अविश्वासो नरेन्द्राणां गुह्यं परममुच्यते।। | 12-85-34a 12-85-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।। 85।। |
12-85-2 शुद्धेन पक्षपातहीनेन।। 12-85-3 व्यवहरेत् निर्णयं कुर्यात्।। 12-85-8 पूर्वके नित्ये।। 12-85-9 अष्टाभिर्गुणैः शुश्रूषा श्रवणं ग्रहणं धारणमूहनमपोहनं विज्ञानं तत्त्वज्ञानं चेति तैः।। 12-85-11 मृगयाक्षाः स्त्रियः पानमिति चतुर्भिः कासजैः। दण्डपातनं वाक्यारुष्यं अर्थदूषणमिति त्रिभिः क्रोधजैरिति सप्तभिः। अष्टानां ब्राह्मणचतुष्टयं शूद्रत्रयं सूतश्चेति तेषाम्।। 12-85-12 ते त्वया द्रष्टव्याः।। 12-85-13 गूढं न्यासापहारादिकं ते त्वया न ग्राह्यम्।। 12-85-14 परिस्रवेत् मन्दं मन्दमन्यत्र गच्छेत्।। 12-85-16 धर्ममूले राज्ये।। 12-85-10 विशेषतस्तप्तपरशुग्रहणादिनां तत्परीक्ष्यमिति।। 12-85-20 वियोजद्धवैर्लुब्धान्दरिद्रान्वधबन्धनैरिति ड. थ. पाठः।। 12-85-22 चित्रोऽनेकधा। आदीपकस्य गृहादिदाहकत्य।। 12-85-23 युक्तस्य यथाशास्त्रमवहितस्य।। 12-85-29 प्रतील्पि द्वारपालः। शिरोरक्षः शिरांसीव शिरांसि दुर्गनगरादीनि प्रधानस्थानानि तद्रक्षणकर्ता।। 12-85-31 एतैर्धर्मेत्यादिभिरमात्यगुणैः।। 12-85-32 व्यूहः सेनाया निवेशनप्रकारविशेषः। यन्त्राणि धनुरादीनि।।
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