महाभारतम्-12-शांतिपर्व-226
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तपउपवासादिनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-226-1x |
द्विजातयो व्रतोपेता यदिदं भुञ्जते हविः। अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत्पितामह।। | 12-226-1a 12-226-1b |
भीष्म उवाच। | 12-226-2x |
अवेदोक्तव्रतोपेता भुञ्जानाः कार्यकारिणः। वेदोक्तेषु च भुञ्जाना व्रतलुब्धा युधिष्ठिर।। | 12-226-2a 12-226-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-226-3x |
यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः। एतत्तपो महाराज उताहो किं तपो भवेत्।। | 12-226-3a 12-226-3b |
भीष्म उवाच। | 12-226-4x |
मासपक्षोपवासेन मन्यन्ते यत्तपो जनाः। आत्मतन्त्रोपधातस्तु न तपस्तत्सतां मतम्।। | 12-226-4a 12-226-4b |
त्यागश्च सन्नतिश्चैव शिष्यते तप उत्तमम्। सदोपवासी स भवेद्ब्रह्मचारी सदा भवेत्।। | 12-226-5a 12-226-5b |
मुनिश्च स्यात्सदा विप्रो दैवतं च सदा भवेत्। कुटुम्बिको धर्मपरः सदाऽस्वप्नश्च भारत।। | 12-226-6a 12-226-6b |
अमांसादी सदा च स्यात्पवित्री च सदा भवेत्। अमृताशी सदा च स्यान्न च स्याद्विषभोजनः।। | 12-226-7a 12-226-7b |
विधसाशी सदा च स्यात्सदा चैवातिथिप्रियः। [श्रद्दधानः सदा च स्याद्देवताद्विजपूजकः]।। | 12-226-8a 12-226-8b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-226-9x |
कथं सदोपवासी स्याद्ब्रह्मचारी कथं भवेत्। विघसाशी कथं च स्यात्सदा चैवातिथिप्रयिः।। | 12-226-9a 12-226-9b |
भीष्म उवाच। | 12-226-10x |
अन्तरा प्रातराशं च सायमाशं तथैव च। सदोपवासी स भवेद्यो न भुङ्क्तेऽन्तरा पुनः।। | 12-226-10a 12-226-10b |
भार्यां गच्छन्ब्रह्मचारी ऋतौ भवति ब्राह्मणः। ऋतवादी भवेन्नित्यं ज्ञाननित्यश्च यो नरः।। | 12-226-11a 12-226-11b |
न भक्षयेद्वृथा मांसममांसाशी भवत्यपि। दाननित्यः पवित्रीस्यादस्वप्नश्च दिवाऽस्वपन्।। | 12-226-12a 12-226-12b |
भृत्यातिथिषु यो भुङ्क्ते भुक्तवत्सु सदा नरः। अमृतं केवलं भुङ्क्ते इति विद्धि युधिष्ठिर।। | 12-226-13a 12-226-13b |
अभुक्तवत्सु भुञ्जानो विषमश्नाति वै द्विजः। अदत्त्वा योऽतिथिभ्योऽन्नं न भुङ्क्ते सोतिथिप्रियः। `अभुक्त्वा दैवतेभ्यश्च यो न भुङ्क्ते सदैवतम्' | 12-226-14a 12-226-14b 12-226-14c |
देवताभ्यः पितृभ्यश्च भृत्येभ्योऽतिथिभिः सह। अवशिष्टं तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसाशिनम्।। | 12-226-15a 12-226-15b |
तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणा सह। उपस्थिताश्चाप्सरोभिः परियान्ति दिवौकसः।। | 12-226-16a 12-226-16b |
देवताभिश्च ये सार्धं पितृभ्यश्चोपभुञ्जते। रमन्ते पुत्रपौत्रैश्च तेषां गतिरनुत्तमा।। | 12-226-17a 12-226-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षङ्विशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 226।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-226-1 द्विजातयस्त्रैवर्णिकाः। हविर्देवताशेषम्।। 12-226-2 भुज्जाना अभोज्यं मांसादीति शेषः। कार्यकारिणः कामाचारवन्तः। इहैव सतिता इत्यर्थः। व्रतलुब्धा दीक्षोक्तफलानुरागिणः स्वर्गं प्राप्य पतिष्यन्तीत्यर्थः।। 12-226-4 ह्यत्मतन्त्रमात्मविद्या तस्या उपघातो विघ्नः।। 12-226-5 भूतभयंकरकर्मसंन्यासस्त्यागः। सन्नतिर्भूताराधनम्।। 12-226-7 अमृताशी सदा च स्याद्देवतातिथिपूजकः इति झ. ड. पाठः।। 12-226-9 अतिथिर्वैश्वदेवान्ते प्राप्तः।। 12-226-12 वृथा देवपितृशेषं विना।। 12-226-14 अभुक्तवत्सु नाश्नानः सततं यस्तु वैद्विजः। अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत्तेति झ. पाठः।।
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