महाभारतम्-12-शांतिपर्व-216
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्रह्मचर्योपायादिप्रतिपादकवार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।। 1।।
गुरुरुवाच। | 12-216-1x |
अत्रोपायं प्रवक्ष्यामि यथावच्छास्त्रचक्षुषा। तत्त्वज्ञानाच्चरन्राजन्प्राप्नुयात्परमां गतिम्।। | 12-216-1a 12-216-1b |
सर्वेषामेव भूतानां पुरुषः श्रेष्ठ उच्यते। पुरुषेभ्यो द्विजानाहुर्द्विजेभ्यो मन्त्रदर्शिनः।। | 12-216-2a 12-216-2b |
सर्वभूतात्मभूतास्ते सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः। ब्राह्मणा वेदशास्त्रज्ञास्तत्त्वार्थगतनिश्चयाः।। | 12-216-3a 12-216-3b |
नेत्रहीनो यथा ह्येकः कृच्छ्राणि लभतेऽध्वनि। ज्ञानहीनस्तथा लोके तस्माज्ज्ञानविदोऽधिकाः।। | 12-216-4a 12-216-4b |
तांस्तानुपासते धर्मान्धर्मकामा यथागमम्। न त्वेषामर्थसामान्यमन्तरेण गुणानिमान्।। | 12-216-5a 12-216-5b |
वाग्देहमनसां शौचं क्षमा सत्यं धृतिः स्मृतिः। सर्वधर्मेषु धर्मज्ञा ज्ञापयन्ति गुणाञ्छुभान्।। | 12-216-6a 12-216-6b |
यदिदं ब्रह्मणो रूपं ब्रह्मंचर्यमिति स्मृतम्। परं तत्सर्वधर्मेभ्यस्तेन यान्ति परां गतिम्।। | 12-216-7a 12-216-7b |
लिङ्गसंयोगहीनं यच्छब्दस्पर्शविवर्जितम्। श्रोत्रेण श्रवणं चैव चक्षुषा चैव दर्शनम्।। | 12-216-8a 12-216-8b |
वाक्संभाषाप्रवृत्तं यत्तन्मनः परिवर्जितम्। बुद्ध्या चाध्यवसीयीत ब्रह्मचर्यमकल्मषम्।। | 12-216-9a 12-216-9b |
सम्यग्वृत्तिर्ब्रह्मलोकं प्राप्नुयान्मध्यमः सुरान्। द्विजाग्र्यो जायते विद्वान्कन्यसीं वृत्तिमास्थितः।। | 12-216-10a 12-216-10b |
सुदुष्करं ब्रह्मचर्यमुपायं तत्र मे शृणु। संप्रदीप्तमुदीर्णं च निगृह्णीयाद्द्विजो मनः।। | 12-216-11a 12-216-11b |
योषितां न कथा श्राव्या न निरीक्ष्या निरम्बराः। कथंचिद्दर्शनादासां दुर्बलानां विशेद्रजः।। | 12-216-12a 12-216-12b |
रागोत्पन्नश्चेरत्कृच्छ्रमह्नस्त्रिः प्रविशेदपः। मग्नस्त्वप्स्वेव मनसा त्रिर्जपेदघमर्षणम्।। | 12-216-13a 12-216-13b |
पाप्मानं निर्दहेदेवमन्तर्भूतरजोमयम्। ज्ञानयुक्तेन मनसा संततेन विचक्षणः।। | 12-216-14a 12-216-14b |
कुणपामेध्यसंयुक्तं यद्वदच्छिद्रबन्धनम्। तद्वद्देहगतं विद्यादात्मानं देहबन्धनम्।। | 12-216-15a 12-216-15b |
`अमेध्यपूर्णं यद्भाण्डं श्लेष्मान्तकलिलावृतम्। नेच्छते वीक्षितुं भाण्डं कुतः स्प्रष्टुं प्रवर्तते।। | 12-216-16a 12-216-16b |
देहभाण्डं मलैः पूर्णं बहिः स्वेदजलावृतम्। बीभत्सं नरनारीणां ज्ञानिनां नरकं मतम्।। | 12-216-17a 12-216-17b |
छिद्रकुम्भो यथा स्रावं सृजते तद्गतं दृढम्। अन्तस्यं स्रंसते तद्वज्जलं देहेषु देहिनाम्।। | 12-216-18a 12-216-18b |
श्लेष्माश्रुमूत्रकलिलं पुरीषं शुक्लमेव च। कफजालविनिर्यासः सरसश्चित्त मुञ्चय।।' | 12-216-19a 12-216-19b |
वातपित्तकफान्रक्तं त्वङ्भांसं स्नायुमस्थि च। मज्जां देहं सिराजालैस्तर्पयन्ति रसा नृणाम्।। | 12-216-20a 12-216-20b |
दश विद्याद्धमन्योऽत्र पञ्चेन्द्रियगुणावहाः। याभिः सूक्ष्माः प्रजायन्ते धमन्योऽन्याः सहस्रशः।। | 12-216-21a 12-216-21b |
एवमेताः सिरा नद्यो रसोदा देहसागरम्। तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम्।। | 12-216-22a 12-216-22b |
मध्ये च हृदयस्यैका सिरा तत्र मनोवहा। शुक्रं संकल्पजं नॄणां सर्वगात्रैर्विमुञ्चति।। | 12-216-23a 12-216-23b |
सर्वगात्रप्रतायिन्यस्तस्या ह्यनुगताः सिराः। नेत्रयोः प्रतिपद्यन्ते वहन्त्यस्तैजसं गुणम्।। | 12-216-24a 12-216-24b |
पयस्यन्तर्हितं सर्पिर्यद्वन्निर्मथ्यते खजैः। शुक्रं निर्मथ्यते तद्वद्देहसंकल्पजैः खजैः।। | 12-216-25a 12-216-25b |
स्वप्नेऽप्येवं यथाऽभ्येति मनः संकल्पजं रजः। शुक्रमस्पर्शजं देहात्सृजन्त्यस्य मनोवहाः।। | 12-216-26a 12-216-26b |
महर्षिर्भगवानत्रिर्वेद तच्छ्रुक्रसंभवम्। नृबीजमिन्द्रदैवत्यं तस्मादिन्द्रियमुच्यते।। | 12-216-27a 12-216-27b |
ये वै शुक्रगतिं विद्युर्भूतसंकरकारिकाम्। विरागा दग्धदोषास्ते नाप्नुयुर्देहसंभवम्।। | 12-216-28a 12-216-28b |
गुणानां साम्यमागम्य मनसैव मनोवहम्। देहकर्म नुदन्प्राणानन्तकाले विमुच्यते।। | 12-216-29a 12-216-29b |
भविता मनसो ज्ञानं मन एव प्रजायते। ज्योतिष्मद्विरजो नित्यं मन्त्रसिद्धं महात्मनाम्।। | 12-216-30a 12-216-30b |
तस्मात्तदभिघाताय कर्म कुर्यादकल्मषम्। देहबीजं समुत्पन्नमस्मित्कर्मणि विद्यते।। | 12-216-31a 12-216-31b |
न स्मरेन्न प्रयुञ्जीत ज्ञानी तत्कर्म बुद्धिमान्। रजस्तमश्च हित्वेह न तिर्यग्गतिमाप्नुयात्।। | 12-216-32a 12-216-32b |
तरुणाधिगतं ज्ञानं जरादुर्बलतां गतम्। विपक्वबुद्धिः कालेन आदत्ते मानसं बलम्।। | 12-216-33a 12-216-33b |
`एव पुत्रकलत्रेषु ज्ञातिसंबन्धिबन्धुषु। आदत्ते हृदये कामं व्याध्यादिभिरभिप्लुतः।। | 12-216-34a 12-216-34b |
यतस्ततः परिपतन्नविन्दन्सुखमण्वपि। बहुदुःखसमापन्नः पश्चान्निर्वेदमास्थितः। ज्ञानवृक्षं समाश्रित्य पश्चान्निर्वृतिमश्नुते।।' | 12-216-35a 12-216-35b 12-216-35c |
सुदुर्गमिव पन्थानमतीत्य गुणबन्धनम्। यथा पश्येत्तथा दोषानतीत्यामृतमश्नुते।। | 12-216-36a 12-216-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 216।। |
12-216-10 कन्यसीं कनीयसीम्।। 12-216-11 निगृह्णीयाच्चलं मन इति ध. पाठः।। 12-216-12 रजो रागः।। 12-216-20 सिरानाड्यस्तासां जालैः।। 12-216-21 धमन्यो नाड्यः। याभिः सूक्ष्माः प्रतायन्ते इति झ. पाठः।। 12-216-24 सर्वगात्रप्रवाहिन्यः इति ध. पाठः।। 12-216-25 स्वजैर्मन्थनदण्डैः। देहस्थात् संकल्पात् खेभ्य इन्द्रियेभ्यश्च जातैः संकल्पजैः स्वजैः स्त्रीदर्शनस्पर्शनादिभिः।। 12-216-26 शुक्रं संकल्पजं देहात्सृजत्यस्य मनोवहा इति झ. पाठः।। 12-216-27 त्रिबीजमिन्द्रदैवत्यं इति झ. पाठः।। 12-216-31 तदभिघाताय मनोनाशाय। अकल्मषं निवृत्तिरूपम्।। 12-216-32 यथेष्टां गतिमाप्नुयात् इति झ. पाठः। तत्र यथा येन प्रकारेण इष्टां गतिं मोक्षम्।। 12-216-33 जरया दुर्बलता तां। तृतीया तत्कृतार्थेनेति समासः। मानसंबलं संकल्पमादत्ते संहरति। काले पूर्वभाग्येन नतु दृष्टयोग्यतया।। 12-216-36 गुणा देहेन्द्रियादयस्तदेव बन्धनम्।।
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