महाभारतम्-12-शांतिपर्व-117
दिखावट
← शांतिपर्व-116 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-117 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-118 → |
मुपिवरेण व्याघ्रीकृतस्य स्वीयशुनो गजाद्भये सति गजत्वप्रापणम्।। 1।। पुनः सिंहाद्भये सिंहीकृतस्य तस्यैव शरभाद्भये शरभीकरणम्।। 2।। दुष्टभावेनात्मजिघांसोस्तस्य पुनः श्वभावप्रापणम्।। 3।।
भीष्म उवाच। | 12-117-1x |
व्याघ्रश्वोटजमूलस्थस्तृप्तः सुप्तो हतैर्मृगैः। नागभागात्तमुद्देशं मत्तो मेघ इवोत्थितः।। | 12-117-1a 12-117-1b |
प्र--करटः प्रांशुः पद्मी विततकुम्भकः। सु--णो महाकायो मेघगम्भीरनिः स्वनः।। | 12-117-2a 12-117-2b |
तं दृष्ट्वा कुञ्जरं मत्तमायान्तं बलगर्वितम्। व्या हस्तिभयान्त्रस्तस्तमृषिं शरणं ययौ।। | 12-117-3a 12-117-3b |
ततोऽनयत्कुञ्जरत्वं व्याघ्रं तमृषिसत्तमः। महमेघोपमं दृष्ट्वा स भीतो ह्यभवद्गजः।। | 12-117-4a 12-117-4b |
ततः कमलषण्डानि सल्लकीगहनानि च। व्य--रत्स मुदायुक्तः पझरेणुविभूषितः।। | 12-117-5a 12-117-5b |
कदचिद्दममाणस्य हस्तिनः संमुखं तदा। ऋषेस्तस्योटस्थस्य कालोऽगच्छद्दिवानिशम्।। | 12-117-6a 12-117-6b |
अथाजगाम तं देशं केसरी केसरारुणः। गिन्विन्दरजो भीमः सिंहो नागकुलान्तकः।। | 12-117-7a 12-117-7b |
तं--- सिंहमायान्तं नागः सिंहभयार्दितः। ऋषिं शरणमापेदे वेपमानो भयातुरः।। | 12-117-8a 12-117-8b |
स त-ः सिंहतां नीतो गजेन्द्रो मुनिना तदा। तं च नागणयत्सिंहं तुल्यजातिसमन्वयात्।। | 12-117-9a 12-117-9b |
दृष्ट्वा च सोऽभवत्सिंहो वन्यो हिंसन्नवाग्बलः। स चाश्रपेऽवसत्सिंहस्तस्मिन्नेव सुखी वने।। | 12-117-10a 12-117-10b |
न चान्ये क्षुद्रपशवस्तपोवनसमीपतः। व्यदृश्यन्त तदा त्रस्ता जीविताकाङ्क्षिणस्तथा।। | 12-117-11a 12-117-11b |
कदाचित्कालयोगेन सर्वप्राणिविहिंसकः। बलवान्क्षतजाहारो नानासत्वभयंकरः।। | 12-117-12a 12-117-12b |
अष्टपादर्ध्वनयनः शरभो वनगोचरः। तं सिंहं हन्तुमागच्छन्मुनेस्तस्य निवेशने।। | 12-117-13a 12-117-13b |
`तं दृष्ट्वा शरभं यान्तं सिंहः परभयान्वितः। ऋषिं शरणमापेदे वेपमानः कृताञ्जलिः।।' | 12-117-14a 12-117-14b |
सं मुनिः शरभं चक्रे बलोत्कटमरिंदम। ततः स शरभो वन्यो मुनेः शरभमग्रतः। दृष्ट्वा बलिनमत्युग्रं द्रुतं संप्राद्रवद्वनम्।। | 12-117-15a 12-117-15b 12-117-15c |
स एवं शरभस्थाने न्यस्तो वै मुनिना तदा। मुनेः पार्श्वगतो नित्यं शरभः सुखमाप्तवान्।। | 12-117-16a 12-117-16b |
ततः शरभसंत्रस्ताः सर्वे मृगगणा वनात्। दिशः संप्राद्रवत्राजन्भयाज्जीवितकाङ्क्षिणः।। | 12-117-17a 12-117-17b |
शरभोऽप्यतिसंहृष्टो नित्यं प्राणिवधे रतः। फलमूलाशनं कर्तुं नैच्छत्स पिशिताशनः।। | 12-117-18a 12-117-18b |
ततः क्षुद्रसमाचारो बलेन च समन्वितः। इयेष तं मुनिं हन्तुमकृतज्ञः कृतान्वयः।। | 12-117-19a 12-117-19b |
`चिन्तयामास च तदा शरभः श्वानपूर्वकः।। | 12-117-20a |
अस्य प्रभावात्संप्राप्तो वाङ्भात्रेणैव केवलम्। शरभत्वं सुदुष्प्रापं सर्वभूतभयंकरम्।। | 12-117-21a 12-117-21b |
अन्येऽप्यत्र भयत्रस्ताः सन्ति सत्वा भयार्दिताः। मुनिमाश्रित्य जीवन्तो मृगाः पक्षिगणास्तथा।। | 12-117-22a 12-117-22b |
तेषामपि कदाचिच्च शरभत्वं प्रयच्छति। सर्वसत्वोत्तमं लोके बलं यत्र प्रतिष्ठितम्।। | 12-117-23a 12-117-23b |
पक्षिणामप्ययं दद्यात्कदाचिद्गारुडं बलम्।। | 12-117-24a |
यावदन्यस्य संप्रीतः कारुण्यं तु समाश्रितः। न ददाति बलं तुष्टः सत्वस्यान्यस्य कस्यचित्।। | 12-117-25a 12-117-25b |
तावदेनमहं विप्रं वधिष्यामि च शीघ्रतः। स्थातुं मया शक्यमिह मुनिघातान्न संशयः।।' | 12-117-26a 12-117-26b |
ततस्तेन तपःशक्त्या विदितो ज्ञानचक्षुषा। विज्ञाय च मुनिः प्राज्ञस्ततः शापं प्रयुक्तवान्।। | 12-117-27a 12-117-27b |
`अहमग्निप्रभो नाम मुनिर्भृगुकुलान्वयः। मनसा निर्दहेयं च जगत्संधारयामि च।। | 12-117-28a 12-117-28b |
मम वश्यं जगत्सर्वं देवा यच्च चराचरम्। सन्ति देवाश्च ये भीताः स्वधर्मं न त्यजन्ति ये। स्वधर्माच्चलितान्सर्वान्वाङ्भात्रेणापि निर्दहे।। | 12-117-29a 12-117-29b 12-117-29c |
किमङ्ग त्वं मया नीतः शरभत्वमनामयम्। क्रूरः स सर्वभूतेषु हीनश्चाशुचिरेव च।।' | 12-117-30a 12-117-30b |
श्वा त्वं द्वीपित्वमापन्नो द्वीपी व्याघ्रत्वमागतः। व्याघ्रान्नागो मदपटुर्नागः सिंहत्वमागतः।। | 12-117-31a 12-117-31b |
सिंहस्त्वं बलमापन्नो भूयः शरभतां गतः। मया स्नेहपरीतेन विसृष्टो न कुलान्वयः।। | 12-117-32a 12-117-32b |
यस्मादेवमपापं मां पाप हिंसितुमिच्छसि। तस्मात्स्वयोनिमापन्नः पुनः श्वानो भविष्यसि।। | 12-117-33a 12-117-33b |
ततो मुनिजनद्वेष्टा दुष्टात्मा प्राकृतोऽबुधः। ऋषिणा शरभः शप्तस्तद्रूपं पुनराप्तवान्।। | 12-117-34a 12-117-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 117।। |
12-117-1 मृगैस्तृप्तः।। 12-117-9 समन्वयात्संबन्धात्।। 12-117-19 ततो रुधिरतर्षेण बलिना शरभोऽन्वितः इति झ. पाठः।। 12-117-31 मदपटुः प्रवहन्मदः।। 12-117-32 विसृष्टो विविधेन रूपेण त्वं सृष्टः। न तु त्वं कुलान्वयः। तेन तेन कुलेनान्वयः संबन्धो यस्य स कुलान्वयस्तादृशस्त्वं न भवसि।। 12-117-33 श्वैव त्वं हि भविष्यसीति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-116 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-118 |