महाभारतम्-12-शांतिपर्व-309
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जीवानामज्ञाननिमित्तकानर्थप्राप्त्यादिप्रतिपादकवसिष्ठकरालजनकसंवादानुवादः।। 1।।
वसिष्ठ उवाच। | 12-309-1x |
एवमप्रतिबुद्धत्वादबुद्धमनुवर्तनात्। देहाद्देहसहस्राणि तथा समभिपद्यते।। | 12-309-1a 12-309-1b |
तिर्यग्योनिसहस्रेषु कदाचिद्देवतास्वपि। उपपद्यति संयोगाद्गुणैः सह गुणक्षयात्।। | 12-309-2a 12-309-2b |
मानुषत्वाद्दिवं याति दिवो मानुष्यमेति च। मानुष्यान्निरयस्थानमनन्तं प्रतिपद्यते।। | 12-309-3a 12-309-3b |
कोशकारो यथाऽऽत्मानं कीटः समनुरुन्धति। सूत्रतन्तुगुणैर्नित्यं तथाऽयमगुणो गुणैः।। | 12-309-4a 12-309-4b |
द्वन्द्वमेति च निर्द्वन्द्वस्तासु तास्विह योनिषु। शीर्षरोगेऽक्षिरोगे च दन्तशूले गलग्रहे।। | 12-309-5a 12-309-5b |
जलोदरे तृषारोगे ज्वरगण्डे विषूचके। श्वित्रकुष्ठेऽग्निदग्धे च सिध्मापस्मारयोरपि।। | 12-309-6a 12-309-6b |
यानि चान्यानि द्वन्द्वानि प्राकृतानि शरीरिषु। उत्पद्यन्ते विचित्राणि तान्येषोऽप्यभिमन्यते।। | 12-309-7a 12-309-7b |
अभिमन्यत्यभीमानात्तथैव सुकृतान्यपि।। | 12-309-8a |
शुक्लवासाश्च दुर्वासाः शायी नित्यमधस्तथा। मण्डूकशायी च तथा वीरासनगतस्तथा।। | 12-309-9a 12-309-9b |
चीरधारणमाकाशे शयनं स्थानमेव च। इष्टकाप्रस्तरे चैव कण्टकप्रस्तरे तथा।। | 12-309-10a 12-309-10b |
भस्मप्रस्तरशायी च भूमिशय्याऽनुलेपनः। वीरस्थानाम्बुपङ्के च शयनं फलकेषु च।। | 12-309-11a 12-309-11b |
विविधासु च शय्यासु फलगृद्ध्यान्वितस्तथा। मुञ्जमेखलनग्नत्वं क्षौमकृष्णाजिनानि च।। | 12-309-12a 12-309-12b |
शणवालपरीधानो व्याघ्रचर्मपरिच्छदः। सिंहतचर्मपरीधानः पट्टवासास्तथैव च।। | 12-309-13a 12-309-13b |
फलकपरिधानश्च तथा कण्टकवस्रधृत्। कीटकार्पासवसनश्चीरवासास्तथैव च।। | 12-309-14a 12-309-14b |
वस्राणि चान्यानि बहून्यभिमन्यत्यबुद्धिमान्। भोजनानि विचित्राणि रत्नानि विविधानि च।। | 12-309-15a 12-309-15b |
एकवस्रान्तराशित्वमेककालिकभोजनम्। चतुर्थाष्टमकालश्च षष्ठकालिक एव च।। | 12-309-16a 12-309-16b |
ष़ड्रात्रभोजनश्चैव तथैवाष्टाहभोजनः। सप्तरात्रदशाहारो द्वादशाहिकभोजनः।। | 12-309-17a 12-309-17b |
मासोपवासी मूलाशी फलाहारस्तथैव च। वायुभक्षोऽम्बुपिण्याकदधिगोमयभोजनः।। | 12-309-18a 12-309-18b |
गोमूत्रभोजनश्चैव शाकपुष्पाद एव च। शेवालभोजनश्चैव तथाऽऽचामेन वर्तयन्।। | 12-309-19a 12-309-19b |
वर्तयञ्शीर्णपर्णैश्च प्रकीर्णफलभोजनः। विविधानि च कृच्छ्राणि सेवते सिद्धिकाङ्क्षया।। | 12-309-20a 12-309-20b |
चान्द्रायणानि विधिवल्लिङ्गानि विविधानि च। चातुराश्रम्यपन्थानमाश्रयत्यपथानपि।। | 12-309-21a 12-309-21b |
उपाश्रमानप्यपरान्पाषण्डान्विविधानपि। विविक्ताश्च शिलाच्छायास्तथा प्रस्रवणानि च।। | 12-309-22a 12-309-22b |
पुलिनानि विविक्तानि विविक्तानि वनानि च। देवस्थानानि पुण्यानि विविक्तानि सरांसि च।। | 12-309-23a 12-309-23b |
विविक्ताश्चापि शैलानां गुहा गृहनिभोपमाः। विविक्तानि च जप्यानि व्रतानि विविधानि च।। | 12-309-24a 12-309-24b |
नियमान्विविधांश्चापि विविधानि तपांसि च। यज्ञांश्च विविधाकारान्विधींश्च विविधांस्तथा।। | 12-309-25a 12-309-25b |
वणिक्पथं द्विजक्षत्रं वैश्यं शूद्रांस्तथैव च। दानं च विविधाकारं दीनान्धकृपणादिषु।। | 12-309-26a 12-309-26b |
अभिमन्यत्यसंबोधात्तथैव त्रिविधान्गुणान्। सत्वं रजस्तमश्चैव धर्मार्थौ काम एव च।। | 12-309-27a 12-309-27b |
प्रकृत्याऽऽत्मानमेवात्मा एवं प्रवि भजत्युत। स्वधाकारवषट्कारौ स्वाहाकारनमस्क्रियाः।। | 12-309-28a 12-309-28b |
याजनाध्यापनं दानं तथैवाहुः प्रतिग्रहम्। यजनाध्ययने चैव यच्चान्यदपि किंचन।। | 12-309-29a 12-309-29b |
जन्ममृत्युविवादे च तथा विशसनेऽपि च। शुभाशुभमयं सर्वमेतदाहुः क्रियाफलम्।। | 12-309-30a 12-309-30b |
प्रकृतिः कुरुते देवी भवं प्रलयमेव च। दिवसान्ते गुणानेतानभ्येत्यैकोऽवतिष्ठते।। | 12-309-31a 12-309-31b |
रश्मिजालमिवादित्यस्तत्तत्काले नियच्छति। एवमेषोऽसकृत्सर्वं क्रीडार्थमभिमन्यते।। | 12-309-32a 12-309-32b |
आत्मरूपगुणानेतान्विविधान्हृदयप्रियान्। एवमेव विकुर्वाणः सर्गप्रलयधर्मिणी।। | 12-309-33a 12-309-33b |
क्रियां क्रियापथे रक्तस्त्रिगुणांस्त्रिगुणाधिपः। क्रियां क्रियापथोपेतस्तथा तदभिमन्यते।। | 12-309-34a 12-309-34b |
प्रकृत्या सर्वमेवेदं जगदन्धीकृतं विभो। रजसा तमसा चैव व्याप्तं सर्वमनेकधा।। | 12-309-35a 12-309-35b |
एवं द्वन्द्वान्यथैतानि वर्तन्ते मयि नित्यशः। ममैवैतानि जायन्ते धावन्ते तानि मामिति।। | 12-309-36a 12-309-36b |
निस्तर्तव्यान्यथैतानि सर्वाणीति नराधिप। मन्यतेऽयं ह्यबुद्धित्वात्तथैव सुकृतान्यपि।। | 12-309-37a 12-309-37b |
भोक्तव्यानि मयैतानि देवलोकगतेन वै। इहैव चैनं भोक्ष्यामि शुभाशुभफलोदयम्।। | 12-309-38a 12-309-38b |
पुण्यमेव तु कर्तव्यं तत्कुत्वा सुसुखं मम। यावदन्तं च मे सौख्यं जात्यां जात्यां भविष्यति।। | 12-309-39a 12-309-39b |
भविष्यति च मे दुःखं कृतेनेहाप्यनन्तकम्। महद्दुःखं हि मानुष्यं निरये चापि मज्जनम्।। | 12-309-40a 12-309-40b |
निरयाच्चापि मानुष्यं कालेनैष्याम्यहं पुनः। मनुष्यत्वाच्च देवत्वं देवत्वात्पौरुषं पुनः।। | 12-309-41a 12-309-41b |
मनुष्यत्वाच्च निरयं पर्यायेणोपगच्छति। य एवं वेत्ति नित्यं वै निरात्मात्मगुणैर्वृतः।। | 12-309-42a 12-309-42b |
तेन देवमनुष्येषु निरये चोपपद्यते। ममत्वेनावृतो नित्यं तत्रैव परिवर्तते।। | 12-309-43a 12-309-43b |
सर्गकोटिसहस्राणि मरणान्तासु योनिषु। य एवं कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम्।। | 12-309-44a 12-309-44b |
स एवं फलमाप्नोति त्रिषु लोकेषु मूर्तिमान्। प्रकृतिः कुरुते कर्म शुभाशुभफलात्मकम्। प्रकृतिश्च तदश्नाति त्रिषु लोकेषु कामगा।। | 12-309-45a 12-309-45b 12-309-45c |
तिर्यग्योनिमनुष्यत्वे देवलोके तथैव च। त्रीणि स्थानानि चैतानि जानीयात्प्राकृतानिह।। | 12-309-46a 12-309-46b |
अलिङ्गां प्रकृतिं त्वाहुर्लिङ्गैरनुमिमीमहे। तथैव पौरुषं लिङ्गमनुमानाद्धि गम्यते।। | 12-309-47a 12-309-47b |
स लिङ्गान्तरमासाद्य प्राकृतं लिङ्गमव्रणम्। व्रणद्वाराण्यधिष्ठाय कर्मणाऽऽत्मनि पश्यति।। | 12-309-48a 12-309-48b |
श्रोत्रादीनि तु सर्वाणि पञ्च कर्मेन्द्रियाण्यथ। वागादीनि प्रवर्तन्ते गुणेष्विह गुणैः सह।। | 12-309-49a 12-309-49b |
अहमेतानि वै सर्वं मय्येतानीन्द्रियाणि ह। निरिन्द्रियो हि मन्तेत व्रणवानस्मि निर्व्रणः।। | 12-309-50a 12-309-50b |
अलिङ्गो लिङ्गमात्मानमकालः कालमात्मनः। असत्वं सत्वमात्मानमतत्त्वं तत्त्वमात्मनः।। | 12-309-51a 12-309-51b |
अमृत्युर्मृत्युमात्मानमचरश्चरमात्मनः। अक्षेत्रः क्षेत्रमात्मानमसर्गः सर्गमात्मनः।। | 12-309-52a 12-309-52b |
अतपास्तप आत्मानमगतिर्गतिमात्मनः। अभवो भवमात्मानमभयो भयमात्मनः।। | 12-309-53a 12-309-53b |
`अकर्ता कर्तृ चात्मानमबीजो बीजमात्मनः।' अक्षरः क्षरमात्मानमबुद्धिस्त्वभिमन्यते।। | 12-309-54a 12-309-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नवाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 309।। |
12-309-1 अबुद्धमनुवर्तत इति झ. ट. पाठः। अबुद्धं अबोधं अज्ञानम्। भावे निष्ठा न तेन नञ्समासः।। 12-309-2 गुणक्षयात् गुणसामर्थ्यात्। क्षि क्षयैश्वर्ययोरित्यैश्वर्यार्थस्य क्षिधातो रूपम्।। 12-309-6 यक्ष्मापस्मारयोरपि इति ध. पाठः।। 12-309-7 तान्येषोऽप्यभिपद्यते इति ध. पाठः।। 12-309-9 मण्डूकवत्पाणिपादं संकोच्यन्युब्जः शेते इति मण्डूकशायी।। 12-309-10 आकाशे निरावरणेदेशे।। 12-309-12 फलगृद्ध्या फलाशा।। 12-309-13 शाणीवालपरीधान इति झ. पाठः।। 12-309-14 फलकं भूर्जत्वगादि।। 12-309-19 आचामेन भक्तमण्डेन।। 12-309-24 गृहेषु ये निभाः नितरां भान्ति ते। दिव्यगृहोपमा इत्यर्थः।। 12-309-30 विशसने संग्रामे।। 12-309-31 भवं सृष्टिम्। अभ्येत्य ग्रसित्वा।। 12-309-34 क्रियापये कर्ममार्गे।। 12-309-39 यावद्दानस्य मे सौख्यं इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-309-51 अगतिर्गतिमात्मन इति ध. पाठः।।
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