महाभारतम्-12-शांतिपर्व-199
दिखावट
← शांतिपर्व-198 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-199 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-200 → |
ज्ञानयोगादेः फलं भगवद्वेदनप्रकारं च पृष्टेन भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तत्कथनाय मनुवृहस्पतिसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-199-1x |
किं फलं ज्ञानयोगस्य वेदानां नियमस्य च। भूतात्मा च कथं ज्ञेयस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-199-1a 12-199-1b |
भीष्म उवाच। | 12-199-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। मनोः प्रजापतेर्वादं महर्षेश्च बृहस्पतेः।। | 12-199-2a 12-199-2b |
प्रजापतिं श्रेष्ठतमं प्रजानां देवर्षिसङप्रवरो महर्षिः। बृहस्पतिः प्रश्नमिमं पुराणं प्रपच्छ शिष्योऽथ गुरुं प्रणम्य।। | 12-199-3a 12-199-3b 12-199-3c 12-199-3d |
यत्कारणं मन्त्रविधिः प्रवृत्तो ज्ञाने फलं यत्प्रवदन्ति विप्राः। यन्मन्त्रशब्दैरकृतप्रकाशं तदुच्यतां मे भगवन्यथावत्।। | 12-199-4a 12-199-4b 12-199-4c 12-199-4d |
यत्स्तोत्रशास्त्रागममन्त्रिविद्भि र्यज्ञैरनेकैरथ गोप्रदानैः। फलं महद्भिर्यदुपास्यते च किं तत्कथं वा भविता क्व वा तत्।। | 12-199-5a 12-199-5b 12-199-5c 12-199-5d |
मही महीजाः पवनोऽन्तरिक्षं जलौकसश्चैव जलं तथा द्यौः। दिवौकसश्चापि यतः प्रसूता स्तदुच्यतां मे भगवन्पुराणम्।। | 12-199-6a 12-199-6b 12-199-6c 12-199-6d |
ज्ञानं यतः प्रार्थयते नरो वै ततस्तदर्था भवति प्रवृत्तिः। न चाप्यहं वेद परं पुराणं मिथ्याप्रवृत्तिं च कथं नु कुर्याम्।। | 12-199-7a 12-199-7b 12-199-7c 12-199-7d |
ऋक्सामसङ्घांश्च यजूंषि चाहं छन्दांसि नक्षत्रगतिं निरुक्तम्। अधीत्य च व्याकरणं सकल्पं शिक्षां च भूतप्रकृतिं न वेद्मि।। | 12-199-8a 12-199-8b 12-199-8c 12-199-8d |
स मे भवाञ्शंसतु सर्वमेत त्सामान्यशब्दैश्च विशेषणैश्च। स मे भवाञ्शंसतु तावदेत ज्ज्ञाने फलं कर्मणि वा यदस्ति।। | 12-199-9a 12-199-9b 12-199-9c 12-199-9d |
यथा च देहाच्च्यवते शरीरी पुनः शरीरं च यथाऽभ्युपैति। | 12-199-10a 12-199-10b |
मनुरुवाच। | 12-199-10x |
यद्यत्प्रियं यस्य सुखं तदाहु स्तदेव दुःखं प्रवदन्त्यनिष्टम्।। | 12-199-10c 12-199-10d |
इष्टं च मे स्यादितरच्च न स्या देतत्कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः। इष्टं त्वनिष्टं च न मां भजेते त्येतत्कृते ज्ञानविधिः प्रवृत्तः।। | 12-199-11a 12-199-11b 12-199-11c 12-199-11d |
[कामात्मकाश्छन्दसि कर्मयोगा एभिर्विमुक्तः परमश्नुवीत्। नानाविधे कर्मपथे सुखार्थी नरः प्रवृत्तो निरयं प्रयाति।] | 12-199-12a 12-199-12b 12-199-12c 12-199-12d |
बृहस्पतिरुवाच। | 12-199-12x |
इष्टं त्वनिष्टं च सुखासुखे च साशीस्तपश्छन्दति कर्मभिश्च।। | 12-199-12e 12-199-12f |
मनुरुवाच। | 12-199-13x |
एभिर्विमुक्तः परमाविवेश एतत्कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः। [कामात्मकांश्छन्दति कर्मयोग एभिर्विमुक्तः परमाददीत।।] | 12-199-13a 12-199-13b 12-199-13c 12-199-13d |
आत्मादिभिः कर्मभिरिध्यमानो धर्मे प्रवृत्तो द्युतिमान्सुखार्थी। परं हि तत्कर्मफलादपेतं निराशिषो यत्पदमाप्नुवन्ति।। | 12-199-14a 12-199-14b 12-199-14c 12-199-14d |
प्रजाः सृष्टा मनसा कर्मणा च द्वावेवैतौ सत्पथौ लोकजुष्टौ। दृष्टं कर्माशाश्वतं चान्तवच्च मनस्त्यागे कारणं नान्यदस्ति।। | 12-199-15a 12-199-15b 12-199-15c 12-199-15d |
निराशिषो ब्रह्म परं ह्युपेतम्।।' | 12-199-16f |
स्वेनात्मना चक्षुरिव प्रणेता निशात्यये तमसा संवृतात्मा। ज्ञानं तु विज्ञानगुणेन युक्तं कर्माशुभं पश्यति वर्जनीयम्।। | 12-199-17a 12-199-17b 12-199-17c 12-199-17d |
सर्पान्कृशाग्राणि तथोदपानं त्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति। अज्ञामतस्तत्र पतन्ति मूढा ज्ञाने फलं पश्य यथा विशिष्टम्।। | 12-199-18a 12-199-18b 12-199-18c 12-199-18d |
कृत्स्नस्तु मन्त्रो विधिवत्प्रयुक्तो यज्ञा यथोक्तास्त्विह दक्षिणाश्च। अन्नप्रदानं मनसः समाधिः पञ्चात्मकं कर्मफलं वदन्ति।। | 12-199-19a 12-199-19b 12-199-19c 12-199-19d |
गुणात्मकं कर्म वदन्ति वेदा स्तस्मान्मन्त्रो मन्नपूर्वं हि कर्म। विधिर्विधेयं मनसोपपत्तिः फलस्य भोक्ता तु तथा शरीरी।। | 12-199-20a 12-199-20b 12-199-20c 12-199-20d |
शब्दाश्च रूपाणि रसाश्च पुण्याः। स्पर्शाश्च गन्धाश्च शुभास्तथैव। नरोऽत्र हि स्थानगतः प्रभुः स्या देतत्फलं सिद्ध्यति कर्मणोऽस्य।। | 12-199-21a 12-199-21b 12-199-21c 12-199-21d |
यद्यच्छरीरेण करोति कर्म शरीरयुक्तः समुपाश्नुते तत्। शरीरमेवायतनं सुखस्य दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम्।। | 12-199-22a 12-199-22b 12-199-22c 12-199-22d |
वाचा तु यत्कर्म करोति किंचि द्वाचैव सर्वं समुपाश्नुते तत्। मनस्तु यत्कर्म करोति किंचि न्मनःस्थ एवायमुपाश्नुते तत्।। | 12-199-23a 12-199-23b 12-199-23c 12-199-23d |
यथायथा कर्मगुणां फलार्थी करोत्ययं कर्मफले निविष्टः। तथातथाऽयं गुणसंप्रयुक्तः शुभाशुभं कर्मफलं भुनस्ति।। | 12-199-24a 12-199-24b 12-199-24c 12-199-24d |
मत्स्यो यथा स्रोत इवाभिपाती तथा कृतं पूर्वमुपैति कर्म। शुभे त्वसौ तुष्यति दुष्कृते तु न तुष्यते वै परमः शरीरी।। | 12-199-25a 12-199-25b 12-199-25c 12-199-25d |
यतो जगत्सर्वमिदं प्रसूतं ज्ञात्वाऽऽत्मवन्तो ह्युपयान्ति शान्तिम्। यन्मन्त्रशब्देरकृतप्रकाशं तदुच्यमानं शणु मे परं यत्।। | 12-199-26a 12-199-26b 12-199-26c 12-199-26d |
रसैर्विमुक्तं विविधैश्च गन्धै रशब्दमस्पर्शमरूपवच्च। अग्राह्यमव्यक्तमवर्णमेकं पञ्चप्रकारान्ससृजे प्रजानाम्।। | 12-199-27a 12-199-27b 12-199-27c 12-199-27d |
न स्त्री पुमान्नापि नपुंसकं च न सन्न चासत्सदसच्च तन्न। पश्यन्ति तद्ब्रह्मविदो मनुष्या स्तदक्षरं न क्षरतीति विद्धि।। | 12-199-28a 12-199-28b 12-199-28c 12-199-28d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनद्विशततमोऽध्यायः।। 199।। |
शांतिपर्व-198 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-200 |