महाभारतम्-12-शांतिपर्व-151
← शांतिपर्व-150 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-151 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-152 → |
शौनके जनमेजयस्याश्वमेधयाजनेन तदीयब्रह्महत्यापनोदनपूर्वकं राज्ये प्रतिष्ठापनम्।। 1।।
शौनक उवाच। | 12-151-1x |
तस्मात्तेऽहं प्रवक्ष्यामि धर्ममावृतचेतसे। श्रीमन्महाबलस्तुष्टः स्वयं धर्ममवेक्षसे।। | 12-151-1a 12-151-1b |
पुरस्ताद्दारुणे भूत्वा सुचित्रतरमेव तत्। अनुगृह्णाति भूतानि स्वेन वृत्तेन पार्थिवः।। | 12-151-2a 12-151-2b |
कृत्स्ने नूनं सदसती इति लोको व्यवस्यति। यत्र त्वं तादृशो भूत्वा धर्ममेवानुपश्यसि। | 12-151-3a 12-151-3b |
दर्पं हित्वा पुनश्चापि भोगांश्च तप आस्थितः। इत्येतदभिभूतानामद्भुतं जनमेजय।। | 12-151-4a 12-151-4b |
योऽदुर्बलो भवेद्दाता कृपणो वा तपोधनः। अनाश्चर्यं तदित्याहुर्नातिदूरेण वर्तते।। | 12-151-5a 12-151-5b |
तप एव हि कार्पण्यं समग्रमसमीक्षितम्। तच्चेत्समीक्षयैव स्याद्भवेत्तस्मिंस्तपो गुणः।। | 12-151-6a 12-151-6b |
यज्ञो दानं दया वेदाः सत्यं च पृथिवीपते। पञ्चैतानि पवित्राणि षष्ठं सुचरितं तपः।। | 12-151-7a 12-151-7b |
तदेव राज्ञां परमं पवित्रं जनमेजय। तेन सम्यग्गृहीतेन श्रेयांसं धर्ममाप्स्यसि।। | 12-151-8a 12-151-8b |
पुण्यदेशाभिगमनं पवित्रं परमं स्मृतम्। अत्राप्युदाहरन्तीमां गाथां गीतां ययातिना।। | 12-151-9a 12-151-9b |
यो मर्त्यः प्रतिपद्येत आयुर्जीवेन वा पुनः। यज्ञमेकं ततः कृत्वा तत्संन्यस्य तपश्चरेत्।। | 12-151-10a 12-151-10b |
पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वतीम्। सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम्।। | 12-151-11a 12-151-11b |
यत्रावगाह्य स्थित्वा च नैनं श्वोमरणं तपेत्। महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे।। | 12-151-12a 12-151-12b |
कालोदकं च गन्तासि लब्धायुर्जीविते पुनः। सरस्वतीदृषद्वत्योः सेवमानोऽनुसंज्वरेत्। स्वाध्यायशील एतेषु सर्वेष्वेवमुपस्पृशेत्।। | 12-151-13a 12-151-13b 12-151-13c |
त्यागधर्मं पवित्राणां संन्यासं मनुरब्रवीत्।। | 12-151-14a |
अत्राप्युदाहरन्तीमाः गाथाः सत्यवता कृताः। यथा कुमारः सत्यो वै नैव पुण्यो न पापकृत। न ह्यस्ति सर्वभूतेषु दुःखमस्मिन्कुतः सुखम्।। | 12-151-15a 12-151-15b 12-151-15c |
एवं प्रकृतिभूतानां सर्वसंसर्गयायिनाम्। त्यजतां जीवितं प्रायो निवृत्ते पुण्यपापके। | 12-151-16a 12-151-16b |
यत्त्वेव राज्ञो ज्यायिष्ठं कार्याणां तद्ब्रवीमि ते।। | 12-151-17a |
बलेन संविभागैश्च जय स्वर्गं पुनीष्व च। यस्यैव बलमोजश्च स धर्मस्य प्रभुर्नरः।। | 12-151-18a 12-151-18b |
ब्राह्मणानां सुखार्थं त्वं पर्येहि पृथिवीमिमाम्। यथैवैतान्पुरा क्षेप्सीस्तथैवैतान्प्रसादय।। | 12-151-19a 12-151-19b |
अपि धिक्क्रियमाणोऽपि तर्ज्यमानोऽप्यनेकधा। आत्मनो दर्शनं विद्वान्नाहर्ताऽस्मीति मा क्रुधः। घटमानः स्वकार्येषु कुरु निःश्रेयसं परम्।। | 12-151-20a 12-151-20b 12-151-20c |
हिमाग्निघोरसदृशो राजा भवति कश्चन। लाङ्गलाशिकल्पो वा भवेदन्यः परंतपः।। | 12-151-21a 12-151-21b |
न विशेषेण गन्तव्यमचिकित्सेन वा पुनः। न जातु नाहमस्मीति प्रसक्तव्यमसाधुषु।। | 12-151-22a 12-151-22b |
विकर्मणा तप्यमानः पापात्पापः प्रमुच्यते। नैतत्कुर्या पुनरिति द्वितीयात्परिमुच्यते।। | 12-151-23a 12-151-23b |
चरिष्ये धर्ममेवेति तृतीयात्परिमुच्यते। शुचिस्तीर्थान्यनुचरन्बहुत्वात्परिमुच्यते।। | 12-151-24a 12-151-24b |
कल्याणमनुकर्तव्यं पुरुषेण बुभूषता। ये सुगन्धीनि सेवन्ते तथागन्धा भवन्ति ते।। | 12-151-25a 12-151-25b |
ये दुर्गन्धीनि सेवन्ते तथागन्धा भवन्ति ये। तपश्चर्यापरः सत्यं पापाद्विपरिमुच्यते।। | 12-151-26a 12-151-26b |
संवत्सरमुपास्याग्निमभिशस्तः प्रमुच्यते। त्रीणि वर्षाण्युपास्याग्निं भ्रूणहा विप्रमुच्यते।। | 12-151-27a 12-151-27b |
महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे। अभ्येत्य योजनशतं भ्रूणहा विप्रमुच्यते।। | 12-151-28a 12-151-28b |
यावतः प्राणिनो हन्यात्तज्जातीयांस्तु तावतः। प्रमीयमाणानुन्मोच्य प्राणिहा विप्रमुच्यते।। | 12-151-29a 12-151-29b |
अपि चाप्सु निमज्जेत जपंस्त्रिरघमर्षणम्। यथाऽश्वमेधावभृथस्तथा तन्मनुरब्रवीत्।। | 12-151-30a 12-151-30b |
क्षिप्रं प्रणुदते पापं सत्कारं लभते तथा। अपि चैनं प्रसीदन्ति भूतानि जडमूकवत्।। | 12-151-31a 12-151-31b |
बृहस्पतिं देवगुरुं सुरासुराः समेत्य सर्वे नृपते त्वयुज्जत। धर्मे फलं हेतुकृते महर्षे तथेतरस्मिन्नरके पापलोक्ये।। | 12-151-32a 12-151-32b 12-151-32c 12-151-32d |
उभे तु यस्य सुकृते भवेतां किं तत्तयोस्तत्र जयोत्तरं स्यात्। आचक्ष्व तत्कर्मफलं महर्षे कथं पापं नुदते धर्मशीलः।। | 12-151-33a 12-151-33b 12-151-33c 12-151-33d |
बृहस्पतिरुवाच। | 12-151-34x |
कृत्वा पापं पूर्वमबुद्धिपूर्वं पुण्यानि चेत्कुरुते बुद्धिपूर्वम्। स तत्पापं नुदते कर्मशीलो वासो यथा मलिनं क्षारयुक्त्या।। | 12-151-34a 12-151-34b 12-151-34c 12-151-34d |
पापं कृत्वा हि मन्येत नाहमस्तीति पुरुषः। चिकीर्षेदेव कल्याणं श्रद्दधानोऽनसूयकः।। | 12-151-35a 12-151-35b |
छिद्राणि वसनस्येव साधुना संवृणोति सः। यः पापं पुरुषः कृत्वा कल्याणमभिपद्यते।। | 12-151-36a 12-151-36b |
आदित्यः पुनरुद्यन्वा तमः सर्वं व्यपोहति। कल्याणमाचरन्नेवं सर्वपापं व्यपोहति।। | 12-151-37a 12-151-37b |
भीष्म उवाच। | 12-151-38x |
एवमुक्त्वा तु राजानमिन्द्रोतो जनमेजयम्। याजयामास विधिवद्वाजिमेधेन शौनकः।। | 12-151-38a 12-151-38b |
ततः स राजा व्यपनीतकल्मषः श्रिया युतः प्रज्वलितोऽनुरूपया। विवेश राज्यं स्वममित्रकर्शनो यथा दिवं पूर्णवपुर्निशाकरः।। | 12-151-39a 12-151-39b 12-151-39c 12-151-39d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 151।। |
12-151-4 अभिभूतानामधर्मेणेति शेषः।। 12-151-12 अत्रावगाह्य पीत्वा चेति झ. थ. पाठः।। 12-151-14 पवित्राणां पावनानां मध्ये त्यागधर्मं दानात्मकं धर्मं पवित्रतरं संन्यासं तु परं धर्मं ततोऽप्यधिकं मनुरब्रवीत्।। 12-151-15 कुमारो बालः सत्यो रागद्वेषशून्यत्वात्। तथा तिष्ठेदित्यर्थः।। 12-151-18 बलेन धैर्येण। संविभागैर्दानैः। ओज इन्द्रियपाटवम्।। 12-151-21 हिमवच्छीतलः। अग्निवत्क्रूरः। घोरो यमस्तद्वद्गुणदोषविचारकः। लाङ्गवद्दुष्टमूलोन्मूलनपरः। अशनिवदाकस्मिकपातो दुष्टेषु हिमाग्निघोषसदृश इति द. पाठः।। 12-151-23 सकृत्कृतात्पापात्पश्चात्तापमात्रेण मुच्यते। द्विरावृत्तात्पुनर्न करिष्यामीति नियमग्रहणमात्रेण। त्रिरावृत्ताद्यत्किंचिद्धर्मस्वीकारमात्रेण। बहुकृत्वेति तदभ्यस्तात्तु तीर्थादिना मुच्यत इति श्लोकद्वयार्थः। पादात्पापस्य मुच्यत इति ट. पाठः।। 12-151-30 अघमर्षणमृतं च सत्यं चेति ऋक्त्रयम्।। 12-151-32 फलं दुःखम् ।। 12-151-33 यस्य योगिन उभे अपि सुखदुःखे।। 12-151-35 कर्तृत्वाभिमानशून्यः पापं कुर्वन्नपि न करोत्येवेत्यर्धस्यार्थः।। 12-151-36 संवृणोति विधत्ते।।
शांतिपर्व-150 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-152 |