महाभारतम्-12-शांतिपर्व-233
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति आपदि शोकत्यागपूर्वकं भगवदनुचिन्तनादेः श्रेयः साधनताप्रतिपादकशक्रनमुचिसंवादानुवादः।। 1।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 12-233-1x |
व्यसनेषु निमग्नस्य किं श्रेयस्तद्ब्रवीहि मे। भूय एव महाबाहो स्थित्यर्थं तं ब्रवीहि मे।।' | 12-233-1a 12-233-1b |
भीष्म उवाच। | 12-233-2x |
अत्रैवोदाहन्तीममितिहासं पुरातनम्। शतक्रतोश्च संवादं नमुचेश्च युधिष्ठिर।। | 12-233-2a 12-233-2b |
श्रिया विहीनमासीनमक्षोभ्यमिव सागरम्। भवाभवज्ञं भूतानामित्युवाच पुरंदरः।। | 12-233-3a 12-233-3b |
बद्धः पाशैश्च्युतः स्थानाद्द्विपतां वशमागतः। श्रिया विहीनो नमुचे शोचस्याहो न शोचसि।। | 12-233-4a 12-233-4b |
नमुचिरुवाच। | 12-233-5x |
अनवाप्यं च शोकेन शरीरं चोपशुष्यति। अमित्राश्च प्रहृष्यन्ति शोके नास्ति सहायता। तस्माच्छक्र न शोचामि सर्वं ह्येवेदमन्तवत्।। | 12-233-5a 12-233-5b 12-233-5c |
संतापाद्धश्यते रूपं संतापाद्धश्यते श्रियः। संतापाद्धश्यते चायुर्धर्मश्चैव सुरेश्वर।। | 12-233-6a 12-233-6b |
विनीय खलु तद्दुःखमागतं वै मनस्सुखम्। ध्यातव्यं मनसा हृद्यं कल्याणं संविजानता।। | 12-233-7a 12-233-7b |
यथायथा हि पुरुषः कल्याणे कुरुते मनः। तथैवास्य प्रसिध्यन्ति सर्वार्था नात्र संशयः।। | 12-233-8a 12-233-8b |
एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता गर्भे शयानं पुरुषं शास्ति शास्ता। तेनानुयुक्तः प्रवणादिवोदकं यथा नियुक्तोऽस्मि तथा भवामि।। | 12-233-9a 12-233-9b 12-233-9c 12-233-9d |
भावाभावावजिनानन्गरीयो जानामि श्रेयो न तु तत्करोमि। आशासु हर्म्यासु हृदासु कुर्वन् यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि।। | 12-233-10a 12-233-10b 12-233-10c 12-233-10d |
यथायथाऽस्म प्राप्तव्यं प्राप्नोत्येव तथातथा। भवितव्यं यथा यच्च भवत्येव तथातथा।। | 12-233-11a 12-233-11b |
यत्रयत्रैव संयुक्तो धात्रा गर्भे पुनः पुनः। तत्रतत्रैव वसति न यत्र स्वयमिच्छति।। | 12-233-12a 12-233-12b |
भावो योऽयमनुप्राप्तो भवितव्यमिदं मम। इति यस्य सदा भावो न स शोचेत्कदाचन।। | 12-233-13a 12-233-13b |
पर्यायैर्हन्यमानानामभिषङ्गो न विद्यते। दुःखमेतत्तु यद्द्वेष्टा कर्ताऽहमिति मन्यते।। | 12-233-14a 12-233-14b |
ऋषींश्च देवांश्च महासुरांश्च त्रैविद्यवृद्धांश्च वने मुनींश्च। का नापदो नोपनमन्ति लोके परावरज्ञास्तु न संभ्रमन्ति।। | 12-233-15a 12-233-15b 12-233-15c 12-233-15d |
न पण्डितः क्रुद्ध्यति नाभिषज्यते न चापि संसीदति न प्रहृष्यति। न चार्थकृच्छ्रव्यसनेषु शोचते स्थितः प्रकृत्या हिमवानिवाचलः।। | 12-233-16a 12-233-16b 12-233-16c 12-233-16d |
यमर्थसिद्धिः परमा न हर्षये त्तथैव काले व्यसनं न मोहयेत्। सुखं च दुःखं च तथैव मध्यमं निषेवते यः स धुरधरो नरः।। | 12-233-17a 12-233-17b 12-233-17c 12-233-17d |
यांयामवस्थां पुरुषोऽधिगच्छे त्तस्यां रमेतापरितप्यमानः। एवं प्रवृद्धं प्रणुदन्मनोजं संतापनीलं सकलं शरीरात्।। | 12-233-18a 12-233-18b 12-233-18c 12-233-18d |
न तत्सदः सत्परिषत्सभा च सा प्राप्य यां न कुरुते सदा भयम्। धर्मतत्त्वमवगाह्य बुद्धिमा न्योऽभ्युपैति स धुरंधरः पुमान्।। | 12-233-19a 12-233-19b 12-233-19c 12-233-19d |
प्राज्ञस्य कर्माणि दुरन्वयानि न वै प्राज्ञो मुह्यति मोहकाले। स्थानाच्च्युतश्चेन्न मुमोह गौतम स्तावत्कृच्छ्रामापदं प्राप्य वृद्धः।। | 12-233-20a 12-233-20b 12-233-20c 12-233-20d |
न मन्त्रबलवीर्येण प्रज्ञया पौरुषेण च। [न शीलेन न वृत्तेन तथा नैवार्थसंपदा।] अलभ्यं लभते मर्त्यस्तत्र का परिदेवना।। | 12-233-21a 12-233-21b 12-233-21c |
यदेवमभिजातस्य धातारो विदधुः पुरा। तदेवानुभविष्यामि किं मे मृत्युः करिष्यति।। | 12-233-22a 12-233-22b |
लब्धव्यान्येव लभते गन्तव्यान्येव गच्छति। प्राप्तव्यान्येव चाप्नोति दुःखानि च सुखानि च।। | 12-233-23a 12-233-23b |
एतद्विदित्वा कार्त्स्न्येन यो न मुह्यति मानवः। कुशली सर्वदुःखेषु स वै सर्वधनी नरः।। | 12-233-24a 12-233-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 233।। |
12-233-3 भवाभवज्ञमुत्पत्तिप्रलयज्ञम्।। 12-233-5 सहायता शोकस्य दुःखापनोदे हेतुत्वं नास्तीत्यर्थः।। 12-233-6 श्रियः सकाशात्।। 12-233-7 विनीय निरस्य। हृद्यं हृत्स्थम्। कल्याणं मोक्षम्।। 12-233-9 प्रवणान्निम्रदेशात्।। 12-233-18 प्रणुदन् दूरीकुर्वन्। सन्तापमायाराकरं शरीरात् इति झ. पाठः।। 12-233-19 श्रौतस्मार्तलौकिकन्यायान्यायविवेचका जनसमाजाः सदः पर्षत्सभाख्याः। संसत्सदः परिषदः सभासदः सम्प्राप्य यो न कुरुते सदा भयम्। इति ट. थ. ध. पाठः।। 12-233-20 न मुमोह चोत्तमः इति ध. पाठः।। 12-233-24 कुशलः सुखदुःखेषु इति ट. थ. पाठः।।
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