महाभारतम्-12-शांतिपर्व-087
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राष्ट्रगुप्तिप्रकारादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-87-1x |
राष्ट्रगुप्तिं च मे राजन्राष्ट्रस्यैव तु संग्रहम्। सम्यग्जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ।। | 12-87-1a 12-87-1b |
भीष्म उवाच। | 12-87-2x |
राष्ट्रगुप्तिं च ते सम्यग्राष्ट्रस्यैव तु संग्रहम्। हन्त सर्वं प्रवक्ष्यामि तत्त्वमेकमनाः शृणु।। | 12-87-2a 12-87-2b |
ग्रामस्याधिपतिः कार्यो दशग्रामपतिस्तथा। विंशतित्रिंशतीशं च सहस्रस्य च कारयेत्।। | 12-87-3a 12-87-3b |
ग्रामेयान्ग्रामदोषांश्च ग्रामिकः प्रतिभावेयेत्। तानाचक्षीत दशिने दशिको विंशिने पुनः।। | 12-87-4a 12-87-4b |
विंशाधिपस्तु तत्सर्वं वृत्तं जानपदे जने। ग्रामाणां शतपालाय सर्वमेव निवेदयेत्।। | 12-87-5a 12-87-5b |
यानि ग्राम्याणि भोज्यानि ग्रामिकस्तान्युपाश्निया। दशपस्तेन भर्तव्यस्तेनापि द्विगुणाधिपः।। | 12-87-6a 12-87-6b |
ग्रामं ग्रामशताध्यक्षो भोक्तुमर्हति सत्कुरः। महान्तं भरतश्रेष्ठ सुस्फीतं जनसंकुलम्। तत्र ह्यनेकपायत्तं राज्ञो भवति भारत।। | 12-87-7a 12-87-7b 12-87-7c |
शाखानगरमर्हस्तु सहस्रपतिरुत्तमः। धान्यहैरण्यभोगेन भोक्तुं राष्ट्रीयसंगतः।। | 12-87-8a 12-87-8b |
तेषां संग्रामकृत्यं स्याद्वामकृत्यं च तेषु यत्। धर्मज्ञः सचिवः कश्चित्तत्तत्पश्येदतन्द्रितः।। | 12-87-9a 12-87-9b |
नगरेनगरे वा स्यादेकः सर्वार्थचिन्तकः। उच्चैः स्थाने घोररूपो नक्षत्राणामिव ग्रहः।। | 12-87-10a 12-87-10b |
भवेत्स तान्परिक्रामेत्सर्वानेव सभासदः। तेषां वृत्तिं परिणयेत्कश्चिद्राष्ट्रेषु तच्चरः।। | 12-87-11a 12-87-11b |
जिघांसवः पापकामाः परस्वादायिनः शठाः। रक्षाभ्यधिकृता नाम तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः।। | 12-87-12a 12-87-12b |
विक्रयं क्रयमध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम्। योगक्षेमं च संप्रेक्ष्य वणिजां कारयेत्करान्।। | 12-87-13a 12-87-13b |
उत्पत्तिं दानवृत्तिं च शिल्पं संप्रेक्ष्य चासकृत्। शिल्पं प्रति करानेवं शिल्पिनः प्रति कारयेत्।। | 12-87-14a 12-87-14b |
उच्चावचकरन्यायाः पूर्वराज्ञां युधिष्ठिर। यथायथा न सीदेरंस्तथा कुर्यान्महीपतिः।। | 12-87-15a 12-87-15b |
फलं कर्म च संप्रेक्ष्य ततः सर्वं प्रकल्पयेत्। फलं कर्म च निर्हेतु न कश्चित्संप्रवर्तते।। | 12-87-16a 12-87-16b |
यथा राजा च कर्ता च स्यातां कर्मणि भागिनौ। संवेक्ष्य तु तथा राज्ञा प्रणेयाः सततं कराः।। | 12-87-17a 12-87-17b |
नोच्छिद्याहात्मनो मूलं परेषां चापि तृष्णया। ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा संवृतदर्शनः।। | 12-87-18a 12-87-18b |
प्रद्विषन्ति परिख्यातं राजानमतिखादिनम्। प्रद्विष्टस्य कुतः श्रेयो संवृतो लभते श्रियम्।। | 12-87-19a 12-87-19b |
वत्सौपम्येन दोग्धव्यं राष्ट्रमक्षीणबुद्धिना। भृतो वत्सो जातबलः षीडां सहति भारत।। | 12-87-20a 12-87-20b |
न कर्म कुरुते वत्सो भृशं दुग्धो युधिष्ठिर। राष्ट्रमप्यातिदुग्धं हि न कर्म कुरुते महत्।। | 12-87-21a 12-87-21b |
यो राष्ट्रमनुगृह्णाति परिरक्षन्स्वयं नृपः। संजातमुपजीवन्स लभते सुमहत्फलम्।। | 12-87-22a 12-87-22b |
आपदर्थं च निचयात्राजानो हि चिचिन्वते। राष्ट्रं च कोशभूतं स्यात्कोशो वेश्मगतस्तथा।। | 12-87-23a 12-87-23b |
पौरजानपदान्सर्वान्संश्रितोषाश्रितांस्तथा। यथाशक्त्यनुकम्पेत सर्वान्स्वल्पधनानपि।। | 12-87-24a 12-87-24b |
बाह्यं जनं भेदयित्वा भोक्तव्यो मध्यमः सुखम्। एवं नास्य प्रकुप्यन्ति जनाः सुखितदुः खिताः।। | 12-87-25a 12-87-25b |
प्रामेव तु धनादानमनुभाष्य ततः पुनः। सन्निपत्य स्वविषये भयं राष्ट्रे प्रदर्शयेत्।। | 12-87-26a 12-87-26b |
इयमापत्समुत्पन्ना परचक्रभयं महत्। अपि चान्ताय कल्पन्ते वेणोरिव फलागमाः।। | 12-87-27a 12-87-27b |
अरयो मे समुत्थाय बहुभिर्दस्युभिः सह। इदमात्मवधायैव राष्ट्रमिच्छन्ति बाधितुम्। | 12-87-28a 12-87-28b |
अस्यामापदि घोरायां संप्राप्ते दारुणे भये। परित्राणाय भवतः प्रार्थयिष्ये धनानि वः।। | 12-87-29a 12-87-29b |
प्रतिदास्ये च भवतां सर्वं चाहं भयक्षये। नारयः प्रतिदास्यन्ति यद्धरेयुर्बलादितः।। | 12-87-30a 12-87-30b |
कलत्रमादितः कृत्वा सर्वं वो विनशेदिति। शरीरपुत्रदारार्थमर्थसंचय इष्यते।। | 12-87-31a 12-87-31b |
नन्दामि वः प्रभावेण पुत्राणामिव चोदये। यखाशक्त्युपगृह्णामि राष्ट्रस्यापीडया च वः।। | 12-87-32a 12-87-32b |
आपत्स्वेव निवोढव्यं भवद्भिः संगतैरिह। न वः प्रियतरं कार्यं धनं कस्यांचिदापदि।। | 12-87-33a 12-87-33b |
इति वाचा मधुरया श्लक्ष्णया सोपचारया। स्वरश्मीनभ्यवसृजेद्योगमाधाय कालवित्।। | 12-87-34a 12-87-34b |
प्रचारं भृत्यभरणं व्ययं संग्रामतो भयम्। योगक्षेणं च संप्रेक्ष्य गोमिनः कारयेत्करम्।। | 12-87-35a 12-87-35b |
उपेक्षिता हि नश्येयुर्गोमिनोऽरण्यवासिनः। तस्मात्तेषु विशेषेण मृदुपूर्वं समाचरेत्।। | 12-87-36a 12-87-36b |
सान्त्वनं रक्षणं दानमवस्था चाप्यभीक्ष्णशः। गोमिनां पार्थ कर्तव्यः संविभागः प्रियाणि च।। | 12-87-37a 12-87-37b |
अजस्रमुपयोक्तव्यं फलं गोमिषु भारत। प्रभावयन्ति राष्ट्रं च व्यवहारं कृषिं तथा।। | 12-87-38a 12-87-38b |
तस्माद्गोमिषु यत्नेन प्रीतिं कुर्याद्विचक्षणः। दयावानप्रमत्तश्च करान्संप्रणयन्मृदून्।। | 12-87-39a 12-87-39b |
सर्वत्र क्षेमचरणं सुलभं नाम गोमिषु। न ह्यतः सदृशं किंचिद्धनमस्ति युधिष्ठिर।। | 12-87-40a 12-87-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः।। 87।। |
12-87-3 दशग्राम्यास्तथा परः। द्विगुणायाः शतस्यैवमिति झ. पाठः।। 12-87-13 कारयेत् दापयेत्।। 12-87-16 फलं धान्यधनवृद्ध्यादि। वृद्ध्यनुरूपः करः कल्प्य इत्यर्थः।। 12-87-18 आत्मनो मूलं राष्ट्रम्। परेषां मूलं कृष्यादि। ईहा लोभः।। 12-87-19 अतिखादिनं बहुभक्षम्।। 12-87-24 संश्रिताः साक्षादाश्रिताः। उपाश्रिताः व्यवहिताः।। 12-87-25 आटवीको दस्युसङ्घो बाह्यजनस्तं ययमुपतिष्ठध्वमिति भेदयित्वा मध्यमो ग्रामीणजनो भोक्तव्यस्ततो बहुलं धनमादद्यादित्यर्थः।। 12-87-26 तत्र प्रकारमाह प्रागिति। चोरनिग्रहार्थं कटकबन्धः कर्तव्यस्तदर्थं धनमपेक्षितमिति पूर्वमेव आभाष्य सूचनां कृत्वा ततः सन्निपत्य तेषु तेषु ग्रामेषु गत्वा भयं दर्शयेत्।। 12-87-33 आपत्स्वेव च वोढव्यं भवद्भिः पुङ्गवैरिवेति झ. पाठः।। 12-87-34 स्वरश्मीन्स्वस्य रश्मिभूतान् अधिकारिणः प्रजासु धनमुद्गुहीतुं अभ्यवसृजेत्प्रेरयेत्। योगं धनग्रहणोपायम्।। 12-87-35 गोमिनः वैश्यान्। संप्रेक्ष्य संदर्शयित्वा।।
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