महाभारतम्-12-शांतिपर्व-164
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भीष्मेण नकुलप्रश्नात्स्वङ्गोत्पत्तिकथनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-164-1x |
कथान्तरमथासाद्य स्वङ्गयुद्धविशारदः। नकुलः शरतल्पस्थमिदमाह पितामहाम्।। | 12-164-1a 12-164-1b |
नकुल उवाच। | 12-164-2x |
धनुः प्रहरणं श्रेष्ठमितिवादः पितामह। मतस्तु मम धर्मज्ञः खङ्ग एव सुसंशितः।। | 12-164-2a 12-164-2b |
छिन्ने च कार्मुके राजन्प्रक्षीणेषु शरेषु च। खङ्गेन शक्यते योद्धुमात्मानं परिरक्षितुम्।। | 12-164-3a 12-164-3b |
शरासनधरांश्चैव गदाशक्तिधरांस्तदा। एकः खङ्गधरो वीरः समर्थः प्रतिबाधितुम्।। | 12-164-4a 12-164-4b |
अत्र मे संशयश्चैव कौतूहलमतीव च। किंस्वित्प्रहरणं श्रेष्ठं सर्वयुद्धेषु पार्थिव।। | 12-164-5a 12-164-5b |
कथं चोत्पादितः खङ्गः कस्मै चार्थाय केन वा। पूर्वाचार्यं च खङ्गस्य प्रव्रवीहि पितामह।। | 12-164-6a 12-164-6b |
वैशंपायन उवाच। | 12-164-7x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा माद्रीपुत्रस्य धीमतः। स्वरकौशलसंयुक्तं सूक्ष्मचित्रार्थवत्सुखम्।। | 12-164-7a 12-164-7b |
ततस्तस्योत्तरं वाक्यं स्वरवर्णोपपादितम्। शिक्षया चोपपन्नाय द्रोणशिष्याय पृच्छते।। | 12-164-8a 12-164-8b |
उवाच सर्वधर्मज्ञो धनुर्वेदस्य पारगः। शरतल्पगतो भीष्मो नकुलाय महात्मने।। | 12-164-9a 12-164-9b |
भीष्म उवाच। | 12-164-10x |
तत्त्वं शृणुष्व माद्रेय यथैतत्परिपृच्छसि। प्रबोधितोऽस्मि भवता सानुमानिव पर्वतः।। | 12-164-10a 12-164-10b |
सलिलैकार्णवं तात पुरा सर्वमभूदिदम्। अप्रज्ञातमनाकाशमनिर्देश्यमहीतलम्।। | 12-164-11a 12-164-11b |
तमस्संवृतमस्पर्शमतिगम्भीरदर्शनम्। निःशब्दं चाप्रमेयं च तत्र जज्ञे पितामहः।। | 12-164-12a 12-164-12b |
सोऽसृजद्वायुमग्निं च भास्करं चापि वीर्यवान्। आकाशममृजच्चोर्ध्वमध्नो भूमिं च नैर्ऋतिम्।। | 12-164-13a 12-164-13b |
ततः सचन्द्रतारं च नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा। संवत्सरानहोरात्रानृतूनथ लवान्क्षणान्। | 12-164-14a 12-164-14b |
ततः शरीरं लोकस्थं स्थापयित्वा पितामहः। जनयामास भगवान्पुत्रानुत्तमतेजसः। | 12-164-15a 12-164-15b |
मरीचिं भृगुमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्। वसिष्ठाङ्गिरसौ चोभौ भरद्वाजं तथैव च।। | 12-164-16a 12-164-16b |
प्रजापतिस्तथा दक्षः कन्याः षष्टिमजीजनात्। ताश्च ब्रह्मर्पीन्सर्वान्प्रजार्थं प्रतिपेदिरे।। | 12-164-17a 12-164-17b |
ताभ्यो विश्वानि भूतानि देवाः पितृगणास्तथा। गन्धर्वाप्सरसश्चैव रक्षासि विविधानि च।। | 12-164-18a 12-164-18b |
पतत्रिमृगमीनाश्च गावश्चैव महोरगाः। नानाकृतिबलाश्चान्ये जलक्षितिविचारिणः।। | 12-164-19a 12-164-19b |
उद्भिज्जाः स्वेदजाश्चैव साण्डजाश्च जरायुजाः। अज्ञे तात जगत्सर्वं तथा स्थावरजङ्गमम्।। | 12-164-20a 12-164-20b |
अतः सर्गमिमं कृत्वा सर्वलोकपितामहः। अश्वतं वेदपठितं धर्मं च जुजुपे पुनः।। | 12-164-21a 12-164-21b |
स्मन्धर्मे स्थिता देवाः सहाचार्यपुरोहिताः। ---त्या वसवो रुद्राः ससाध्या मरुदश्विनः। | 12-164-22a 12-164-22b |
भृ---त्र्यङ्गिरसः सिद्धाः कश्यपश्च तपोधनाः। वष्ठगौतमागस्त्यास्तथा नारदपर्वतौ।। | 12-164-23a 12-164-23b |
क्रयो बालखिल्याश्च प्रभासाः सिकतास्तथा। घृगाच्या सोमवायव्या वैश्वानरमरीचिपाः।। | 12-164-24a 12-164-24b |
करूपाश्चैव हंसाश्च ऋषयो वाऽग्नियोनयः। ---पप्रस्थाः पृश्नयश्च स्थिता ब्रह्मानुशासने।। | 12-164-25a 12-164-25b |
दानवेन्द्रास्त्वतिक्रम्य तत्पितामहशासनम्। धर्मस्यापनयं चक्रुः क्रोधलोभसमन्विताः।। | 12-164-26a 12-164-26b |
हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षो विरोचनः। शम्बरो विप्रचित्तिश्च प्रह्लादो नमुचिर्बलिः।। | 12-164-27a 12-164-27b |
एते चान्ये च बहवः सगणा दैत्यदानवाः। धर्मसेतुमतिक्रम्य रेमिरेऽधर्मनिश्चयाः।। | 12-164-28a 12-164-28b |
सर्वे तुल्याभिजातीया यथा देवास्तथा वयम्। इत्येवं हेतुमास्थाय स्पर्धमानाः सुरर्षिभिः।। | 12-164-29a 12-164-29b |
न प्रियं नाप्यनुक्रोशं चक्रुर्भूतेषु भारत। त्रीनुपायानतिक्रम्य दण्डेन रुरुधुः प्रजाः।। | 12-164-30a 12-164-30b |
न जग्मुः संविदं तैश्च दर्पादसुरसत्तमाः। अथ वै भगवान्ब्रह्मा सर्वलोकनमस्कृतः।। | 12-164-31a 12-164-31b |
तदा हिमवतः पृष्ठे सुरम्ये पद्मतारके। शतयोजनविस्तारे मणिमुक्ताचयाचिते।। | 12-164-32a 12-164-32b |
तस्मिन्गिरिवरे पुत्र पुष्पितद्रुमकानने। तस्थौ स विबुधश्रेष्ठो ब्रह्मा लोकार्थसिद्धये।। | 12-164-33a 12-164-33b |
ततो वर्षसहस्रान्ते वितानमकरोत्प्रभुः। विधिना कल्पदृष्टेन यथोक्तेनोपपादितम्।। | 12-164-34a 12-164-34b |
ऋषिभिर्यज्ञपटुभिर्यथावत्कर्मकर्तृभिः। मरुद्भिः परिसंकीर्णं दीप्यमानैश्च पावकैः।। | 12-164-35a 12-164-35b |
काञ्चनैर्यज्ञभाण्डैश्च भ्राजिष्णुभिरलंकृतम्। वृतं देवगणैश्चैव प्रबभौ यज्ञमण्डलम्।। | 12-164-36a 12-164-36b |
तथा ब्रह्मर्षिभिश्चैव सदस्यैरुपशोभितम्। अत्र घोरतमं वृत्तमृषीणां मे परिश्रुतम्।। | 12-164-37a 12-164-37b |
चन्द्रमा विमलं व्योम यथाऽभ्युदिततारकम्। विदार्याग्निं तथा भूतमुत्थितं श्रूयते तदा।। | 12-164-38a 12-164-38b |
लोनीत्पलसवर्णाभं तीक्ष्णदंष्ट्रं कृशोदरम्। प्रांशुमुद्धर्षणं चापि तथैव ह्यमितौजसम्।। | 12-164-39a 12-164-39b |
अस्मिन्नुत्पद्यमाने च प्रचचास वसुंधरा। महोर्मिकलिलावर्तश्रुक्षुभे स महोदधिः।। | 12-164-40a 12-164-40b |
पेतुश्चोत्का महोत्पाताः शाखाश्च मुमुचुर्द्रुमाः। अप्रसन्ना दिशः सर्वाः पवनश्चाशिवो ववौ। मुहुर्मुहुश्च भूतानि प्राव्यथन्त भयात्तथा।। | 12-164-41a 12-164-41b 12-164-41c |
ततः स तुमुलं दृष्ट्वा तद्भूतं समुपस्थितम्। महर्षिसुरगन्धर्वानुवाचेदं पितामहः।। | 12-164-42a 12-164-42b |
मयैवं चिन्तितं भूतमसिर्नामैष वीर्यवान्। रक्षणार्थाय लोकस्य वधाय च सुरद्विषाम्।। | 12-164-43a 12-164-43b |
ततस्तद्रुपमुत्सृज्य बभौ निस्त्रिंश एव सः। विमलस्तीक्ष्णधारश्च कालान्तक इवोद्यतः।। | 12-164-44a 12-164-44b |
ततस्तं नीलकण्ठाय रुद्रायर्षभकेतवे। ब्रह्मा ददावसिं तीक्ष्णमधर्मप्रतिवारणम्।। | 12-164-45a 12-164-45b |
ततः स भगवान्रुद्रो ब्रह्मर्षिगणपूजितः। प्रगृह्मासिममेयात्मा रूपमन्यच्चकार ह।। | 12-164-46a 12-164-46b |
चतुर्बाहुः स्पृशन्मूर्ध्ना भूमिष्ठोऽपि दिशो दश। ऊर्ध्वदृष्टिर्महाबाहुर्मुखाज्ज्वालाः समुत्सृजन्।। | 12-164-47a 12-164-47b |
विकुर्वन्बहुधा वर्णान्नीलपाण्डुरलोहितान्। बिभ्रत्कृष्णाजिनं वासो हेमप्रवरतारकम्।। | 12-164-48a 12-164-48b |
नेत्रं चैकं ललाटस्थं भास्करप्रतिमं महत्। शुशुभाते सुविमले द्वे नेत्रे कृष्णपिङ्गले।। | 12-164-49a 12-164-49b |
ततो देवो महादेवः शूलपाणिर्भगाक्षिहा। संप्रगृह्य तु निस्त्रिंशं कालाग्निसमवर्चसम्।। | 12-164-50a 12-164-50b |
त्रिकूटं चर्म चोद्यम्य सविद्युतमिवाम्बुदम्। चचार विविधान्मार्गान्दानवान्तचिकीर्षया। विधुन्वन्नसिमाकाशे तथा युद्धचिकीर्षया।। | 12-164-51a 12-164-51b 12-164-51c |
तस्य नादं विनदतो महाहासं च मुञ्चतः। बभौ प्रतिभयं रूपं तदा रुद्रस्य भारत।। | 12-164-52a 12-164-52b |
तद्रूपधारिणं रुद्रं रौद्रकर्मचिकीर्षया। निशाम्य दानवाः सर्वे हृष्टाः समभिदुद्रुवुः।। | 12-164-53a 12-164-53b |
अश्मभिश्चाम्यवर्षन्त प्रदीप्तैश्च तथोल्मुकैः। घोरैः प्रहरणैश्चान्यैः क्षुरधारैरयस्मयैः।। | 12-164-54a 12-164-54b |
ततस्तु दानवानीकं संप्रणेतृकमप्युत। खङ्गं दृष्ट्वा बलाधूतं प्रमुमोह चचाल च।। | 12-164-55a 12-164-55b |
चित्रं शीघ्रपदत्वाच्च चरन्तमसिपाणिनम्। तमेकमसुराः सर्वे सहस्रमिति मेनिरे।। | 12-164-56a 12-164-56b |
छिन्दन्भिन्दन्रुजन्कृन्तन्दारयन्प्रथमन्नपि। अचरद्वैरिसङ्घेषु दावाग्निरिव कक्षगः।। | 12-164-57a 12-164-57b |
असिवेगप्रभग्नास्ते छिन्नबाहूरुवक्षसः। उत्तमाङ्गप्रकृत्ताश्च पेतुरुर्व्यां महाबलाः।। | 12-164-58a 12-164-58b |
अपरे दानवा भग्नाः खङ्गधारावपीडिताः। अन्योन्यमभिनर्दन्तो दिशः संप्रतिपेदिरे।। | 12-164-59a 12-164-59b |
भूमिं केचित्प्रविविशुः पर्वतानपरे तथा। अपरे जग्मुराकासमपरेऽम्भः समाविशन्।। | 12-164-60a 12-164-60b |
तस्मिन्महति संवृत्ते समरे भृशदारुणे। बभूव भूः प्रतिभया मांसशोणितकर्दमा।। | 12-164-61a 12-164-61b |
दानवानां शरीरैश्च पतितैः शोणितोक्षितैः। समाकीर्णा महाबाहो शैलैरिव सकिंशुकैः।। | 12-164-62a 12-164-62b |
`रुधिरेण परिक्लिन्ना प्रबभौ वसुधा तदा। रक्तार्द्रवसना श्यामा नारीव मदविह्वला।।' | 12-164-63a 12-164-63b |
स रुद्रो दानवान्हत्वा कृत्वा धर्मोत्तरं जगत्। रौद्रं रुपमथाक्षिप्य चक्रे रूपं शिवं शिवः।। | 12-164-64a 12-164-64b |
ततो महर्षयः सर्वे सर्वे देवगणास्तथा। जयेनाद्भुतकल्पेन देवदेवमथास्तुवन्।। | 12-164-65a 12-164-65b |
ततः स भगवान्रुद्रो दानवक्षतजोक्षितम्। असिं धर्मस्य गोप्तारं ददौ सत्कृत्य विष्णवे।। | 12-164-66a 12-164-66b |
विष्णुर्मरीचये प्रादान्मरीचिर्भार्गवाय तम्। महर्षिभ्यो ददौ खङ्गमृषयो वासवाय च।। | 12-164-67a 12-164-67b |
महेन्द्रो लोकपालेभ्यो लोकपाला तु पुत्रक। मनवे सूर्यपुत्राय ददुः खङ्गं सुविस्तरम्।। | 12-164-68a 12-164-68b |
ऊचुश्चैनं तथा वाक्यं मानुषाणां त्वमीश्वरः। असिना धर्मगर्भेण पालयस्व प्रजा इति।। | 12-164-69a 12-164-69b |
धर्मसेतुमतिक्रान्ताः स्थूलसूक्ष्मार्थकारणात्। विभज्य दण्डं रक्ष्याः स्युर्धर्मतो न यदृच्छया।। | 12-164-70a 12-164-70b |
दुर्वाचा निग्रहो दण्डो हिरण्यबहुलस्तथा। व्यङ्गता च शरीरस्य वधो नाल्पस्य करणात्।। | 12-164-71a 12-164-71b |
असेरेतानि रूपाणि दुर्वारादीनि नि दशेत्। असेरेवं प्रमाणानि परमाण्यभ्यतिक्रमात्।। | 12-164-72a 12-164-72b |
अभिषिच्याथ पुत्रं स्वं प्रजानामधिपं ततः। मनुः प्रजानां रक्षार्थं क्षुपाय प्रददावसिम्।। | 12-164-73a 12-164-73b |
क्षुपाज्जग्राह चेक्ष्वाकुरिक्ष्वाकोश्च पुरूरवाः। आयुश्च तस्माल्लोभे तं नहुषश्च ततो भुवि।। | 12-164-74a 12-164-74b |
ययातिर्नहुषाच्चापि पूरुस्तस्माच्च लब्धवान्। आधूर्तश्च गयस्तस्मात्ततो भूमिशयो नृपः।। | 12-164-75a 12-164-75b |
भरतश्चापि दौष्यन्तिर्लेभे भूमिशयादसिम्। तस्माल्लोभे च धर्मज्ञो राजन्नैलबिलस्तथा।। | 12-164-76a 12-164-76b |
ततस्त्वैलबिलाल्लेभे धुन्धुमारो नरेश्वरः। धुन्धुमाराच्च काम्भोजो मुचुकुन्दस्ततोऽभजत्।। | 12-164-77a 12-164-77b |
मुचुकुन्दान्मरुत्तश्च मरुत्तादपि रैवतः। रैवताद्युवनाश्वश्च युवनाश्वात्ततो रघुः।। | 12-164-78a 12-164-78b |
इक्ष्वाकुवंशजस्तस्माद्धरिणाश्वः प्रतापवान्। हरिणाश्वादसिं लेभे शुनकः शुनकादपि।। | 12-164-79a 12-164-79b |
उशीनरो वै धर्मात्मा तस्माद्भोजाः सयादवाः। यदुभ्यश्च शिबिर्लेभे शिबेश्चापि प्रतर्दनः।। | 12-164-80a 12-164-80b |
प्रतर्दनादष्टकश्च रुशदश्वोऽष्टकादपि। रुशदश्वाद्भरद्वाजो द्रोणस्तस्मात्कृपस्ततः। ततस्त्वं भ्रातृभिः सार्धं परमासिमवाप्तवान्।। | 12-164-81a 12-164-81b 12-164-81c |
कृत्तिकास्तस्य नक्षत्रमसेरग्निश्च दैवतम्। रोहिण्यो गोत्रमस्याथ रुद्राश्च गुरुसत्तमाः।। | 12-164-82a 12-164-82b |
असेरष्टौ हि नामानि रहस्यानि निबोध मे। पाण्डवेय सदा यानि कीर्तयँल्लभते जयम्।। | 12-164-83a 12-164-83b |
असिर्विशसनः खङ्गस्तीक्ष्णचर्मा दुरासदः। श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्मपालस्तथैव च।। | 12-164-84a 12-164-84b |
अग्र्यः प्रहरणानां च खङ्गो भुवि परिश्रुतः। महेश्वरप्रणीतश्च पुराणे निश्चयं गतः। `एतानि चैव नामानि पुराणे निश्चितानि वै।।' | 12-164-85a 12-164-85b 12-164-85c |
पृथुस्तूत्पादयामास धनुराद्यमरिंदमः। तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानि सुबहून्यपि। धर्मेण च यथापूर्वं वैन्येन परिरक्षिता।। | 12-164-86a 12-164-86b 12-164-86c |
तदेतदार्षं माद्रेय प्रमाणं कर्तुमर्हसि। असेश्च पूजा कर्तव्या सदा युद्धविशारदैः।। | 12-164-87a 12-164-87b |
इत्येष प्रथमः कल्पो मया ते कथितः पुनः। एवमेवासिसर्गोऽयं यथावद्भरतर्षभ।। | 12-164-88a 12-164-88b |
सर्वथा तमिह श्रुत्वा स्वङ्गस्यागममुत्तमम्। लभते पुरुषः कीर्ति प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते।। | 12-164-89a 12-164-89b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 164।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-164-1 कथान्तरं आपद्धर्माणं साङ्गानां समाप्तत्वात् कथाया अवसानं असाद्य प्राप्य।। 12-164-10 धातुमानिव पर्वत इति झ. पाठः। तत्र धातुमान् गैरिकवान् रुधिरोक्षितत्वादित्यर्थः।। 12-164-19 प्लवङ्ग श्च महोरगा इति झ. पाठः।। 12-164-21 धर्मं प्रयुयुजे तत इति झ. पाठः।। 12-164-25 वानप्रस्था इति झ. पाठः।। 12-164-32 पद्मानीव तारका यत्र लग्नास्तस्मिन् पद्मतारके। अत्यन्तमुच्छ्रित इत्यर्थः।। 12-164-35 समिद्भिः परिकीर्णमिति झ. पाठः।। 12-164-38 विकीर्याग्निमिति झ. पाठः।। 12-164-51 त्रिकूटं त्रीणि कृटानि कपटानि पार्श्वयोरग्ने च तीक्ष्णधाररूपाणि परविदारकाणि यस्मिंन्।। 12-164-72 दुर्वागादीनि निर्दिशेदिति ट. ड. पाठः।।
शांतिपर्व-163 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-165 |