महाभारतम्-12-शांतिपर्व-349
Jump to navigation
Jump to search
← शांतिपर्व-348 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-349 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-350 → |
श्रीहरेर्थज्ञेष्वग्रभागभाक्त्वप्रकारं पृष्टेन सौतिना तत्कथनाय शौनकादीन्प्रति ब्रह्मादीनां श्वेतद्वीपगमनादिप्रतिपादक व्यासवैशंपायनादिसंवादानुवादः।। 1।।
शौकन उवाच। | 12-349-1x |
कथं स भगवान्देवो यज्ञेष्वग्रहरः प्रभुः। यज्ञधारी च सततं वेदवेदाङ्गवित्तथा।। | 12-349-1a 12-349-1b |
निवृत्तं चास्थितो धर्मं क्षेमी भागवतः प्रभुः। निवृत्तिधर्मान्विदधे स एव भगवान्प्रभुः।। | 12-349-2a 12-349-2b |
कथं प्रवृत्तिधर्मेषु भागार्हा देवताः कृताः। कथं निवृत्तिधर्माश्च कृता व्यावृत्तबुद्धयः।। | 12-349-3a 12-349-3b |
एतं नः संशयं सौते छिन्धि गुह्यं सनातनम्। त्वया नारायणकथाः श्रुता वै धर्मसंहिताः।। | 12-349-4a 12-349-4b |
सौतिरुवाच। | 12-349-5x |
जनमेजयेन यत्पृष्टः शिष्यो व्यासस्य धीमतः। तत्तेऽहं कथयिष्यामि पौराणं शौनकोत्तम।। | 12-349-5a 12-349-5b |
श्रुत्वा माहात्म्यमेतस्य देहिनां परमात्मनः। जनमेजयो महाप्राज्ञो वैशंपायनमब्रवीत्।। | 12-349-6a 12-349-6b |
इमे सब्रह्यका लोकाः ससुरासुरमानवाः। क्रियास्वभ्युदयोक्तासु सक्ता दृश्यन्ति सर्वशः।। | 12-349-7a 12-349-7b |
मोक्षश्चोक्तस्त्वया ब्रह्मन्निर्वाणं परमं सुखम्। ये तु मुक्ता भवन्तीह पुण्यपापविवर्जिताः। ते सहस्रार्चिषं देवं प्रविशन्तीह शुश्रुम्।। | 12-349-8a 12-349-8b 12-349-8c |
अयं हि दुरनुष्ठेयो मोक्षधर्मः सनातनः। यं हित्वा देवताः सर्वा हव्यकव्यभुजोऽभवन्।। | 12-349-9a 12-349-9b |
किंच ब्रह्मा च रुद्रश्च बलभित्प्रभुः। सूर्यस्ताराधिपो वायुरग्निर्वरुण एव च।। | 12-349-10a 12-349-10b |
आकाशं जगती चैव ये च शेषा दिवौकसः। प्रलयं न विजानन्ति आत्मनः परिनिर्मितम्।। | 12-349-11a 12-349-11b |
ततस्तेनास्थिता मार्गं ध्रुवमक्षरमव्ययम्। स्मृत्वा कालपरीमाणं प्रवृत्तिं ये समास्थिताः। दोषः कालपरीमाणो महानेष क्रियावताम्।। | 12-349-12a 12-349-12b 12-349-12c |
एतन्मे संशयं विप्र हृदि शल्यमिवार्पितम्। छिन्धीतिहासकथनात्परं कौतूहलं हि मे।। | 12-349-13a 12-349-13b |
कथं भागहराः प्रोक्ता देवताः क्रतुषु द्विज। किमर्थं चाध्वरे ब्रह्मन्निज्यन्ते त्रिदिवौकसः।। | 12-349-14a 12-349-14b |
ये च भागं प्रगृह्णन्ति यज्ञेषु द्विजसत्तम। ते यजन्तो महायज्ञैः कस्य भागं ददन्ति वै।। | 12-349-15a 12-349-15b |
वैशंपायन उवाच। | 12-349-16x |
अहो गूढतमः प्रश्नस्त्वया पृष्टो जनेश्वर। नातप्ततपसा ह्येष नावेदविदुषा तथा। नापुराणविदा चैव शक्यो व्याहर्तुमञ्जसा।। | 12-349-16a 12-349-16b 12-349-16c |
हन्त ते कथयिष्यामि यन्मे पृष्टः पुरा गुरुः। कृष्णद्वैपायनो व्यासो वेदव्यासो महानृषिः।। | 12-349-17a 12-349-17b |
सुमन्तुर्जैमिनिश्चैव पैलश्च सुदृढव्रतः। अहं चतुर्थः शिष्यो वै पञ्चमश्च शुकः स्मृतः।। | 12-349-18a 12-349-18b |
एतान्समागतान्सर्वान्पञ्च शिष्यान्दमान्वितान्। शौचाचारसमायुक्ताञ्जितक्रोधाञ्जितेन्द्रियान्।। | 12-349-19a 12-349-19b |
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्। मेरौ गिरिवरे रम्ये सिद्धचारणसेविते।। | 12-349-20a 12-349-20b |
तेषामभ्यस्यतां वेदान्कदाचित्संशयोऽभवत्। एष वै यस्त्वया पृष्टस्तेन तेषां प्रकीर्तितः।। | 12-349-21a 12-349-21b |
ततः श्रुतो मया चापि तवाख्येयोऽद्य भारत।। | 12-349-22a |
शिष्याणां वचनं श्रुत्वा सर्वाज्ञानतमोनुदः। पराशरसुतः श्रीमान्व्यासो वाक्यमथाब्रवीत्।। | 12-349-23a 12-349-23b |
मया हि सुमहत्तप्तं तपः परमदारुणम्। भूतं भव्यं भविष्यं च जानीयामिति सत्तमाः।। | 12-349-24a 12-349-24b |
तस्य मे तप्ततपसो निगृहीतेन्द्रियस्य च। नारायणप्रसादेन क्षीरोदस्यानुकूलतः।। | 12-349-25a 12-349-25b |
त्रैकालिकमिदं ज्ञानं प्रादुर्भूतं यथेप्सितम्। तच्छृणुध्वं यथान्यायं वक्ष्ये संशयमुत्तमम्।। | 12-349-26a 12-349-26b |
यथा वृत्तं हि कल्पादौ दृष्टं मे ज्ञानचक्षुषा। परमात्मेति यं प्राहुः साङ्ख्ययोगविदो जनाः।। | 12-349-27a 12-349-27b |
महापुरुषसंज्ञां स लभते स्वेन कर्मणा। तस्मात्प्रसूतमव्यक्तं प्रधानं तं विदुर्बुधाः।। | 12-349-28a 12-349-28b |
अव्यक्ताद्व्यक्तमुत्पन्नं लोकसृष्ट्यर्थमीश्वरात्। अनिरुद्धो हि लोकेषु महानात्मेति कथ्यते।। | 12-349-29a 12-349-29b |
योसौ व्यक्तत्वमापन्नो निर्ममे च पितामहम्। योऽहंकार इति प्रोक्तः सर्वतेजोमयो हि सः।। | 12-349-30a 12-349-30b |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्। अहंकारप्रसूतानि महाभूतानि पञ्चधा।। | 12-349-31a 12-349-31b |
महाभूतानि सृष्ट्वैव तान्गुणान्निर्ममे पुनः। भूतेभ्यश्चैव निष्पन्ना मूर्तिमन्तश्च ताञ्शृणु।। | 12-349-32a 12-349-32b |
मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठश्च महात्मा वै मनुः स्वायंभुवस्तथा। ज्ञेयाः प्रकृतयोऽष्टौ ता यासु लोकाः प्रतिष्ठिताः।। | 12-349-33a 12-349-33b 12-349-33c |
वेदान्वेदाङ्गसंयुक्तान्यज्ञयज्ञाङ्गसंयुतान्। निर्ममे लोकसिद्ध्यर्थं ब्रह्मा लोकपितामहः।। | 12-349-34a 12-349-34b |
अष्टाभ्यः प्रकृतिभ्यश्च जातं विश्वमिदं जगत्।। | 12-349-35a |
रुद्रो रोषात्मको जातो दशान्यान्सोसृजस्त्वयम्। एकादशैते रुद्रास्तु विकाराः पुरुषाः स्मृताः।। | 12-349-36a 12-349-36b |
ते रुद्राः प्रकृरतिश्चैव सर्वे चैव सुरर्षयः। उत्पन्ना लोकसिद्ध्यर्थं ब्रह्माणं समुपस्थिताः।। | 12-349-37a 12-349-37b |
वयं सृष्टा हि भगवंस्त्वया च प्रभविष्णुना। येन यस्मिन्नधीकारे वर्तितव्यं पितामह।। | 12-349-38a 12-349-38b |
योसौ त्वयाऽभिनिर्दिष्टो ह्यधिकारोऽर्थचिन्तकः। परिपाल्यः कथं तेन साहंकारेण कर्तृणा।। | 12-349-39a 12-349-39b |
प्रदिशस्व बलं तस्य योऽधिकारार्थचिन्तकः। एवमुक्तो महादेवो देवांस्तानिदमब्रवीत्।। | 12-349-40a 12-349-40b |
ब्रह्मोवाच। | 12-349-41x |
साध्वहं ज्ञापितो देवा युष्माभिर्भद्रमस्तु वः। ममाप्येषा समुत्पन्ना चिन्ता या भवतामिह।। | 12-349-41a 12-349-41b |
लोकतन्त्रस्य कृत्स्नस्य कथं कार्यः परिग्रहः। कथं बलक्षयो न स्याद्युष्माकं ह्यात्मनश्च वै।। | 12-349-42a 12-349-42b |
इतः सर्वेऽपि गच्छामः शरणं लोकसाक्षिणम्। महापुरुषमव्यक्तं स नो वक्ष्यति यद्धितम्।। | 12-349-43a 12-349-43b |
ततस्ते ब्रह्मणा सार्धमृषयो विबुधास्तथा। क्षीरादस्योत्तरं कूलं जग्मूर्लोकहितार्थिनः।। | 12-349-44a 12-349-44b |
ते तपः समुपातिष्ठन्ब्रह्मोक्तं वेदकल्पितम्। स महानियमो नाम तपश्चर्या सुदारुणा।। | 12-349-45a 12-349-45b |
ऊर्ध्वदृग्बाहवश्चैव एकाग्रमनसोऽभवन्। एकपादस्थिताः सर्वे काष्ठभूताः समाहिताः।। | 12-349-46a 12-349-46b |
दिव्यं वर्षसहस्रं ते तपस्तप्त्वा सुदारुणम्। शुश्रुवुर्मधुरां वाणीं वेदवेदाङ्गभूषिताम्।। | 12-349-47a 12-349-47b |
वागुवाच। | 12-349-48x |
भोभोः सब्रह्यका देवा ऋषयश्च तपोधनाः। स्वागतेनार्च्य वः सर्वाञ्श्रावये वाक्यमुत्तमम्।। | 12-349-48a 12-349-48b |
विज्ञातं वो मया कार्यं तच्च लोकहितं महत्। प्रवृत्तियुक्तं कर्तव्यं युष्मत्प्राणोपबृंहणम्।। | 12-349-49a 12-349-49b |
सुतप्तं वस्तपो देवा ममाराधनकाम्यया। भोक्ष्यथास्य महासत्वास्तपसः फलमुत्तमम्।। | 12-349-50a 12-349-50b |
एष ब्रह्मा लोकगुरुः सर्वलोकपितामहः। यूयं च विबुधश्रेष्ठा मां यजध्वं समाहिताः।। | 12-349-51a 12-349-51b |
सर्वे भागान्कल्पयध्वं यज्ञेषु मम नित्यशः। तत्र श्रेयोऽभिधास्यामि यथाऽधीकारमीश्वराः।। | 12-349-52a 12-349-52b |
वैशंपायन उवाच। | 12-349-53x |
श्रुत्वैतद्देवदेवस्य वाक्यं हृष्टतनूरुहाः। ततस्ते विबुधाः सर्वे ब्रह्मा ते च महर्षयः।। | 12-349-53a 12-349-53b |
वेददृष्टेन विधिना वैष्णवं क्रतुमाहरन्। तस्मिन्सत्रे सदा ब्रह्मा स्वयं भागमकल्पयत्।। | 12-349-54a 12-349-54b |
देवा देवर्षयश्चैव स्वंस्वं भागमकल्पयम्। ते कार्तयुगधर्माणो भागाः परमसत्कृताः।। | 12-349-55a 12-349-55b |
प्राहुरादित्यवर्णं तं पुरुषं तमसः परम्। बृहन्तं सर्वगं देवमीशानं वरदं प्रभुम्।। | 12-349-56a 12-349-56b |
ततोऽथ वरदौ देवस्तान्सर्वानमरान्स्थितान्। अशरीरो बभापेदं वाक्यं स्वस्थो महेश्वरः।। | 12-349-57a 12-349-57b |
येन यः कल्पितो भागः स तथा मामुपागतः। प्रीतोऽहं प्रदिशाम्यद्य फलमावृत्तिलक्षणम्। एतद्वो लक्षणं देवा मत्प्रसादसमुद्भवम्।। | 12-349-58a 12-349-58b 12-349-58c |
यूयं यज्ञैरिज्यमानाः समाप्तवरदक्षिणैः। युगेयुगे भविष्यध्वं प्रवृत्तिफलभागिनः।। | 12-349-59a 12-349-59b |
यज्ञैर्ये चापि यक्ष्यन्ति सर्वलोकेषु वै सुराः। कल्पयिष्यन्ति वो भागांस्ते नरा वेदकल्पितान्।। | 12-349-60a 12-349-60b |
यो मे यथा कल्पितवान्भागमस्मिन्महाक्रतौ। स तथा यज्ञभागार्हो वेदसूत्रे मया कृतः।। | 12-349-61a 12-349-61b |
यूयं लोकान्भावयध्वं यज्ञभागफलोचिताः। सर्वार्थचिन्तका लोके मयाऽधीकारनिर्मिताः।। | 12-349-62a 12-349-62b |
याः क्रियाः प्रचरिष्यन्ति प्रवृत्तिफलसत्कृताः। ताभिराप्यायितबला लोकान्वै धारयिष्यथ।। | 12-349-63a 12-349-63b |
यूयं हि भाविता यज्ञैः सर्वयज्ञेषु मानवैः। मां ततो भावयिष्यध्वमेषा वो भावना मम।। | 12-349-64a 12-349-64b |
इत्यर्थं निर्मिता वेदा यज्ञाश्चौषधिभिः सह। एभिः सम्यक्प्रयुक्तैर्हि प्रीयन्ते देवताः क्षितौ।। | 12-349-65a 12-349-65b |
निर्माणमेतद्युष्माकं प्रवृत्तिगुणकल्पितम्। मया कृतं सुरश्रेष्ठा यवात्कल्पक्षयादिह। चिन्तयध्वं लोकहितं यथादीकारमीश्वराः।। | 12-349-66a 12-349-66b 12-349-66c |
मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। वसिष्ठ इति सप्तैते मनसा निर्मिता हि ते।। | 12-349-67a 12-349-67b |
एते वेदविदो मुख्या वेदाचार्याश्च कल्पिताः। प्रवृत्तिधर्मिणश्चैव प्राजापत्ये च कल्पिताः।। | 12-349-68a 12-349-68b |
अयं क्रियावतां पन्था व्यक्तीभूतः सनातनः। अनिरुद्ध इति प्रोक्तो लोकसर्गकरः प्रभुः।। | 12-349-69a 12-349-69b |
सनः सनत्सुजातश्च सनकः समनन्दनः। सनत्कुमारः कपिलः सप्तमश्च सनातनः।। | 12-349-70a 12-349-70b |
सप्तैते मानसाः प्रोक्ता ऋषयो ब्रह्मणः सुताः। स्वयमागतविज्ञाना निवृत्तिं धर्ममास्थिताः।। | 12-349-71a 12-349-71b |
एते योगविदो मुख्याः साङ्ख्यशास्त्रविशारदाः। आचार्या धर्मशास्त्रेषु मोक्षधर्मप्रवर्तकाः।। | 12-349-72a 12-349-72b |
यतोऽहं प्रसृतः पूर्वमव्यक्तात्रिगुणो महान्। तस्मात्परतरो योसौ क्षेत्रज्ञ इति कल्पितः।। | 12-349-73a 12-349-73b |
सोहं क्रियावतां पन्थाः पुनरावृत्तिदुर्लभः। यो यथा निर्मितो जन्तुर्यस्मिन्यस्मिंश्च कर्मणि।। | 12-349-74a 12-349-74b |
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा तत्फलं सोश्नुतेऽवशः। एष लोकगुरुर्ब्रह्मा जगदादिकरः प्रभुः।। | 12-349-75a 12-349-75b |
एष माता पिता चैव युष्माकं च पितामहः। मयाऽनुशिष्टो भविता सर्वभूतवरप्रदः।। | 12-349-76a 12-349-76b |
अस्य चैवात्मजो रुद्रो ललाटाद्यः समुत्थितः। ब्रह्मानुशिष्टो भविता सर्वभूतधरः प्रभुः।। | 12-349-77a 12-349-77b |
गच्छध्वं स्वानधीकारांश्चिन्तयध्वं यथाविधि। प्रवर्तन्तां क्रियाः सर्वाः सर्वलोकेषु माचिरम्।। | 12-349-78a 12-349-78b |
प्रदिश्यन्तां च कर्माणि प्राणिनां गतयस्तथा। परिनिष्ठितकालानि आयूंषीह सुरोत्तमाः।। | 12-349-79a 12-349-79b |
इदं कृतयुगं नाम कालः श्रेष्ठः प्रवर्तितः। अहिंस्या यज्ञपशवो युगेऽस्मिन्न तदन्यथा।। | 12-349-80a 12-349-80b |
चतुष्पात्सकलो धर्मो भविष्यत्यत्र वै सुराः। ततस्त्रेतायुगं नाम त्रयी यत्र भविष्यति।। | 12-349-81a 12-349-81b |
प्रोक्षिता यत्र पशवो वधं प्राप्स्यन्ति वै मखे। यत्र पादश्चतुर्थो वै धर्मस्य न भविष्यति।। | 12-349-82a 12-349-82b |
ततो वै द्वापरं नाम मिश्रः कालो भविष्यति। द्विपादहीनो धर्मश्च युगे तस्मिन्भविष्यति।। | 12-349-83a 12-349-83b |
ततस्तिष्येऽथ संप्राप्ते युगे कलिपुरस्कृते। एकपादस्थितो धर्मो यत्र तत्र भविष्यति।। | 12-349-84a 12-349-84b |
देवा ऊचुः। | 12-349-85x |
देवा देवर्षयश्चोचुस्तमेवंवादिनं गुरुम्। एकपादस्थिते धर्मे यत्र क्वचन गामिनि। कथं कर्तव्यमस्माभिर्भगवंस्तद्वदस्व नः।। | 12-349-85a 12-349-85b 12-349-85c |
श्रीभगवानुवाच। | 12-349-86x |
`गुरवो यत्र पूज्यन्ते साधुवृत्तसमन्विताः। वस्तव्यं तत्र युष्माभिर्यत्र धर्मो न हीयते।।' | 12-349-86a 12-349-86b |
यत्र वेदाश्च यज्ञाश्च तपः सत्यं दमस्तथा। अहिंसा धर्मसंयुक्ताः प्रचरेयुः सुरोत्तमाः। स वो देशः सेवितव्यो मा वोऽधर्मः पदा स्पृशेत्।। | 12-349-87a 12-349-87b 12-349-87c |
व्यास उवाच। | 12-349-88x |
तेऽनुशिष्टा भगवता देवाः सपिगणास्तथा। नमस्कृत्वा भगवते जग्मुर्देशान्यथेप्सितान्।। | 12-349-88a 12-349-88b |
गतेषु त्रिदिवौकस्सु ब्रह्मैकः पर्यवस्थितः। दिदृक्षुर्भगवन्तं तमनिरुद्धतनौ स्थितम्।। | 12-349-89a 12-349-89b |
तं देवो दर्शयामास कृत्वा हयशिरो महत्। साङ्गानावर्तयन्वेदान्कमण्डलुत्रिदण्डधृक्।। | 12-349-90a 12-349-90b |
ततोऽश्वशिरसं दृष्ट्वातं देवममितौजसम्। लोककर्ता प्रभुर्ब्रह्मा लोकानां हितकाम्यया।। | 12-349-91a 12-349-91b |
मूर्ध्ना प्रणम्य वरदं तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः। स परिष्वज्य देवेन वचनं श्रावितस्तदा।। | 12-349-92a 12-349-92b |
भगवानुवाच। | 12-349-93x |
लोककार्यगतीः सर्वास्त्वं चिन्तय यथाविधि। धाता त्वं सर्वभूतानां त्वं प्रभुर्जगतो गुरुः। त्वय्यावेशितभारोऽहं धृतिं प्राप्स्याम्यथाञ्जसा।। | 12-349-93a 12-349-93b 12-349-93c |
यदा च सुरकार्यं ते अविषह्यं भविष्यति। प्रादुर्भावं गमिष्यामि तदात्मज्ञानदैशिकः।। | 12-349-94a 12-349-94b |
व्यास उवाच। | 12-349-95x |
एवमुक्त्वा हयशिरास्तत्रैवान्तरधीयत। तेनानुशिष्टो ब्रह्मापि स्वं लोकमचिराद्गतः।। | 12-349-95a 12-349-95b |
एवमेष महाभागः पद्मनाभः सनातनः। यज्ञेष्वग्रहरः प्रोक्तो यज्ञधारी च नित्यदा।। | 12-349-96a 12-349-96b |
निवृत्तिं चास्थितो धर्मं गमिमक्षयधर्मिणाम्। प्रवृत्तिधर्मान्विदधे कृत्वा लोकस्य चित्रताम्।। | 12-349-97a 12-349-97b |
स आदिः स मध्यः स चान्तः प्रजानां स धाता स धेयं स कर्ता स कार्यम्। युगान्ते प्रसुप्तः सुसंक्षिप्य लोकान् युगादौ प्रबुद्धो जगद्ध्युत्ससर्ज।। | 12-349-98a 12-349-98b 12-349-98c 12-349-98d |
तस्मै नमध्वं देवाय निर्गुणाय महात्मने। अजाय विश्वरूपाय धाम्ने सर्वदिवौकसाम्।। | 12-349-99a 12-349-99b |
महाभूताधिपतये रुद्राणां पतये तथा। आदित्यपतये चैव वसूनां पतये तथा।। | 12-349-100a 12-349-100b |
अश्विभ्यां पतये चैव मरुतां पतये तथा। वेदयज्ञाधिपतये वेदाङ्गपतयेऽपि च।। | 12-349-101a 12-349-101b |
समुद्रावसिने नित्यं हरये मुञ्जकेशिने। शान्ताय सर्वभूतानां मोक्षधर्मानुभाषिणे।। | 12-349-102a 12-349-102b |
तपसां तेजसां चैव पतये यशसामपि। वचसां पतये नित्यं सरितां पतये तथा।। | 12-349-103a 12-349-103b |
कपर्दिने वराहाय एकशृङ्गाय धीमते। विवस्वतेऽश्वशिरसे चतुर्मूर्तिधृते सदा। सूक्ष्माय ज्ञानदृश्याय अजरायाक्षयाय च।। | 12-349-104a 12-349-104b 12-349-104c |
एष देवः संचरति सर्वत्र गतिरव्ययः। [एष चैतत्परं ब्रह्म ज्ञेयो विज्ञानचक्षुषा।।] | 12-349-105a 12-349-105b |
एवमेतत्पुरा दृष्टं मया वै ज्ञानचक्षुषा। कथितं तच्च वै सर्वं मया पृष्टेन तत्त्वतः।। | 12-349-106a 12-349-106b |
क्रियतां मद्वचः शिष्याः सेव्यतां हरिरीश्वरः। गीयतां वेदशब्दैश्च पूज्यतां च यथाविधि।। | 12-349-107a 12-349-107b |
वैशंपायन उवाच। | 12-349-108x |
इत्युक्तास्तु वयं तेन वेदव्यासेन धीमता। सर्वे शिष्या सुतश्चास्य शुकः परमधर्मवित्।। | 12-349-108a 12-349-108b |
स चास्माकमुपाध्यायः सहास्माभिर्विशांपते। चतुर्वेदोद्गताभिस्तमृग्भिः समभितुष्टुवे।। | 12-349-109a 12-349-109b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। एवं मेऽकथयद्राजन्पुरा द्वैपायनो गुरुः।। | 12-349-110a 12-349-110b |
यश्चेदं शृणुयान्नित्यं यश्चैनं परिकीर्तयेत्। नमो भगवते कृत्वा समाहितमतिर्नरः।। | 12-349-111a 12-349-111b |
भवत्यरोगो मतिमान्बलरूपसमन्वितः। आतुरो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात्।। | 12-349-112a 12-349-112b |
कामकामी लभेत्कामं दीर्घं चायुरवाप्नुयात्। ब्राह्मणः सर्ववेदी स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत्।। | 12-349-113a 12-349-113b |
वैश्यो विपुललाभः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात्। अपुत्रो लभते पुत्रं कन्या चैवेप्सितं पतिम्।। | 12-349-114a 12-349-114b |
लग्नगर्भा विमुच्येत गर्भिणी जनयेत्सुतम्। बन्ध्या प्रसवमाप्नोति पुत्रपौत्रसमृद्धिमत्।। | 12-349-115a 12-349-115b |
क्षेमेण गच्छेदध्वानमिदं यः पठते पथि। यो यं कामं कामयते स तमाप्नोति च ध्रुवम्।। | 12-349-116a 12-349-116b |
इदं महर्षेर्वचनं विनिश्चितं महात्मनः पुरुषवरस्य कीर्तितम्। समागमं चर्षिदिवौकसामिमं निशम्य भक्ताः सुसुखं लभन्ते।। | 12-349-117a 12-349-117b 12-349-117c 12-349-117d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये एकोनपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 349।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-349-1 यज्ञेष्वाहूयते प्रभुरिति ट. ध. पाठः।। 12-349-2 क्षेमं भागवतं प्रभुरिति ट. पाठः।। 12-349-12 स्मृतिकालपरीमाणमिति झ. पाठः।। 12-349-29 लोकेषु महाराजेति कथ्यत इति थ. पाठः।। 12-349-32 निष्पन्नानष्टौ मूर्तिमतः शृण्विति ध. पाठः।। 12-349-35 निर्ममे लोकसृष्ट्यर्थमिति थ. ध. पाठः।। 12-349-90 कमण्डलुपवित्रधृगिति ध. पाठः।। 12-349-94 तदात्मज्ञानयोगजमिति ट. ध. पाठः।।
शांतिपर्व-348 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-350 |